प्राचीनकाल में यज्ञ भगवान की वेदानुमोदित उपासना करने वाले सभी अग्निहोत्री अपने यहाँ अखण्ड अग्नि की स्थापना रखते थे। जिस प्रकार मंदिरों में भगवान की मूर्ति स्थापित करके समय-समय पर उसकी पूजा-अर्चा को क्रियाएँ की जाती हैं और प्राण प्रतिष्ठा के उपरांत उस मूर्ति को मंदिर में ही स्थापित रखा जाता है, उसी प्रकार यज्ञ-उपासकों लिए यज्ञशालारूपी मंदिर में अग्निरूपी देवप्रतिमा को निरंतर स्थापित रखने और देवार्चना की भाँति प्रातः सायं अग्निहोत्र द्वारा पूजा करने का विधान होता था। अग्निहोत्रियों के यहां पीढ़ी दर पीढ़ी यह अखण्ड अग्नि सुरक्षित रखी जाती थी। उसे बुझने न देने के लिए अग्निहोत्री परिवार के सभी लोग पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। ये अग्नियाँ जिसके यहाँ जितनी पुरानी होती थीं, वह अपने को उतना ही साधना का धनी समझता था और अपनी निष्ठा के अनुरूप प्रतिष्ठा प्राप्त करता था।
जिस प्रकार माता-पिता परिवार में अन्य कार्य करते हुए भी अपने नन्हे शिशु का सदा ध्यान रखते हैं और उसे सभी अनिष्टों से बचाते हुए पाल-पोसकर युवा बनाते हैं, उसी प्रकार अग्निहोत्री भी अपनी यज्ञाग्नि को सुरक्षा पर निरंतर ध्यान रखकर एक प्रकार से प्रभु चिंतन करने बाले योगी या मंदिर में पूजा करने वाले सच्चे पुजारी की भाँति अपने मनः क्षेत्र में यज्ञ भगवान की प्रतिष्ठा किए रहता है। निरंतर नियमित रूप से उपासना की हुई अग्नि की सूक्ष्म आध्यात्मिक विशेषता दिन-दिन उसी प्रकार बढ़ती रहती है, जैसे पौष्टिक पदार्थों का सेवन करती हुई कलिका दिन-दिन विकसित होती हुई बलवती परिपुष्ट युवती बनती जाती है उसी प्रकार यज्ञकुंड में विराजमान अग्नि भी प्रतिदिन घी, मेवा, मिष्टान्न, हविष्यान्न तथा नाना प्रकार की गुणवान औषधियाँ खा- खाकर प्रचंड शक्तिसंपन्न भवानी का साक्षात् आकार ही बन जाती है। उसकी प्रभा से अनेक अनिष्ट, रोग नष्ट होते हैं।
जिस प्रकार सोने, चाँदी, हीरा, मोती आदि की भस्म अनेक रोगों को दूर करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार यज्ञभस्म भी किसी बढ़िया से बढ़िया औषधि को अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण सिद्ध नहीं होती। इसके उपयोग से जहाँ अनेक शारीरिक रोग दूर होते हैं, वहाँ उन्माद, मंद बुद्धि, उत्तेजना, आवेश, कुबुद्धि आदि मानसिक रोगों का निवारण होता है। अनेक रोगों में भी ‘यज्ञभस्म’ बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है। मस्तक पर यज्ञभस्म का तिलक लगाने से आज्ञाचक्र, सहस्रकमल, ब्रह्मरंध्र, सुषुम्णा संस्थान आदि अनेक सूक्ष्म आध्यात्मिक केंद्रों का विकास होता है। हृदय पर यज्ञभस्म को लगाने से सूर्यचक्र जाग्रत होता है और अंतःकरण चतुष्टय में से तामस तत्त्व घटते एवं सात्त्विक तत्त्व बढ़ते स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। लाठी चलाने वाले लोग अपनी लाठी को तेल में डुबो डुबोकर मजबूत बनाते हैं। कहते हैं कि जो लाठी जितना तेल पी जाती है, वह उतनी ही मजबूत हो जाती है। घी-दूध में काम आने वाले मिट्टी के बरतन जितनी चिकनाई पी जाते हैं, उतने ही उपयोगी बन जाते हैं। यज्ञ की अग्नि भी जितना घी पी लेती है, उतनी ही बलवान बन जाती है। इसलिए यह विधान मिलता है कि किसी को अग्निहोत्र करना हो तो उसे किसी के यहाँ से चिर उपस्थित अग्नि लाकर उसे अपना हवन करना चाहिए।
नन्हे बालक और अधेड़ आयु के पुरुष में जो अंतर होता है, वही अंतर तुरंत उत्पन्न की गई और चिरसेवित अग्नि में भी रहता है। बालक को दिया हुआ दान उतना फलप्रद नहीं होता, जितना वयोवृद्ध को क्योंकि बच्चे की अपेक्षा वयोवृद्ध मनुष्य निश्चय ही दान के सदुपयोग की जिम्मेदारी को अधिक अच्छी तरह समझता है। वह उस दानदाता का अधिक उपकार करने में समर्थ होता है। यही कारण है कि नित्य का साधारण अग्निहोत्र ही नित्य प्रज्वलित की हुई अग्नि में कर लिया जाता है, पर किन्हीं महान आयोजनों के लिए चिरसेवित अखण्ड अग्नि की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी अग्नि के मुख में दी हुई आहुति साधारण अग्नि की अपेक्षा अधिक सत्परिणाम उपस्थित करने में समर्थ होती है।
