नव सृजन योजना’ महाकाल की योजना है। वह पूरी तो होनी ही है। उस परिवर्तन का आधार बनेगा चरित्रनिष्ठ, भाव-संवेदना युक्त व्यक्तित्वों से। ऐसे व्यक्तित्व बनाना विद्या का काम है, मात्र शिक्षा उसके लिए पर्याप्त नहीं। मात्र शिक्षा-साक्षरता तो मनुष्य को निपट स्वार्थी भी बना सकती है। उसमें विद्या का समावेश अनिवार्य है। अस्तु, नवयुग के अनुरूप मन:स्थितियाँ एवं परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए बड़ी संख्या में ऐसे प्राध्यापकों की आवश्यकता अनुभव हो रही है, जिनकी शिक्षा भले ही सामान्य हो, पर वे अपने चुंबकीय व्यक्तित्व और चरित्र से निकटवर्ती क्षेत्र को अपनी विशिष्टताओं से भर देने की विद्या के धनी हों।
नाविक के लिए आवश्यक नहीं कि उसके पास स्नातकोत्तर परीक्षा पास करने का प्रमाण पत्र हो ही। मजबूत कलाई और चौड़े सीने वाला हिम्मत के सहारे उफनती नदी की छाती पर दनदनाता हुआ दौड़ता रहता है। अपने को, अपने निकट वालों को-नाव पर बैठी हुई सवारियों को इस पार से उस पार पहुँचाने में उसे देर नहीं लगती, वरन् हिम्मत और सफलता को देखते हुए गर्व-गौरव अनुभव करता है।
विद्वान, मनीषी और मूर्धन्य सर्वत्र सम्मान पाते हैं। उनकी गरिमा और उपयोगिता से कोई इन्कार नहीं कर रहा है, वरन कहा यह भर जा रहा है कि ईमान और भगवान को भुला देने वाले आज के समुदाय को ऐसे उद्धारक चाहिए, जो गहरी कीचड़ में फँसे जानवरों की खींच घसीट कर किनारे तक पहुँचा देने की साहसिकता का परिचय दे सकें।
अगले दिनों नव-युग का आगमन आँधी तूफान की तरह दौड़ता चला आ रहा है। उसमें होगा तो प्रथा प्रचलनों का परिवर्तन भी, पर सबसे प्रमुख एवं मौलिक परिवर्तन एक ही होगा कि मनुष्य को इक्कड़ बनकर नहीं रहने दिया जाएगा। जंगली जानवरों में कभी-कभी झुंड को छोड़कर कोई उद्दंड अकेले रहने लगता है। वह सामूहिकता की रीति-नीति भूल जाता है और बगावत पर उतर आता है। किसी पर भी आँखें बंद करके हमला बोल देता है। उसे ‘इक्कड़’ कहते हैं। इक्कड़ मनुष्य, जिसके ऊपर संकीर्ण स्वार्थपरता का प्रेत-पिशाच हर समय चढ़ा रहता है, उसे हर किसी के लिए खतरनाक ही समझना चाहिए। समस्त अपराधों और अनाचारों की जन्मदात्री संकीर्ण स्वार्थपरता ही है। आज की अगणित विडम्बनाओं, विभीषिकाओं का यदि एकमात्र कारण ढूँढ़ना हो तो उसे एक ही रूप में मापा जा सकता है-तृष्णा और अहमन्यता। यदि इसमें कटौती की जा सके, तो समझना चाहिए कि सिर पर लदा चट्टान जैसा भारी बोझ हल्का हुआ और मानवी गरिमा के अनुरूप प्रगति कर सकने का पथ प्रशस्त हुआ।
मनुष्य की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह दो मुट्ठी अनाज और दो गज कपड़े के सहारे मजे में गुजारा कर सकता है। इतना जुटाने में उसका दो घंटे का श्रम-समय पर्याप्त होना चाहिए। यह सुविधा सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं है। उन्हें दिन भर पेट भरने का जुगाड़ बिठाने में दौड़ना पड़ता है। सुरक्षा की दृष्टि से भी उन्हें भयभीत रहना पड़ता है; पर मनुष्य के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं है। निजी निर्वाह के अतिरिक्त जो कुछ उसके पास बच जाता है, वह आवश्यकता पूर्ति के अतिरिक्त सैकड़ों हजारों गुना अधिक है। इस बचत को पुण्य-परमार्थ के लिए नियोजित करके ही संसार के विवेकवानों ने दैव मानव का स्तर पाया है, अपना भला किया है और असंख्यों को अपने कंधों पर बिठाकर पार उतारने का श्रेय संपादित किया है।
