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सुधारवादी तत्त्वों की स्थिति और भी उपहासास्पद है। धर्म, अध्यात्म, समाज एवं राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार एवं उत्थान के नारे जोर-शोर से लगाए जाते है। पर उन क्षेत्रों में जो हो रहा है, जो लोग कर रहे हैं, उसमें कथनी और करनी के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर देखा जा सकता है। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य की आशा धूमिल ही होती चली जा रही है। । क्या हम सब ऐसे ही समय की प्रतीक्षा में, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें ? अपने को असहाय, असमर्थ अनुभव करते रहें और स्थिति बदलने के लिए किसी दूसरे पर आशा लगाए बैठे रहें। मानवी पुरुषार्थ कहता है, ऐसा नहीं होना चाहिए।
हारिए न हिम्मत
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्या