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उदारताऔर दूरदर्शिता भाग २

by Akhand Jyoti Magazine

विचारों में भी उदारता रखिए

उदारता का संबंध केवल भौतिक पदार्थों तक ही सीमित नहीं है वरन् विचारों की उदारता का उससे कहीं अधिक है । संकीर्ण विचारों का मनुष्य यदि उदारता का व्यवहार करेगा भी तो उसके द्वारा बहुत थोड़े व्यक्ति लाभ उठा सकते हैं । ऐसा व्यक्ति परिवार, जाति, धर्म, देश आदि अनेकों सीमाओं से घिरा रहता है, जिनके कारण उसकी उदारता का स्त्रोत थोड़ी दूर जाकर सूख जाता है ।

अनेक व्यक्तियों की उदारता तो अपने परिवार के लोगों या रिश्तेदारों तक ही सीमित रहती है । वे अपने पास और दूर के असहाय सम्बन्धियों, उनके बाल – बच्चों की सहायता करना अपने लिए आवश्यक समझते हैं । इसका एक कारण यह भी होता है कि अगर उनके समर्थशाली होते हुए उनके सम्बन्धी बहुत बुरी हालत में फिरते नजर आवें, जगह-जगह सहायता को हाथ फैलाते रहें अथवा किसी प्रकार के खोटे काम करके जीवन निर्वाह करें तो इसमें उनका भी अपयश होता है । अन्य लोग चाहे जब उनको ताना दे बैठते हैं कि ‘तुम्हारे रिश्तेदार तो गली-गली मारे – मारे फिरते हैं और तुम यहाँ लाटसाहबी दिखाते हो ।’ पीठ पीछ तो ऐसे व्यक्तियों की आमतौर पर निन्दा होती ही है । इसलिए ऐसे लोगों की उदारता बहुत कुछ अपने स्वार्थ के कारण ही होती है और उसका समाज पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

कुछ लोग अपनी जाति वालों की सहायता करना ही श्रेष्ठ कर्म समझते हैं । कुछ समय पहले यह मनोवृत्ति विशेष रूप से उत्पन्न हुई थी और इसके फलस्वरूप अग्रवाल, खण्डेलवाल, बाहरसेनी, कान्यकुब्ज, सरयूपारीण, गौड़, सनाढ्य, खत्री, क्षत्री, राजपूत, कायस्थ, कुरमी, तेली, जायसवाल, भुर्जी वैश्य, कुशवाहा, जाटव आदि सैकडों जातियों की तरफ से पृथक-पृथक शिक्षा संस्थाओं, मन्दिरों, पुस्तकालयों, धर्मशालाओं आदि की स्थापना की गई थी । यह प्रवृत्ति साधारण दृष्टि से बुरी नहीं कही जा सकती, क्योंकि एक – एक समुदाय की उन्नति होने से उसका प्रभाव समस्त समाज पर पड़ता ही है। पर जो लोग उदारता की सीमा अपनी जाति तक ही मान लेते हैं उनका दृष्टिकोण प्रायः सीमित ही बना रहता है और राष्ट्रीय विकास के कार्यों में वे कभी समुचित भाग नहीं ले पाते । अनेक व्यक्ति तो ऐसे कार्य केवल किसी अन्य जाति की प्रतियोगिता के भाव से ही करते हैं और जब वैसी कोई परिस्थिति नहीं होती तो उनकी उद्योगशीलता का भी अन्त हो जाता है ।

