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सफल दांपत्य जीवन के रहस्य

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विवाह के समय वर और वधू दोनों के मन में अपने दांपत्य जीवन को लेकर कई मीठे-मीठे सपने उठते रहते हैं और हृदय में हिलोरें लेते रहते हैं।

उस समय देखे गए सपने, किए गए संकल्प और लिए गए व्रत लंबे समय तक हृदय को गुदगुदाते रहते हैं। इन संकल्पों और सपनों को समय-समय पर दोहराया भी जाता है।

पत्नी के रूप में पति को जो साथी मिलता है, उसे वह अपने सबसे अधिक निकट और सर्वाधिक घनिष्ठ पाता है। पति के रूप में स्त्री को जो साथी मिलता है; उसमें वह अपनी कई अपेक्षाओं की पूर्ति का आधार खोजती है।

इस जीवन की शुरुआत में पति-पत्नी एकदूसरे से जो स्नेह, संरक्षण, सहयोग, प्रेम, मार्गदर्शन और प्रतिदान प्राप्त करते हैं; वह चिरकाल तक एकदूसरे के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहता है। लेकिन प्रायः वह आकर्षण शीघ्र ही चुकता जाता है और लगने लगता है कि दोनों में एक असंतोष, एक विरक्ति की भावना बढ़ती जा रही है।

पति-पत्नी आरंभ में जिस प्यार और जिस स्नेह का रसपान कर रहे होते हैं; वह शीघ्र ही विलीन होने लगता है तथा एकदूसरे से शिकवा-शिकायत उत्पन्न होने लगती है।

काश पति-पत्नी उस अनुदान को देखें, जो उन्हें एकदूसरे से प्राप्त हो रहा है, तो यह शिकवा-शिकायत होने की परिस्थितियाँ ही पैदा न हों लेकिन विवाह के कुछ समय बाद ही जीवन में असंतोष और विरक्ति का जो भेद-विष घुलना आरंभ हो जाता है।

उसे देखकर यही कहना पड़ता है कि वर-वधू ने विवाह के आदर्शों को जरा भी नहीं समझा और एकदूसरे के प्रति इसीलिए आकर्षण अनुभव किया कि उन्हें शारीरिक साहचर्य की प्राप्ति का उल्लास था।

विवाह के कुछ समय बाद तक ही पति-पत्नी में दूसरे के प्रति आकर्षण और लगाव रहता है। जैसे ही उनका सौंदर्य पुराना होने लगता है: परिचय नया नहीं रहने लगता। उनका जीवन रोते-झींकते, कलपते और लड़ते-झगड़ते बीतना आरंभ हो जाता है।

पति-पत्नी में संबंधों में तनाव पैदा होना इसलिए अस्वाभाविक नहीं है कि मनुष्य का स्वभाव भूल करने और गलतियाँ करने का ही होता है। ये भूलें दांपत्य जीवन में भी होती हैं, पर स्थिति-समस्या तब बन जाती है। जब उन स्वाभाविक कमजोरियों को बात का बतंगड़ बनाने के प्रयत्न होने लगते हैं।

इसके स्थान पर यदि गलतियों और त्रुटियों को सहज मानवीय कमजोरी मानकर चला जाए, तो प्रेम और आकर्षण में कमी नहीं आने पाती; क्योंकि तब गलतियों के प्रति दृष्टिकोण दूसरा हो जाता है।

दंपती को अपने जीवनसाथी के प्रति संपूर्ण हृदय से प्रेम करते हुए एकदूसरे से संतुष्ट रहना चाहिए। कहीं कोई गलती भी होती है, तो समझना चाहिए कि वह अस्वाभाविक नहीं है और इसलिए उसे अस्वाभाविक रूप से नहीं लेना चाहिए।

साथी के गुण व दोषों को स्वाभाविक मानकर चला जाए: साथ ही दोषों का परिमार्जन और गुणों का अभिवर्द्धन किया जाता रहे, तो उससे एकदूसरे के प्रति गहरी समझ और प्रगाढ़ एक्य की भावना उत्पन्न होकर बढ़ने लगती है, जो दांपत्य जीवन की सफलता के लिए एक आवश्यक कदम है।

एकदूसरे के प्रति समझ-बूझ पूर्ण रवैया तथा सहनशीलता का भाव रखना भी अत्यंत आवश्यक है। भगवान ने एक कंकड़ को भी दूसरे कंकड़ के समान नहीं बनाया, तो दो व्यक्तियों की मनोभूमि और विचारधारा एकदूसरे के समान कहाँ से बनाता? इस विविधता में ही सृष्टि की सुंदरता है।