यदि इतनी मोटी बात किसी की भाव-चेतना में प्रवेश कर सके, व्यवहार में उतर सके तो समझना चाहिए कि उसे देव-मानव बनने का सौभाग्य हस्तगत हो गया। उसे अवांछनीयता के प्रवाह-वातावरण को बदलने का अकूत बल उपलब्ध हो गया। अन्यथा सड़न से उत्पन्न होने वाले विष कीटकों द्वारा सर्वत्र गंदगी फैलाने का खतरा सामने खड़ा ही रहेगा।
नव-युग में शिक्षा-साक्षरता तो बढ़ती ही रहेगी। व्यक्ति समाज और सरकार ने उसे मान्यता दे दी है, फिर वह बढ़ेगी क्यों नहीं? कुछ ही दिन में निरक्षरता की कालिख से सभी लोग अपना मुँह धोकर साफ कर लेंगे। प्रश्न विद्या का है। उसका न कहीं महत्व समझा जा रहा है और न कोई आवश्यकता ही। मानवी गरिमा को उपलब्ध करने के लिए किसी का मन नहीं। उत्कृष्ट आदर्शवादिता और दूरदर्शी विवेकशीलता को बढ़ाने-अपनाने के लिए कहीं ऐसे प्रयत्न नहीं चल रहे हैं, जिन्हें आशा भरी दृष्टि से देखा और संतोषजनक कहा जा सके।
इस आवश्यकता की पूर्ति युग सृजेताओं को करनी पड़ेगी। आशा की गई है कि वे शान्तिकुञ्ज परिवार से निकलेंगे और अपने महान व्यक्तित्व और कर्तृत्व से समूचे वातावरण में नव जीवन का संचार करेंगे। ऐसे श्रेयाधिकारियों को अभ्युदय की दिशा में दो कदम अनिवार्य रूप से उठाने पड़ेंगे; एक निजी आवश्यकताओं और महत्वाकाँक्षाओं को घटाना, इसे संयम कह सकते हैं, दूसरा विद्या-विस्तार के लिए तड़पन भरा पुरुषार्थ उभारना, इसे सेवा-साधना कह सकते हैं।
प्रथम चरण में औसत नागरिक के निर्वाह की कसौटी पर स्वयं को खरा सिद्ध करना होगा। यहाँ अधिक उत्पादन पर रोक नहीं है; पर निजी खर्चों में इतनी अधिक कटौती करनी चाहिए कि उसे तपस्वी जीवन न सही, सादा जीवन उच्च-विचार स्तर का तो समझा ही जा सके।
इतना पहला कदम उठा लेगा वह अनुभव करेगा कि उसके पास जो समय, श्रम, कौशल, मनोयोग ही नहीं, साधनों का भी इतना बाहुल्य है कि समय की महती पुकार को पूरा करने के लिए युग देवता के चरणों पर श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत करते हुए असंख्यों के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सके।
इस संदर्भ में न तो उच्च शिक्षा की आवश्यकता है और न विपुल संपन्नता की। उस चतुरता की भी आवश्यकता नहीं है जो लंबे चौड़े भाषण देकर लोगों को बहका तो लेती है, पर निजी व्यक्तित्व खोखला होने के कारण प्रभाव छोड़ने की दृष्टि से शून्य ही रहता है। इन दिनों उपदेशकों-वक्ताओं की हर क्षेत्र में एक प्रकार की आँधी जैसी आई हुई है। ऊँची कुर्सी पर बैठने, गले में माला पहनने और माइक को झकझोर कर रख देने के लिए हर कोई प्यासा फिरता है। एक को प्रमुखता मिलने पर उसके अन्य साथी मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं।
निजी सुविधाओं में कटौती के प्रति जो लोग श्रद्धा सँजो लेंगे, उन्हें सच्चे अर्थों में संयमी, तपस्वी, बैरागी कहा जा सकेगा, भले ही वे घर परिवार के बीच मिल-जुलकर सज्जनोचित जीवन निर्वाह करते हों। उनके लिए यह नितांत सरल होगा कि अपना आदर्श उपस्थित करते हुए अनेकों को अपेक्षाकृत ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का प्रोत्साहन दे सकें। युग अध्यापकों की इन दिनों जो भारी पुकार है, वे इसी वर्ग में से निकलेंगे, जिन्होंने अध्यात्म दर्शन को इन आधारभूत सिद्धांतों को किसी सीमा तक अपना लिया होगा, जो आदर्श पालन की दृष्टि से दूसरों की अपेक्षा अपना स्तर कुछ ऊँचा उठा सके होंगे।
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
शिक्षा ही नहीं विद्या भी