धार्मिक अनुदारता के दुष्परिणाम

यद्यपि धर्म का मुख्य गुण मनुष्य में उदारता और परोपकार की भावना को उत्पन्न करना ही माना गया है और हमारे धर्म में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का सिद्धान्त समस्त शुभ कर्मों का सार तत्व बतलाया गया है, तो भी संसार की गति इस दृष्टि से उल्टी ही प्रतीत होती है। पिछले कई हजार वर्षों के इतिहास में धर्म के नाम पर जितने लड़ाई-झगड़े और रक्त रंजित युद्ध हुए, करोड़ों मनुष्यों पर अमानुषिक अत्याचार किये गये हैं, उसकी कल्पना करने से भी हृदय काँप जाता है। भारतवर्ष में वैदिक और बौद्ध धर्म वालों, पौराणिक लोगों और जैन धर्म वालों, शैवों और वैष्णवों के लड़ाई-झगड़े सैकड़ों वर्ष तक चलते रहे हैं। उनमें लाखों ही व्यक्ति मारे गये और इससे कहीं अधिक संख्या में मनुष्यों को दुर्दशाग्रस्त होकर मारा-मारा फिरना पड़ा । अब से साठ-सत्तर वर्ष पहले भी सनातन धर्मियों और आर्य समाजियों में काफी कलह और मारपीट के दृश्य देखे गये थे । जब एक ही धर्म और देश के व्यक्तियों में थोड़े से सिद्धान्तों के अन्तर के कारण इस प्रकार के पाशविकता के भाव उत्पन्न हो सकते हैं तब विदेशी और सर्वथा भिन्न मजहब वालों के सम्बन्ध में जो कुछ न हो जाय सो थोड़ा है । मुसलमान और हिन्दुओं की प्राचीनकाल से आक्रमणकारी युद्धों की बात तो छोड़ दीजिए, अभी पिछले कुछ वर्षों में हिन्दू-मुसलमानों में जैसे भयंकर उपद्रव और पारस्परिक निन्दा, घृणा और द्वेष की घटनायें हो चुकी हैं, वे ‘धर्म’ के नाम पर किये जाने वाले पाप कर्मों के ज्वलंत उदाहरण हैं। उनसे स्पष्ट प्रकट होता है कि धार्मिक उदारता के अभाव से भले और श्रेष्ठ समझे जाने वाले मनुष्य भी अपनी मनुष्यता को खोकर किस प्रकार हिंसक वन्य जन्तुओं के सदृश्य कार्य करने लगते हैं।

हम स्वीकार करते हैं कि भारतवर्ष धर्म प्रधान देश है किन्तु हमारा यह कथन कि भारतवर्ष में दूसरे देशों की अपेक्षा सदा ही धर्म पर अधिक जोर दिया गया है, विदेशियों को एक दम्भपूर्ण उक्ति सी प्रतीत हो सकती है । हम मानते हैं कि दूसरे देशों में किसी कारण से धर्म पर उतना जोर आज नहीं दिया जाता जितना कि भारतवर्ष में दिया जा रहा है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि अन्य देशों की प्रजा भारतवर्ष से कम धार्मिक है। सच तो यह है कि आज भी ईसाई देश में जो ‘मिशनरी स्पिरिट’ पाई जाती है वह अन्य देशों या धर्मावलम्बियों में नहीं पाई जाती । इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि यूरोप में एक ऐसा युग था जब कि सहसत्रों लोगों ने अग्नि में जीते जी जलाया जाना प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया किन्तु कैथलिक से प्रोटेस्टेंट या प्रोटेस्टेंट से कैथलिक होना स्वीकार नहीं किया । यद्यपि इन प्राण त्यागी महापुरुषों के सामने स्वधर्म को छोड़कर परधर्म स्वीकार करने का सवाल था किन्तु इनके स्वधर्म और परधर्म में वैसा महदन्तर नहीं था जैसा कि उन धर्मों के बीच में पाया जाता है जिनका कि जन्म भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, देशकाल या कारणों से होता है । इनमें वैसा ही अन्तर जैसा कि शैवों और वैश्णवों में, या शिया और सुन्नियों में है । इतिहास से प्रकट है कि रोमन कैथलिक या प्रोटेस्टेंटों ने एक ही धर्म के अनुयायी होते हुए भी अपने-अपने मत के लिए उत्साहपूर्वक प्राण त्याग कर जो धर्म-परायणता प्रकट की वह अन्य देशों में सामूहिक रूप में शायद ही कभी देखने में आई हो । अतएव यह कहना कि भारतवासी अन्य देशवासियों से अधिक धर्म प्राण हैं एक गर्वोक्ति सी प्रतीत होती है । ऐसी गर्वोक्तियाँ ही साम्प्रदायिक वैमनस्य और अन्तर्राष्ट्रीय मनोमालिन्य पैदा करती हैं ।

