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मनोविकार

by Akhand Jyoti Magazine

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जीवन में अच्छे मित्रों को ढूँढ़ने की जितनी आवश्यकता होती है, उतनी ही आवश्यकता शत्रुओं को पहचानने की भी होती है। शत्रुओं का अर्थ मात्र उनसे नहीं है, जो हमारे ऊपर घात-प्रतिघात करते हैं, पर उन अवसरवादियों से भी है जो जब समय या अवसर मिले, तब हमारे ऊपर प्रतिघात करने में चूकते नहीं हैं। सिर में जुएँ, खाट में खटमल, गोदाम में चूहे, हवा में विषाणु पानी में जीवाणु निरंतर बने ही रहते हैं और जब उनको अवसर मिलता है, तभी वे हमारे ऊपर कोई-न-कोई प्राणघातक संकट खड़ा कर देते हैं।

शत्रुओं में कुछ शत्रु बाहरी होते हैं और उनकी पहचान बाहर ही हो जाती है, पर इन शत्रुओं में कुछ शत्रु आंतरिक होते हैं, जो मनोविकारों के रूप में हमारे स्वभाव में सम्मिलित हो जाते हैं। आलस्य, प्रमाद, उद्विग्नता, चिंता, भय, ईर्ष्या, अविश्वास जैसे दुर्गुण ऐसे हैं कि यदि हमारी आदत में शामिल हो गए तो उनके द्वारा वो हानि फैल जाती है, जो बाहरी शत्रु भी नहीं कर पाते।

स्मरण रखना चाहिए कि चिंतन से चरित्र और चरित्र से व्यक्तित्व बनता है। चिंतन यदि दूषित हो जाए तो प्रकारांतर से कुकर्म की ही पृष्ठभूमि तैयार होती है। | मनुष्य की मनःस्थिति ही तदनुरूप परिस्थितियाँ बनाती है और उन्हीं के अनुसार व्यक्ति को सुख-दुःख से भरे प्रतिफल मिलते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। गुण, कर्म, स्वभाव- ये तीनों ही कर्म का आधार बनते हैं। ये अच्छे स्तर के हों तो मित्र हैं और यदि इनमें विकृति घुस पड़े तो ये ही शत्रु बन जाते हैं। मनोविकाररूपी शत्रुओं पर विजय पाना ही आत्मिक संघर्ष का मूलाधार है।

अखण्ड ज्योति,फरवरी 2022

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