चरित्र निर्माण भारतीय संस्कृति की सदा से धुरी रहा है। भारतीय संस्कृति की विशिष्टता और इसकी महानता का प्रमुख आधार इसके चरित्रनिष्ठ नागरिक, शासक एवं गणमान्य जन रहे हैं, जिनके आधार पर यहाँ के नागरिक आदर्शों की मिसाल रहे, परिवार नररत्नों की खदान बने और पूरा समाज सुख, समृद्धि एवं शांति के उच्चतम प्रतिमानों को छूता हुआ पूरे विश्व में अपनी श्रेष्ठता एवं अद्वितीयता के साथ प्रतिष्ठित रहा।
मध्यकाल में चारित्रिक दुर्बलता के कारण जब सामाजिक ताना-बाना कमजोर हुआ तो ऐसे में विदेशी आक्रांताओं को इसमें घुसपैठ का मौका मिला और परिणामस्वरूप लंबे अंतराल तक इसने दासता का दंश झेला। पुनः इसके चरित्रनिष्ठ नेतृत्व एवं जाग्रत जनचेतना के आधार पर इसने इस दासता से मुक्ति पाई है और शनैः-शनै: अपनी सनातन गौरव- गरिमा में प्रतिष्ठित होने की ओर अग्रसर है, लेकिन अभी भी बहुत कार्य शेष है।
आवश्यकता है अपने पुरखों की दी गई शिक्षाओं एवं सीखों को पुनः स्मरण करने की, उन्हें आत्मसात् करने की व उन्हें जीवन में धारण कर सांस्कृतिक संक्रमण के इस दौर में देव संस्कृति के सच्चे संवाहक बनकर अपना सकारात्मक योगदान देने की।
चरित्र निर्माण करने वाले दैवी तत्त्व भारतीय संस्कृति में भरे पड़े हैं। जिस संस्कृति का जीवन दर्शन व्यक्ति के लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण को सिद्ध करता हो, जो ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्शों की सीख देता हो, जो धर्ममय अर्थ एवं काम के आधार पर मोक्ष का मार्ग दिखाता हो, पूर्णता का पथ प्रशस्त करता हो, जिसमें सेवा और त्याग के आदर्श-संस्कारों में घुट्टी की तरह पिलाए जाते उसके लिए चरित्र निर्माण मानवीय विकास की सहज स्फूर्त प्रक्रिया रही है।
वेदों का स्पष्ट आदेश है कि ‘ऋतस्य पथां प्रेत’ अर्थात सत्य और पवित्र मार्ग पर चलो। वेदों में प्रार्थना के स्वर स्पष्ट हैं कि मेरे जीवन यज्ञ के अग्रणी अग्निदेव! मुझे दुश्चरित्र से सब ओर से बचा और सुचरित्र में मेरी प्रीति और भक्ति हो। मैं उसी का सेवन करूँ। देवों और देवोपम मानवों का अनुसरण कर मैं अपने जीवन में उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होऊँ और फिर जीवन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित होऊँ ।
पूरे भारत को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में आबद्ध में करने वाले आदि शंकराचार्य के शब्दों में चरित्र, शील और सदाचार पर्यायवाची शब्द हैं। यही चरित्रनिष्ठा किसी भी व्यक्ति के जीवन को मूल्यवान बनाती है, श्रद्धापात्र बनाती है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार विद्वान अपनी विद्वत्ता से प्रशंसा का पात्र हो जाता है, परंतु चरित्रवान मनुष्य अपने चरित्र के आदर्श द्वारा लोगों का श्रद्धाभाजन बनकर अपने प्रति आदरभाव उत्पन्न कर उनके हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है।
इसीलिए भगवद्गीता हर जिम्मेदार एवं विचारशील व्यक्ति को श्रेष्ठ आचरण के लिए कहती है; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण के अनुसार ही अन्य पुरुष बरतते हैं तथा वे उन्हीं के आदर्शों का अनुगमन करते हैं और कीर्ति में धब्बा लगना भारतीय संस्कृति के अनुसार मृत्यु से बढ़कर से समझा जाता है। इसीलिए चरित्रनिष्ठा का भाव भारतीय संस्कृति में अग्निज्वाल की भाँति धमनियों में प्रवाहित होता रहा है जिसकी-अनगिनत, मिसालें हर युग में जनमानस
को श्रेष्ठता के पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही हैं।
इसी आधार पर मनुस्मृति के अनुसार इस आर्यावर्त में उत्पन्न मनुष्य अपने चरित्र के कारण संसार के लोगों के आदर्श होते थे। रामायण में चारित्रिक रूप से अनुकरणीय तमाम आदर्श पात्र मिलते हैं। पिता के रूप में दशरथ, माता के रूप में कौशल्या, पुत्र के रूप में श्रीराम एवं श्रवण कुमार, भाई के रूप में लक्ष्मण, भरत और पत्नी के रूप में माता सीता सब चारित्रिक दृष्टि से अपने व्यक्तित्व की अप्रतिम छाप छोड़ते रहे हैं।
वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि अयोध्या में एक भी कामी यानी दुराचारी, कंजूस, क्रूर, अशिक्षित और नास्तिक पुरुष नहीं दिखाई देता था। सबके सब स्त्री-पुरुष धार्मिक, संयमी, सदाचारी, प्रसन्न और निर्मल हृदय थे। कोई गृहस्थ अग्निहोत्रादि नियमों का पालन न करने वाला, क्षुद्रवृत्ति, – चोर, दुराचारी और व्यभिचारोत्पन्न अयोध्या नगरी के अंदर न था।
सब अयोध्यावासी ज्ञानसंपन्न, पवित्र और मिलकर विचार करने वाले थे। उस सारे अयोध्या नगर में ही – नहीं, सारे राष्ट्र में भी कोई असत्यवादी पुरुष नहीं था। कहीं दुष्ट और व्यभिचारी परस्त्री संग करने वाला पुरुष तक वहाँ दिखाई न देता था। इस प्रकार अयोध्या का नगर और सारा राष्ट्र अत्यंत शांति से युक्त एवं अपराध से मुक्त था।
दर्शन के चरमोत्कर्ष काल में छांदोग्य उपनिषद् में ऋषि के स्वर चरित्रनिष्ठा के आदर्श को मुखरित करते हुए – कहते हैं- मेरे देश में कहीं कोई चोर, कृपण, मद्यपानी, दैनिक अग्निहोत्र न करने वाला, मूर्ख और स्वेच्छाचारी व्यक्ति निवास नहीं करता, फिर स्वेच्छाचरण करने वाली स्त्री तो भला हो ही कैसे सकती है।
यही भावप्रवाह इतिहास के स्वर्णिम पलों में विद्यमान था जब पश्चिम भारत से आशा भरी दृष्टि से कुछ – सीखने व पाने की इच्छा से पधार रहा था। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व 303 ई०पू० मौर्यकाल में सेल्यूकस ने सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में अपना राजदूत मैगस्थनीज पाटलिपुत्र भेजा था। उसने अपनी पुस्तक इंडिका में लिखा है- यहाँ के लोग अपने घरों में ताला लगाने की प्रथा से अपरिचित थे। उनका ज्ञान, वैभव अद्भुत गौरवशाली था। भारतीय समाज के छोटे वर्ग में भी सर्वत्र ईमानदारी भरी पड़ी थी।
629 ई० में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत पधारे और उनके शब्दों में भारतवासी बड़े सत्यवान और प्रतिष्ठावान होते हैं। वे पाप-पुण्य का सदा ध्यान रखते हैं। उनका व्यवहार मधुर और नम्र होता है। देश में अपराधियों और विद्रोहियों की संख्या बहुत कम है। जब कोई व्यक्ति कानून भंग करता है तो उसके विरुद्ध तत्काल कार्रवाई की जाती है। इसी तरह गुप्तकाल में अन्य चीनी यात्री फाह्यान ने भारत में नागरिकों की उच्च चरित्रनिष्ठा का वर्णन किया है।
औरंगजेबकालीन इतिहासकार शफी खाँ शिवाजी महाराज की चरित्रनिष्ठा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि शिवाजी मराठा ने यह नियम बना रखा था कि जहाँ कहीं भी उनके सिपाही युद्ध के दौरान पहुँचें, वहाँ किसी मसजिद या खुदा की किताब या किसी स्त्री को हानि न पहुँचाएँ। जब कभी पवित्र कुरान की कोई प्रति उनके हाथ में आ जाती थी तो वे उसे आदर से रखते थे और अपने किसी मुसलमान अनुचर को दे देते थे। इसी तरह शिवाजी के सभी सैनिक तथा शिविर चरित्र संबंधी सभी दोषों से मुक्त थे। विजित प्रदेशों की स्त्रियों को वे छूते तक न शास्त्रों में वर्णित ‘मातृवत् परदारेषु’ का आदर्श यहाँ जीवंत था।
महाभारत के उद्योग पर्व, 132/17 में स्पष्ट वर्णन है कि शासक के चरित्र के उत्थान या पतन से ही किसी राष्ट्र की नैतिकता या अनैतिकता, त्याग एवं तपस्या का पता चलता है। राजा या प्रशासक जब पापी होता है, तब प्रजा पापिष्ठ हो जाती है और जब धर्मनिष्ठ होता है, तब प्रजा भी धार्मिक हो जाती है।
परमात्मा के बनाए सभी दिन समान रूप से शुभ एवं पवित्र है। इनमें शुभ अथवा अशुभ का आरोपण मनुष्य स्वयं अपने विचारों से कर लेता है।
यहाँ ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की उक्ति चरितार्थ होती है। कवि शिरोमणि कालिदास के शब्दों में जहाँ – अपूज्य पुरुषों की पूजा होती है और पूज्य पुरुषों की पूजा में विघ्न उत्पन्न होता है तो वहाँ अकाल मृत्यु एवं भय तीन चीजें होती रहती हैं।
भारत ने ऐसे ही चारित्रिक दृष्टि से दूरदर्शिताहीन एवं निर्बल शासकों के कारण दासता का सदियों लंबा पीड़ादायक गुलामी भरा त्रासदीपूर्ण दौर देखा, लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल रही हैं। भारत पुनः अपनी सांस्कृतिक गौरव गरिमा के साथ विश्वपटल पर प्रतिष्ठित होने की राह पर अग्रसर है। चरित्रनिष्ठा का सनातन प्रवाह पुनः हमारी धमनियों में प्रवाहित हो रहा है। सौभाग्यशाली हैं वो सभी सृजनसैनिक, जो देव संस्कृति के संवाहक बनकर इस पुनीत कार्य में लगे हैं और सांस्कृतिक नवनिर्माण की पटकथा लिख रहे हैं।
अखण्ड ज्योति, फरवरी 2022