स्वास्थ्य रक्षा के कुछ सामान्य सूत्र दिए जा रहे हैं, जिनसे सभी लाभान्वित हो सकें। हर रोग में औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है। मात्र कुछ सामान्य से सिद्धांतों का प्रयोग, दिनचर्या में परिवर्तन ही हमें रोगमुक्त कर सकता है ! साथ ही नए रोग नहीं आएँ, ऐसी स्थिति बना सकता है। आज की जीवनशैली के रोगों से जूझना है तो इन नियमों का कुछ न कुछ अंशों में पालन करना सभी को अनिवार्य मानना चाहिए।
(१) नित्य सूर्योदय से पूर्व उठने का एक नियम बना लें। इसके लिए रात्रि में जल्दी सोना जरूरी है। अनावश्यक रूप से रात्रि में अधिक देर तक जागें नहीं।
(२) प्रतिदिन जितनी सीमा में संभव हो, व्यायाम अवश्य करें। प्रज्ञायोग एक सरल-सी व्यायाम-प्रक्रिया है, जो नित्य करने पर सदैव नीरोग रखती है । टहलना एवं तैरना भी एक सशक्त व्यायाम है। सप्ताह में कम से कम एक बार शरीर की अच्छी तरह तैल से मालिश करनी चाहिए।
(३) संभव हो तो नित्य सवेरे-शाम टहलने का क्रम बनाना हमेशा हितकारी होता है। यदि आधा घंटा टहलना हो सके तो सारे शरीर की मांसपेशियाँ सक्रिय हो जाती हैं, शरीर में हमेशा चुस्ती बनी रहती है एवं रक्त-प्रवाह ठीक बना रहता है।
(४) धूप, ताजी हवा, स्वच्छ पानी, सादा-सात्त्विक भोजन स्वास्थ्य देते हैं। ये सब हमारे हाथ में हैं।
(५) नित्य योगासन-प्राणायाम करने से, रोग कभी समीप नहीं आते। दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है। योगासन वही करें, जो निरापद हैं, शरीर पर अत्यधिक दबाव न डालें। किसी के भी कहने में आकर कुछ करने के बजाय वही करें, जो आपको उस विषय के विशेषज्ञ बताएँ।
(६) ऋतुचर्या का पालन करें। ऋतुओं के अनुसार शरीर प्रभावित होता है। शिशिर (माघ ,फाल्गुन), वसंत (चैत्र, वैशाख), ग्रीष्म (ज्येष्ठ, आषाढ़)-ये तीन ऋतुएँ उत्तरायण अर्थात आदानकाल में आती हैं। इनमें वायु में रुक्षता होती है तथा सूर्य बलवान होता है। वर्षा “(श्रावण, भाद्रपद), शरद (आश्विन, कार्तिक) तथा हेमंत (अगहन, पौष) ये तीन ऋतुएँ दक्षिणायन अर्थात निसर्ग काल में आती हैं। यह सौम्य काल है। ऋतुपरिवर्तन जब भी होता है, तब आहार-विहार में सम्यक संतुलन स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। अनेक रोग ऋतु-संधिकाल में असावधानी के कारण होते हैं।
(७) ऋतु-हरीतकी का सेवन कायाकल्प योग माना गया है। इसमें निर्धारित अनुपान के साथ हरीतकी (हरड़) का सेवन किया जाता है। ग्रीष्म में गुड़ के साथ, वर्षा में सेंधानमक के साथ, शरद ऋतु में शक्कर के साथ, हेमंत में सोंठ के साथ, शिशिर ऋतु में पिप्पली के साथ, वसंत ऋतु में मधु के साथ लेते हैं। सामान्यतः मात्रा आधा चम्मच से ३/४ चम्मच होती है।
(८) प्रतिदिन चार-पाँच तुलसीपत्र का सेवन वर्ष भर करने से ज्वर कभी नहीं सताता और भी कई प्रकार के रोग नहीं होते।
(९) भोजन न करना या अधिक भोजन करना पाचक अग्नि को प्रभावित करता है। इस विषय में ध्यान रखें। भोजन सरल, सादा, सात्त्विक नित्य अवश्य करें। कम से कम दस से बीस प्रतिशत भोजन का भाग कच्चा (यानी सलाद आदि) हो। अंकुरित पदार्थ भी साथ लें। बीच में जल न लें। जल आधा घंटे बाद पिएँ, धीरे-धीरे समय बढ़ाएँ। स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए खाएँ।
(१०) भोजन के बाद नमक मिले पानी से कुल्ला करें। कोई भी अन्न का भाग मुखनलिका में न रहे। भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम अवश्य कर लें।
