चैत्र नवरात्र अनुष्ठान-साधना का दिव्यतम एवं श्रेष्ठतम मुहूर्त है। इस पावन अवसर पर किया जाने वाला अनुष्ठान शतोगुणी-सहस्रगुणी परिणाम लेकर आता है। चैत्र या वासंती नवरात्र चैत्र शुक्ल की प्रथम नौ तिथियों में संपन्न होता है। शरद ऋतु के समान वसंत ऋतु में भी दुर्गा माता का पूजन किया जाता है। इसी कारण इसे वासंतीय नवरात्र भी कहते हैं। दुर्गा ,गायत्री का ही एक नाम है। अतः इस नवरात्र में विभिन्न पूजनपद्धति के साथ-साथ गायत्री का लघु अनुष्ठान भी विशिष्ट फलदायक होता है। इसी नवरात्र के साथ नूतन संवत्सर का भी शुभारंभ होता है।
चैत्र शब्द से चंद्र तिथि का बोध होता है। सूर्य के मीन राशि में जाने से, चैत्र मास में शुक्ल सप्तमी से दशमी तक शक्ति-आराधना का विधान है। चंद्र तिथि के अनुसार मीन और मेष इन दो राशियों में सूर्य के आने पर अर्थात चैत्र और वैशाख इन दोनों मासों के मध्य चंद्र चैत्र शुक्ल सप्तमी में भी, पूजन का विधान माना जाता है; क्योंकि यह काल किसी भी अनुष्ठान के लिए सर्वोत्तम और श्रेष्ठ कहा गया है। इन दिनों की जाने वाली साधना अवश्य ही फलीभूत होती है।
नवरात्र में उपवास एवं साधना का विशिष्ट महत्त्व है । साधना-समर के साहसी साधक प्रतिपदा से नवमी तक जल उपवास या दुग्ध उपवास से गायत्री अनुष्ठान संपन्न कर सकते हैं। यदि साधक में ऐसी सामर्थ्य न हो तो नौ दिन तक अस्वाद भोजन या फलाहार करना चाहिए। किसी कारण से ऐसी व्यवस्था न बन सके, तो सप्तमी-अष्टमी से या केवल नवमी के दिन ही उपवास कर लेना चाहिए। अपने समय, परिस्थिति एवं सामर्थ्य के अनुरूप ही उपवास आदि करना चाहिए।
जप में गायत्री मंत्र का भावपूर्ण अनुष्ठान या नवार्ण मंत्र का पुरश्चरण या अपने इष्ट मंत्र का अनुष्ठान करना चाहिए। इन दिनों नवाह्न पाठ, दुर्गासप्तशती का पाठ करना चाहिए। देवी भागवत में इसकी बड़ी महिमा गाई गई है। नवाह्न पाठ को तो अश्वमेध यज्ञानुष्ठान के समान फलश्रुति देने वाला माना गया है। पौराणिक मान्यता है कि द्वापर युग में सर्वप्रथम वसुदेव तथा भगवान श्रीकृष्ण ने इस अनुष्ठान को संपन्न किया था। दुर्गासप्तशती एवं देवी भागवत में इसकी अनुष्ठान विधि का उल्लेख किया गया है।
गायत्री-उपासकों को गायत्री-उपासना सामान्य नियमों के अनुरूप ही करनी चाहिए। आत्मशुद्धि और देवपूजन के पश्चात गायत्री जप आरंभ करना चाहिए। जप के साथ-साथ सविता देवता के प्रकाश का, अपने में प्रवेश होता हुआ अनुभव करना चाहिए। सूर्यार्घ्य आदि अन्य सारी प्रक्रियाएँ उसी प्रकार चलानी चाहिए; जैसे दैनिक साधना में चलती हैं। प्रतिदिन का जप सत्ताईस माला के साथ सम्मिलित हो जाता है और नौ दिन में चौबीस हजार का लघु अनुष्ठान पूर्ण कर लिया जाता है। अनुष्ठान के दौरान प्रयत्न यह होना चाहिए कि पूरे नौ दिन जप संख्या नियत ढंग से पूरी करनी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि उसमें व्यवधान कम-से-कम पड़े, क्योंकि नियत संख्या एवं समय की जपकाल में विशेष महत्ता मानी गई है। फिर भी आकस्मिक एवं अनिवार्य कारणों से व्यवधान आ पड़े तो उस दिन की जप संख्या को अन्य दिनों में पूरी कर लेना चाहिए। स्त्रियों का मासिकधर्म यदि बीच में आ जाए तो शुद्धि होने के पश्चात ही जप को पूरा करना चाहिए। इस स्थिति में एक दिन अधिक अनुष्ठान करना चाहिए। जप के समय वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिए। अगर विघ्न आ जाए तो एक माला अधिक जपना चाहिए।