अतः यह समझना भी आवश्यक है कि पति-पत्नी की विचारधाराएँ और मनोभूमियाँ एक समान होना संभव नहीं है। दोनों के वैचारिक दृष्टिकोण, मान्यता और सोचने का ढंग एक जैसा हो, यह संयोग कम ही देखने में आता है।

यदि इस तथ्य के प्रति समझपूर्ण रवैया नहीं अपनाया गया तो पति-पत्नी दो भिन्न ध्रुव बन जाते हैं और उनके जीवन में आवश्यक तालमेल नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में एक पक्ष ने यदि अपनी ही बात पर अड़े रहने और दूसरे से भी उसको ही मनवाने की हठधर्मी पकड़ ली तो बात बिगड़ती चली जाएगी।

विचारों में ही नहीं, यह विभिन्नता पसंदगी में भी रहती है। पति-पत्नी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे एकदूसरे की पसंद पर आक्रमण न करें।

उन्हें एकदूसरे की पसंद की इज्जत करना, उसे स्वीकार करना तथा तदनुसार अपने साथी को प्रसन्न रखने के लिए तत्पर रहना चाहिए।

इससे पति भी अपनी पत्नी के प्रति यह सद्भाव रखने लगता है कि यह मेरी प्रसन्नता का कितना ख्याल रखती है और पत्नी भी अपने पति से संतोष तथा तृप्ति का अनुभव करती है। यह सहनशीलता न केवल साथी की एकदूसरे के लिए उपयोगिता सिद्ध करती है, वरन उनके पारस्परिक प्रेमभाव बढ़ाने का आधार भी खड़ा करती है।

परस्पर समझ तथा सहनशीलता के सद्गुणों का अभिवर्द्धन करने के साथ-साथ पति-पत्नी को अति भावुकता से बचना चाहिए। भावनाएँ होना अति उत्तम है। उनके स्तर और परिष्कृत स्वरूप पर ही सामान्य व्यक्ति महामानव तक बन जाते हैं लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि भावनाओं में बहकर अंधा ही हो जाया जाए।

इस तरह की आत्यंतिक भावशीलता या अतिभावुकता मनुष्य के क्रियाकलापों और प्रेम-प्रवृत्ति को हवा में उड़ने वाले बादलों की तरह अस्थिर और क्षण-जीवी बना देती है।

अतः इस अति से सावधान और सतर्क रहना चाहिए। पति-पत्नी आसमान में नहीं उड़ें, धरती पर ही रहें। आसमान की बातें तो सोची जा सकती हैं; सोची जानी भी चाहिए।

अपने लक्ष्य और आदर्श उतने ही ऊँचे रहें, पर पाँव धरती से उखड़ें नहीं, जिससे कि देखे गए स्वप्न दिवा-स्वप्न मात्र बनकर रह जाएँ।

भावनाओं का जो प्रबल प्रवाह पति-पत्नी के हृदय में बहता है; उस प्रबल भाव-राशि को दिशा देने के लिए धैर्य और निष्ठा के दो किनारों की आवश्यकता है। अतिभावुकता उन किनारों को तोड़ डालती है। इसी प्रकार आत्यंतिक आसक्ति भी अति दुःखदायी है।

पति-पत्नी को एकता और समर्पण के सूत्र में आबद्ध करने वाला सूत्र यद्यपि आसक्ति ही है, पर आसक्ति वही परिष्कृत है, जो समय के साथ प्रौढ़, पुष्ट और कल्याणकारी बनती जाती है तथा प्रेम में परिणत होने लगती है; इसकी अति से यदि नहीं बचा जाता तो कई बार बड़े संकट उपस्थित हो जाते हैं।

आसक्ति की प्रेम-परिणति के लिए आवश्यक है कि अपने संबंधों को सेवापरक बनाया जाए। स्त्री की प्रवृत्ति अधिकांशत: सेवापरायण ही रहती है। इसीलिए काम-क्रीड़ा के क्षेत्र में वह पुरुष की अपेक्षा काफी पीछे और उदासीन रहती है।

कुछ समय तक अलग-अलग रहना भी प्रेम की ताजगी बनाए रखने के लिए आवश्यक है। थोड़े समय का यह बिछोह पति-पत्नी को भावनात्मक दृष्टि से और भी निकट ला देता है। साथ रहते-रहते एकदूसरे की भावनाओं और उपयोगिता को समझ पाने की स्थिति प्रयास करने पर भी कम ही प्राप्त होती है; जितनी कि अलग-अलग रहने से होती है। सफल दांपत्य जीवन के लिए यह जरूरी है कि पति-पत्नी दोनों ही एकदूसरे के लिए समर्पित, सच्चे जीवनसाथी बनकर रहें। उपरोक्त सभी तथ्यों के अनुरूप जीवन जिएँ।

-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

युग निर्माण योजना,फरवरी 2020

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