आज इसी प्रकार की क्षुद्र मनोवृत्तियों क साम्राज्य है। कुढ़न और ईर्ष्या की आग में झुलसते रहने वाले व्यक्ति अपना मानसिक अहित तो करते ही हैं अपनी जलन बुझाने के लिए जो षडयंत्र रचते हैं उसमें उनकी उनकी इतनी शक्ति खर्च होती रहती है जिसकी बचत करके उपयोगी मार्ग में लगाया गया होता तो अपनी बहुत उन्नति हुई होती। लोगों का जितना समय और मनोयोग इन दुष्प्रवृत्तियों में लगता है यदि उतना आत्म−कल्याण अथवा दूसरों की सेवा-सहायता में लगता तो कितना बड़ा हित साधन हो सकता था। ईर्ष्या और कुढ़न की मूर्खता पर जितना ही गम्भीरता से विचार किया जाता है उतनी ही उसकी व्यर्थता और हानि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगती है।
इन द्वेष वृत्तियों का परित्याग करके यदि मनुष्य अपने अन्दर सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने में लग जाय तो उसकी दुनियाँ आज की अपेक्षा कल दूसरी ही हो सकती है। दृष्टिकोण के बदलने से दृश्य बदलते हैं। नाव के मुड़ने से किनारे पलट जाते हैं। हमें इस प्रकार का सुधार अपने आप में निरन्तर करते चलना चाहिए। सुधार के लिए हर दिन शुभ है उसके लिए कोई आयु अधिक नहीं। बूढ़े और मौत के मुँह में खड़े हुए व्यक्ति भी यदि अपने में सुधार करें तो उन्हें भी आशाजनक सफलता प्राप्त हो सकती है। फिर जिनके सामने अभी लम्बा जीवन पड़ा है वे तो इस आत्म−सुधार की प्रक्रिया को धीरे−धीरे चलाते रहें तो भी अपने जीवन क्रम का कायाकल्प ही कर सकते हैं।
✍???? पं श्रीराम शर्मा आचार्य
???? अखण्ड ज्योति जून 1962