प्रत्येक देश या धर्म का व्यक्ति अपने देश या धर्म की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने के लिए स्वतंत्र है, पर जिस वक्त वह अपने देश-प्रेम या धर्म-प्रेम से उन्मत्त होकर अपने देश या धर्म को दूसरे देश या धर्म से अपेक्षाकृत श्रेष्ठ कहने में गर्व का अनुभव करने लगता है, वहीं वह दूसरों को मानो चुनौती देता है और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिद्वन्दिताओं, युद्ध या साम्प्रदायिक संघर्ष का बीज बोता है । अपने देश, धर्म, जाति या कुल को दूसरों से मिलान कर अपेक्षाकृत श्रेष्ठ बताने की मदोन्मत्त भावना में ही अनेकों बुराइयों की जड़ छुपी हुई । हमें अपने देश, धर्म, गुरु और माता-पिता को श्रेष्ठ समझ कर उनमें अपूर्व श्रद्धा रखनी चाहिए किन्तु हमारा यह दावा करना कि हमारे माता-पिता ही दुनियाँ के सब लोगों से श्रेष्ठ हैं और हमारा हिन्दू धर्म सभी धर्मों से अच्छा है क्या हमारा अन्य लोगों के साथ संघर्ष नहीं करावेगा ?  हमारी तो ऐसी कुछ आदत पड़ी है कि जब तक हम किसी चीज को सबसे अच्छी न कह सकें अथवा जब तक हम अपनी ही वस्तु को सबसे अच्छी न कह लें तब तक हमारा जी नहीं भरता और न उस वस्तु के प्रति हमारे हृदय में पूर्ण श्रद्धा ही उत्पन्न होती है । शायद इसी कारण उस धर्म के प्रति जिसे कि हम सबसे अच्छा नहीं समझते अथवा जिसे एक दम अपने धर्म से अपेक्षाकृत हीन समझते हैं समुचित श्रद्धा नहीं रखना चाहते और न उसके प्रति दूसरों की पूर्ण श्रद्धा को ही सहन कर सकते हैं । शायद इसी कारण हम दूसरों को यवन या मलेच्छ कहते हैं ।

हमारा आशय यह नहीं है कि हमारे भाई अपने धर्म में हार्दिक श्रद्धा न रखें या पूर्ण उत्साह के साथ उसका गुणगान न करें या उसका प्रचार करने में किसी प्रकार की शिथिलता दिखलावें । पर ये सब काम हम दूसरे धर्म वालों को हीन समझे और उनकी निन्दा किए बिना भी कर सकते हैं । इतना ही नहीं हमारा तो विश्वास है कि जो व्यक्ति धर्म के वास्तविक मर्म को समझता होगा वह संसार के किसी भी छोटे या बड़े धर्म अथवा मजहब की बुराई न करेगा। इस संबंध में एक अन्य देशीय धर्म-ग्रन्थ में एक बड़ा अच्छा दृष्टांत दिया गया है-

अरब जाति के प्रसिद्ध धर्म गुरु हजरत इब्राहीम का यह नियम था कि बिना किसी अतिथि को भोजन कराये स्वयं भोजन न करते थे । एक दिन वर्षा ऋतु में वर्षा की झड़ी की अधिकता से एक भी अतिथि उनके घर नहीं आया और वे सारे दिन भूखे रहे । अंत में संध्या के समय अतिथि को खोजकर लाने के लिए अपने नौकरों को जगह-जगह भेजा और स्वयं भी इधर-उधर घूमने लगे। उन्होंने देखा कि सामने एक अत्यंत वृद्ध पुरुष जिसकी दाढ़ी-मूँछ के बाल बिल्कुल सफेद थे वृष्टि के कारण काँपता हुआ खड़ा है । वे उसके पास जाकर कहने लगे-‘महाशय ! आप कृपा करके आज मेरे घर आतिथ्य ग्रहण करें ।’ वृद्ध प्रसन्नतापूर्वक उनका निमंत्रण स्वीकार कर उनके घर गया । नौकरों ने बड़े आदर से उसे बैठने को आसन दिया । जब वह हाथ-पाँव धोकर आसन पर बैठा तब वे उसके आगे भोजन सामग्री परोसने लगे । हजरत इब्राहीम भी उसके सामने आ खड़े हुए। जब सब सामग्री परोसी जा चुकी तो वह वृद्ध भोजन करने लगा। उसे ईश्वर को बिना धन्यवाद दिये, बिना ईश्वर का नाम स्मरण किए भोजन करते देखकर इब्राहीम को बहुत बुरा लगा और वे कहने लगे- ‘तुम्हारा यह कैसा आचरण है। जिनकी कृपा से तुमको यह मधुर अन्न खाने को मिल रहा है उन्हें बिना धन्यवाद दिये ही तुम खाने लगे । तुम में वृद्ध सी समझ नहीं दीख पड़ती ।

