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    जब हमारे सामने अनेक समस्याएँ, विभिन्न प्रकार के विचार होते हैं, तब यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि इनमें कौन हितकारी है और कौन हित के विपरीत, कौन सही है और कौन गलत है । ऐसी अवस्था में विवेक ही
    हमारा मार्ग दर्शन कर सकता है। जिसमें विवेक की कमी होती है, वे नाजुक क्षणों में अपना सही मार्ग निश्चित नहीं कर पाते और गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं, जिसके कारण उन्हें पतन और असफलता के गर्त में गिरकर लांछित और अपमानित होना पड़ता है। जिनमें विवेक शक्ति का प्राधान्य होता है वे दूरदर्शी होते हैं और इसीलिए उपयुक्त मार्ग को अपनाते हैं । यही शक्ति साधारण व्यक्ति को नेता, महात्मा और युग पुरुष बनाती है।

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    मनुष्य जीवन को सफल बनाने और निर्वाह करने के लिए अनेक प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक बल, बुद्धि-बल, अर्थ-बल, समुदाय बल आदि अनेक साधनों से मिलकर मानव-जीवन की समस्याओं का समाधान हो पाता है। इन्हीं बलों के द्वारा शासन, उत्पादन और निर्माण कार्य होता है और सब प्रकार की सम्पत्तियाँ और सुविधायें प्राप्त होती हैं । विवेक द्वारा इन सब बलों का उचित रीति से संचालन होता है, जिससे ये हमारे लिए हितकारी सिद्ध हों । विवेक बल आत्मा से संबंधित है, आध्यात्मिक आवश्यकता, इच्छा और प्रेरणा के अनुसार विवेक जागृत होता है । उचित अनुचित का भेदभाव यह विवेक ही करता है ।

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    विवेक को ही कल्याण कारक समझकर हर बात पर स्वतंत्र रूप से विचार करे । अन्धानुकरण कभी, किसी दशा में न करे । कोई प्रथा, मान्यता या विचारधारा समय से पिछड़ गई हो तो परम्परा के मोह से उसका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिए । वर्तमान स्थिति का ध्यान रखते हुए प्रथाओं में परिवर्तन अवश्य करना चाहिए । आज हमारे समाज में ऐसी अगणित प्रथायें हैं जिनको बदलने की बड़ी आवश्यकता है ।
    विवेक हमें हंस की तरह नीर-क्षीर को अलग करने की शिक्षा देता है । जहाँ बुराई और भलाई मिल रही हो, वहाँ बुराई को पृथक करके अच्छाई को ही ग्रहण करना चाहिए । बुरे व्यक्तियों की भी अच्छाई का आदर करना चाहिए और अच्छों की भी बुराई को छोड़ देना चाहिए ।

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    ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
    -ईशावास्यो०- १’

    ‘संसार में जितना भी कुछ है, वह सब ईश्वर से ओत-प्रोत है।’

    पिछले अध्यायों में आत्मस्वरूप और उसके आवरणों से जिज्ञासुओं को परिचित कराने का प्रयत्न किया गया है । इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा का संबंध बताने का प्रयत्न किया जाएगा।अब तक जिज्ञासु ‘अहम्’ का जो रूप समझ सके हैं, वास्तव में वह उससे कहीं अधिक है। विश्वव्यापी आत्मा परमात्मा, महत्तत्त्व,परमेश्वर का ही वह अंश है। तत्त्वतः उसमें कोई भिन्नता नहीं है।