कुमारी पूजन नवरात्र अनुष्ठान का प्राण माना गया है। इसके पूजन से सभी जप-तप सफल एवं पूर्ण माने जाते हैं। माता भगवती की कृपा की अनुभूति प्राप्त करने के लिए कुमारी पूजन करना चाहिए। कुमारिकाएँ माँ की प्रत्यक्ष विग्रह हैं। काम्यकर्म भी इस पूजन के द्वारा संपन्न होता है । इच्छित एवं ऐहिक फल इस पूजन के द्वारा उपलब्ध किए जा सकते हैं। भावनापूर्वक इसका पूजन अवश्य ही फलदायक होता है। तंत्रों में नवरात्र काल में कुमारी पूजन का विशिष्ट महत्त्व बताया गया है। प्रतिपदा से नवमी तक विभिन्न अवस्था की कुमारियों को माता भगवती का स्वरूप मानकर, वृद्धिक्रम संख्या से भोजन कराना चाहिए। वस्त्रालंकार, गंध-पुष्प से उनकी पूजा करके, उन्हें श्रद्धापूर्वक भोजन कराना चाहिए। दो वर्ष की अवस्था से दस वर्ष तक की अवस्था वाली कुमारिकाएँ स्मार्त रीति से पूजन योग्य मानी गईं हैं।
दो वर्ष की आयु वाली कुमारी, तीन वर्ष की आयु ई वाली त्रिमूर्ति, चार वर्ष की आयु वाली कल्याणी, पाँच ई वर्ष की आयु वाली रोहिणी, छह वर्ष की आयु वाली कालिका, सात वर्ष की आयु वाली चंडिका, आठ वर्ष है की आयु वाली शांभवी, नौ वर्ष की आयु वाली दुर्गा तथा दस वर्ष की आयु वाली सुभद्रा संज्ञा से अभिग्रहीत हैं। निष्काम भाव से माँ की अर्चना करने वालों को इन सभी कुमारियों का पूजन श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। काम्यकर्म में अपनी कामना के अनुरूप, जिस वय की कुमारी पूजने योग्य हों, उनकी पूजा करके तथा भोजन कराकर उन्हें तृप्त करना चाहिए।
भगवान व्यास जी ने राजा जनमेजय से कहा था कि कलियुग में नवदुर्गा का पूजन श्रेष्ठ और सर्वसिद्धिदायक है। नवरात्र के दिनों में क्रम से एकएक देवी की प्रतिमा के दर्शन की विधि निर्दिष्ट है। ये नौ देवियाँ हैं-शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री। नवरात्र में क्रम से इन रूपों और नामों से नवदुर्गा का पूजन, गायत्री, जप, संकीर्तन और दर्शन करने से भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ उपलब्ध होने की मान्यता है।
इस प्रकार इस तप-साधना में साधक को अपनी इच्छित साधना का चयन कर, भावपूर्ण ढंग से नियम एवं अनुशासनपूर्वक संपन्न करना चाहिए। तप-साधना एवं अनुष्ठान प्रखर तथा प्रचंड तभी बनते हैं, जब उनमें सम्यक उपासना के साथ साधना और आराधना के कठोर अनुशासन जुड़े हों। नवरात्र के दिनों में इन्हें अपनाने वाले की अनुभूति अपने आप ही इसकी सत्यता बखान कर देगी। प्रयोग के अंतिम दिन साधक को पूर्णाहुति के रूप में हवन का विशेष उपक्रम करना चाहिए। हवन की प्रत्येक आहुति के साथ, यह भावना करनी चाहिए कि वैयक्तिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय आपदाएँ इस समवेत ऊर्जा से ध्वस्त हो रही हैं। माता गायत्री की कृपा से समूचे राष्ट्र में उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावना साकार हो रही है। इस प्रक्रिया से चैत्र नवरात्र की साधना सफल और सुखद संभव हो सकती है।
युग निर्माण योजना, मार्च २०२१