अब लोग आलस्य और अश्रद्धा के कारण अखण्ड अग्नि का महत्त्व भूल गए हैं और फास्फोरस, गंधक आदि दुर्गंधित अशुद्ध पदार्थों से बनी हुई दीयासलाई से जलाई हुई अग्नि से हवन कर लेते हैं। प्राचीनकाल में यज्ञप्रेमी लोग अरणिमंधन, सूर्यकांत मणि आदि के द्वारा अग्नि प्रज्वलित करते थे। अखण्ड अग्नि की उपासना सनातन धर्म के अनुसार तो आवश्यक है ही, आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती भी उसकी उपयोगिता को मानते थे। उन्होंने प्रेरणा देकर शाहपुर नरेश से अखण्ड अग्नि स्थापित कराई थी। जो अब तक विधिवत् संपूजित हो रही है।
अग्नि की भाँति अखण्ड दीपक की भी महानता असाधारण है। शुद्ध घी से अखण्ड दीपक जलता रखने से एक प्रकार का घृत-हवन निरंतर अपने आप होता रहता है। ऐसा दीपक जिस स्थान पर प्रकाश करता है, वह स्थान एक नित्य प्रकाशज्योति से प्रदीप्त रहता है। उसके निकट बैठकर की हुई उपासना विशेष फलवती होती है। यों तो सामान्य अनुष्ठानों के समय भी घृत का दीपक जलता रखा जाता है, पर विशेष अनुष्ठानों में तो उसे अखण्ड रखने की ही प्रतिष्ठा है। यह भी एक प्रकार से अखण्ड अग्नि की स्थापना ही नहीं, वरन उससे भी कुछ अधिक है, क्योंकि अखण्ड अग्नि तो केवल हवन के समय ही प्रज्वलित की जाती है, पर दीपक तो निरंतर प्रकाशवान रहकर उस वातावरण में दिव्यप्रकाश को भरता रहता है। अग्नि में दो ही बार हवन होता है, पर दीपक में अहर्निश हवन होता रहता है। अखण्डता में झंझट, खरच और देख भाल, साज-सँभाल कम है। दीपक को अखण्ड रखने से ये सभी बातें अधिक करनी पड़ती हैं, साथ ही उसी झंझट एवं खरच के अनुपात से उसका महत्त्व भी अधिक के है। शांतिकुंज में ८४ वर्ष पूर्ण कर चुका अखण्ड दीपक है, जिसके समक्ष करोड़ों गायत्री अनुष्ठान हो चुके हैं।
जन्म सूतक के समय आने वाली अनिष्टकर आशंकाओं की निवृत्ति एवं सुरक्षा प्रसूतिगृह में १० दिन अखण्ड अग्नि रखने से हो जाती है, पर किसी की मृत्यु हो जाने पर उस मृत्युस्थल पर अखण्ड दीपक ही जलाना पड़ता है; क्योंकि मृत्यु के समय उस मृतशरीर में से निकले हुए शारीरिक रोग कीटाणु तथा मानसिक वेदना, पीड़ा, छटपटाहट, करुणा, मोह, शोक आदि के प्रभाव को नष्ट करने में अखण्ड दीपक की विशेष शक्ति को ही आवश्यकता पड़ती है। उसके बिना वह मृत सूतक का स्थान शुद्ध नहीं हो पाता। ऐसी अशुद्धि वाले घरों में प्राय: भूतबाधा, दुःस्वप्न, मृगी, उन्माद, अपस्मार आदि रोग बने रहते हैं और उस घर में रहने वालों को शारीरिक एवं मानसिक उद्वेग अनुभव होते रहते हैं। पितृ शांति कर्मों में भी दीपक अनिवार्य होता है। यश, कीर्ति, अनुष्ठान, ब्रह्मभोज पाठशाला आदि में दीपक की आवश्यकता होती है। गंगा आदि नदियों के तट पर लोग दीपक जलाते हैं। दीवाली तो दोपकों का त्योहार है। व्यापक रूप से अखण्ड दीप का त्योहार मनाकर हम दरिद्रता की व्यापक शक्ति को घटाने एवं लक्ष्मी शक्ति का बल बढ़ाने का पुनीत आयोजन करते हैं। यह उद्देश्य मोमबत्ती या बिजली जलाकर प्रदान नहीं कर सकते।
अखण्ड अग्नि और अखण्ड दीपक के लाभ अपरिमित है, उन्हें कोई भी व्यक्ति अनुभव कर सकता है। गायत्री तपोभूमि जिस दिन से स्थापित हुई है, उसी दिन से अखण्ड अग्नि वहाँ रहती है और अभी प्रदीप्त है, इसी तरह परमपूज्य गुरुदेव का अखण्ड दीपक, अखण्ड जप निरंतर प्रकाशित है। लाखों को इसने प्रकाश-प्रेरणा प्रदान की है। ये दोनों ही स्थान शक्तिपीठ बन गए हैं।
अखण्ड ज्योति, जून 2010