ईश्वरचंद्र विद्यासागर तब एक किशोर ही थे। उदारतापूर्वक जो अपने पास था उसे दूसरों को बाँटते रहने की भावना का बचपन से ही उनके हृदय में स्थान था। यह बाँटने तथा दूसरों को देने की आदत उन्होंने अपनी माँ से बचपन में सीखी थी। एक दिन एक साथी को वे लेकर घर आए। माँ से कहा- “यह फीस के पैसे न होने के कारण परीक्षा नहीं दे पा रहा है। क्या हम इसकी कुछ मदद कर सकते हैं ?” माँ ने तुरंत अपना मंगलसूत्र निकालकर दे दिया। उसे गिरवी रखकर फीस दे दी गई। छात्र परीक्षा में बैठा, पास हो गया। गिरवी रखा मंगलसूत्र लाकर उसने ईश्वरचंद्र की माँ के चरणों में रखा। ममता भरी डाँट लगाते हुए वे बोलीं- “बेटा! इसका नाम ही मंगलसूत्र है। इसीलिए मंगल कार्य के लिए काम आ गया। तू इसे रख, बेचकर आगे की पढ़ाई की व्यवस्था बना।” सदा जरूरत के समय दूसरों की मदद करते रहना चाहिए।
अमृत कण ( सचित्र बाल वार्ता )
युग निर्माण योजना , मथुरा