इसके उत्तर में वृद्ध ने कहा- ‘मैं प्राचीन मूर्ति पूजक सम्प्रदाय का हूँ ।’ उसका ऐसा उत्तर सुन कर इब्राहीम का क्रोध भड़क उठा और उन्होंने वृद्ध को घर से निकाल दिया । तब इब्राहीम के हृदय में देववाणी हुई कि ‘हे इब्राहीम ! मैंने जिसको यत्न पूर्वक अन्न देकर इतनी बड़ी उम्र तक बचा रखा, उसे तुम घड़ी भर भी अपने यहाँ न ठहरा सके और तुमने उसके साथ इतनी घृणा की । वह मूर्तिपूजक था या नास्तिक था, पर तुमने अपने दान के नियम को क्यों भंग किया ?’

इस दृष्टांत से मालूम होता है कि धार्मिक अनुदारता कितनी हानिकारक बात है, जो एक महापुरुष कहे जाने वाले को भी मति-भ्रम में डाल देती है । अगर हम अपने संप्रदाय अथवा मजहब के अनुयायी के साथ ही मनुष्योचित व्यवहार कर सकते हैं और उससे बाहर के सब लोगों को नीच या पापी मान कर घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उनके साथ उदारता का व्यवहार करना आवश्यक नहीं समझते, तो वास्तव में अभी हम धार्मिकता या आध्यात्मिकता से बहुत दूर हैं। हम यह नहीं कहते कि आप ईसाई, यहूदी, मुसलमानी, पारसी, बौद्ध आदि अन्य धर्मों को सत्य मानिए या अपने धर्म के बराबर का भी समझिये । हिन्दू धर्म को आध्यात्मिकता की दृष्टि से बहुत से लोगों ने अन्य धर्मों से बढ़ा-चढ़ा स्वीकार किया है । पर यदि हम इस आधार पर दूसरे लोगों को अधर्मी या पापी कहते हैं तो हम भी एक बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं । भिन्न-भिन्न धर्म अलग-अलग देशों के निवासियों की स्थिति और आवश्यकता के अनुसार रचे गये हैं। सब लोग एकदम धर्म के सब से बड़े दर्जे के नियमों का पालन नहीं कर सकते । जिन लोगों के आध्यात्मिक संस्कार अभी अधिक परिष्कृत नहीं हुए हैं उनको उनकी योग्यतानुसार ही धार्मिक नियमों का पालन करना बताया जाता है, पर इस कारण उनको अपने से प्रथक समझना और उदारता के व्यवहार के अयोग्य मानना कभी उचित नहीं कहा जा सकता ।

व्यवहार में उदारता

उदारता का सबसे अधिक काम व्यवहार में पड़ता है । हमको प्रतिदिन जान, अनजान, मित्र, शत्रु, उदासीन,  अमीर, गरीब, समान स्थिति वाले, अफसर, नौकर आदि के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता पड़ती है। आजकल के बहुसंख्यक चतुर या दुनियादार लोगों का तो यह तरीका होता है कि जो अपने से बड़ा या शक्तिशाली है उसके साथ बड़ी शिष्टता, सभ्यता और उदारता का भाव प्रकट करेंगे और छोटे, निर्बल, अशिक्षित व्यक्तियों के साथ कठोरता, रौब-दाव और संकीर्णता का व्यवहार करेंगे । यह बहुत स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण है । इसमें उच्चता का कोई चिन्ह नहीं । जो आप से शक्तिशाली या ऊँचे दर्जे के हैं उनके प्रति उदारता का कार्य एक प्रकार का प्रदर्शन मात्र ही है । इसका एक मात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि वे आप पर प्रसन्न बने रहें और आवश्यकता पड़ने पर किसी प्रकार की सुविधा प्रदान कर सकें । उदारता की वास्तविक पहचान तो छोटे,आश्रित और असमर्थ लोगों के प्रति किये गये व्यवहार में ही होती है । अगर उनसे आप मनुष्यता का, सहृदयता का, शिष्टता का व्यवहार करते हैं तो आप निस्संदेह उदार माने जायेंगे । महान पुरुष वे ही होते हैं जो आवश्यकता पड़ने पर छोटे-छोटे व्यक्ति के साथ सदयता का व्यवहार करने में संकोच नहीं करते ।