(११) हमेशा शांत और प्रसन्नचित्त रहें। प्रसन्न मन से रोग दूर भाग जाते हैं। किसी के प्रति अत्यधिक राग द्वेष न रखें। ध्यान रखें, चिंता से अपनी ही हानि होती है।
(१२) जहाँ तक हो सके, भोजन के पश्चात कुछ देर विश्राम के अलावा दिन में न सोने की आदत डालें, थोड़ी असुविधा होगी, पर थोड़े समय में आदत पड़ जाने पर रात्रिचर्या का अभ्यास नियमित हो जाएगा।
(१३) अपने घर में ताजी हवा सतत आती रहे, है इसका ध्यान रखें। बंद कमरे, एयरकंडीशनर, कूलर आदि के प्रयोग से हम रोगों को आमंत्रित करते हैं।
अगरबत्ती (वनौषधि से निर्मित), कपूर अथवा चंदन का धुआँ हर घर में कुछ क्षणों के लिए रोज करें। नित्य या सप्ताह में एक या दो बार अग्निहोत्र यज्ञ करते रहने से रोग कभी नहीं आते।
(१४) श्वास सदा नाक से और सहज ढंग से लें। मुँह से श्वास न लें। इससे आयु कम होती है और रोग होने का डर रहता है।
(१५) मन को हमेशा उत्तम विचारों में लीन रखें। श्रेष्ठ-सकारात्मक चिंतन बढ़ाने वाले साहित्य का स्वाध्याय नित्य करें। अश्लील-उत्तेजक साहित्य न पढ़ें।
(१६) सुबह उठते ही ठंढा पानी कम से कम तीन से चार गिलास तक धीरे-धीरे पिएँ। यदि पानी ताँबे के पात्र में रखा होगा तो अधिक लाभ करेगा, उससे दिन भर स्फूर्ति बनी रहेगी, पेट साफ रहेगा तथा अनेक रोग नहीं आएँगे। दिन भर में अधिकाधिक जल का सेवन करें (कम से कम तीन लीटर जल २४ घंटे में)।
(१७) धूप का सेवन अवश्य करें। पृथ्वी-तत्त्व के भी संपर्क में रहने का प्रयास करें।
(१८) सप्ताह में एक दिन, एक समय अस्वाद व्रत का पालन करें। कम से कम लें। नीबू मिश्रित जल लें। इससे आपकी संकल्पशक्ति बढ़ेगी, संयम प्रखर होगा तथा पेट को विश्राम मिलेगा।
(१९) भोजन करते समय चिढ़ें नहीं, क्रोध न करें तथा किसी प्रकार की नकारात्मक चर्चा न करें। रात्रि का भोजन सोने से कम से कम तीन घंटे पहले कर लें।
(२०) सोने से पूर्व पैरों को अच्छी तरह धो लें। इष्टदेव का स्मरण कर, दिन भर की गतिविधियों की समीक्षा कर अगले दिन की आशावादी योजनाओं के साथ सोएँ। मुँह ढककर न सोएँ। खिड़कियाँ खोलकर सोएँ।
(२१) सुबह-सुबह हरी दूब पर टहलना संभव हो तो नंगे पैरों टहलें। पैरों पर दूब के दबाव से तथा पृथ्वी-तत्त्व के संपर्क से कई रोगों की स्वतः चिकित्सा हो जाती है।
(२२) सोते समय सिर उत्तर या पश्चिम दिशा में रखकर नहीं सोना चाहिए। दिशा का यह ज्ञान रखकर सोने से बहुत सारी व्याधियों से बचा जा सकता है।
(२३) प्रौढ़ावस्था का आरंभ ५० वर्ष के बाद माना जाता है। इसके बाद क्रमश: दिन में एक बार ही अन्न लें। बाकी समय दूध व फल पर रहें। चावल, नमक, घी, तैल, आलू, तली-भुनी चीजें क्रमशः कम करते जाएँ। आहार सात्त्विक और जितना हलका-सुपाच्य हो, उतना ही श्रेष्ठ है।
(२४) सवेरे उठते ही बिस्तर पर लेटे-लेटे अपनी हथेलियों को रगड़ें; उनका दर्शन करें और फिर बैठकर नया जन्म होने की भावना करें। यह प्रतिज्ञा करें कि मैं आज दिन भर में न तो किसी की निंदा करूँगा और न क्रोध करके किसी को कुछ भला-बुरा कहूँगा। अपनी दिन भर की योजनाएँ बनाएँ और उन्हें नित्य कर्म के बाद कहीं लिख लें। दिनचर्या का विधिवत् पालन करें।
ये २४ नियम स्वस्थ जीवन के आधारस्तंभ हैं। पालन करने पर निश्चित ही फल देते हैं।
- अखण्ड ज्योति, सितंबर २०१०