स्वर्गीय महादेव गोविन्द रानाडे अपने समय के एक प्रसिद्ध महापुरुष थे, आपने बम्बई प्रान्त में समाज सुधार के लिए बड़ा कमा किया था और अनेक दुर्दशाग्रस्त व्यक्तियों को सहायता देकर उद्वार किया था । वे हाईकोर्ट के जज थे और समाज में एक बड़े नेता की दृष्टि से देखे जाते थे । एक दिन तेज गर्मी के दिनों में वे सायंकाल के समय गाड़ी में बैठकर हवाखोरी को जा रहे थे। रास्ते के किनारे उन्होंने एक बहुत गरीब बुढ़िया को बैठे देखा, जो एक लकड़ी का बोझा उठा कर सर पर रखना चाहती थी, पर उतनी शक्ति न होने के कारण निरुपाय खड़ी थी । उसने कितने ही रास्ता चलने वालों से प्रार्थना की कि वे उस बोझ को उठाने में हाथ लगा दें, पर कोई उसकी दीन दशा पर ध्यान न दे रहा था। उस पर दृष्टि पड़ते ही रानाडे उसकी परिस्थिति को समझ गये। उन्होंने गाड़ी रुकवाई और उतर कर बुढ़िया के पास पहुँचे बुढ़िया किसी बड़े सरकारी अफसर जैसे व्यक्ति को अपने सामने खड़ा देखकर डर गई, पर रानाडे ने सान्त्वना देकर उसके लकड़ी के गट्ठे को स्वयं अपने हाथों से उठाकर उसके सर पर रख दिया । बुढ़िया आशीष देती हुई अपने घर चली गयी ।

एक ऐसी ही घटना बंगाल के बहुत बड़े जमींदार कासिम बाजार के महाराज मणीन्द्रचन्द्र नन्दी के विषय में कही जाती है । एक दिन कलकत्ता जाने वाली गाड़ी जब गुस्करा स्टेशन पर ठहरी तो उसमें से अनेक यात्री उतरे । एक वृद्धा भी वहाँ उतर पड़ी । उसके पास एक गट्ठा था जो वजन में भारी था । उसने उसे बाहर लाने की बहुत कोशिश की पर न ला सकी। इधर गाड़ी चलने का समय हो गया और झुण्ड के झुण्ड यात्री गाड़ी में चढ़ने लगे । यह देखकर बुढ़िया बड़ी घबड़ाई और अनेक यात्रियों से अपना गट्ठर बाहर निकाल देने की विनती करने लगी । पर उस भीड़-भाड़ और जल्दबाजी में किसी ने उसकी ओर ध्यान न दिया । सब अपने-अपने काम में व्यस्त थे और बार-बार कहने पर भी कोई बुढ़िया की बात नहीं सुन रहा था । हताश होकर बुढ़िया रोने लगी, पर वहाँ एक भी व्यक्ति ऐसा न निकला जो उस पर दया दिखाता । संयोगवश उसके रोने-कलपने की आवाज दूर से महाराज मणीन्द्र चन्द्र ने सुनी, जो उसी ट्रेन से फर्स्ट क्लास में बैठे कलकत्ता जा रहे थे । वे अपनी गाड़ी से उतर कर दौड़ कर तीसरे दर्जे की गाड़ी आये जहाँ वह बुढ़िया थी और जल्दी से उसका गट्ठर उतार कर उसके सिर पर रख दिया । उस समय गाड़ी छूटने ही वाली थी, गाड़ी छूटने की घण्टी पहले ही बज चुकी थी, बुढ़िया के कृतज्ञता प्रकट करने के पहिले ही वे दौड़कर फिर अपने फर्स्ट क्लास के डिब्बे में जा बैठे। बुढ़िया आँखों से कृतज्ञता के आँसू बहाती और महाराज को अनेक आशीर्वाद देती हुई चली गई ।

यद्यपि ये बहुत छोटी घटनायें हैं, पर इनसे हमको उदारता के व्यवहार की शिक्षा मिलती है । किसी आपत्ति ग्रस्त दीन व्यक्ति की सहायता कर देने से बड़े आदमी की कोई हानि नहीं होती, पर इससे समाज के व्यक्तियों को परस्पर में सद्व्यवहार और उदारता का बर्ताव करने की प्रेरणा मिलती है । ऐसी भावना का प्रसार होने से मनुष्यों की अध्यात्मिक और मानसिक शक्तियाँ उन्नत होती हैं और वे परस्पर में मनुष्यता का व्यवहार करके प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं ।

आश्रितों के प्रति उदारता

जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं कि अपने से बड़े और समान स्थिति वालों के साथ तो लोग प्रायः सज्जनता का, उदारता का व्यवहार करना आवश्यक समझते हैं, पर छोटे लोगों के साथ, अपने नौकरों और सेवकों के साथ वे सज्जनता का व्यवहार करना ठीक नहीं समझते । अनेक लोगों का तो यह खयाल होता है नौकरों के साथ ऐसा नरमी का या सौजन्य पूर्ण व्यवहार करने से वे स्वेच्छाचारी और निरंकुश हो जाते हैं । जिन व्यक्तियों को हमने रुपया देकर अपने आराम के लिए नौकर रखा है, उनके साथ सौजन्य की क्या आवश्यकता ? अगर वे अपना काम ठीक ढंग से और मेहनत से न करेगे अथवा आज्ञापालन में ढील-ढाल दिखलायेंगे तो अवश्य उनको दण्ड दिया जायगा । हमने बहुत से लोगों को देखा है कि नौकरों से जब कभी बात करेंगे तो त्यौरी चढ़ाकर और कड़े शब्दों में ही बोलेंगे । वे लोग नौकरों से मीठी बोली में बोलना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं । कितने ही अहंकारी, रईस, अमीर नामधारी भले नौकरों को भी डाँटते-डपटते ही रहते हैं और अनेक तो नौकरों को पीट देना भी अपना अधिकार समझते हैं, पर क्या इस प्रकार के व्यवहार से वास्तव में कोई लाभ होता है ? इसका परिणाम सदैव बुरा ही निकलता है । ऐसे कठोर और दुष्ट प्रकृति के मालिक से नौकर सदैव असंतुष्ट रहते हैं, उसके विरुद्ध आपस में षड्यंत्र रचते रहते हैं और जब कभी अवसर मिलता है तो उसे हानि भी पहुँचा देते हैं ।

बंगाल के एक विद्वान और नेता श्रीभूदेव मुखापाध्याय अपने नौकरों के साथ बड़ी शिष्टता और दया का व्यवहार करते थे। उनकी पत्नी ने एक बार कहा था- ‘मैं समझती हूँ कि नौकर लोग घर के लड़कों की अपेक्षा भी अधिक दया और उदारता के पात्र होते हैं । लड़के तो बराबर हमारे पास रहते हैं और जब जो चाहते हैं पा जाते हैं । हम लोग बराबर उन्हें सुखी रखने की चेष्टा करते हैं । वे जब बीमार होते हैं तो हम रात-दिन उन्हीं के पास बैठे रहते हैं। पर जब नौकर बीमार होकर कष्ट के मारे ‘हाय-हाय’ चिल्लाता है तब उसकी रक्षार्थ उसके माँ-बाप उसके पास थोड़े ही आ सकते हैं । उस समय हम लोगों को भी उनके साथ माँ-बाप का सा व्यवहार करना चाहिए। नौकर पर पूरा विश्वास करके तुम बहुत करते हो घर की ताली उसके सुपुर्द कर देते हो, किन्तु वह तो तुम्हारी दया के भरोसे अपने प्राण तक तुम्हें सौंप देता |

लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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