लंदन के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री नेक हेराल्ड के अध्ययन से महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकाला कि वेश-भूषा का मनुष्य के चरित्र, वैभव, शील और सदाचार से गहनतम संबंध है। पुरुषों की तरह की वेशभूषा धारण करने वाली नवयुवतियों का मानसिक चित्रण और उनके व्यवहार की जानकारी देते हुए श्री हेराल्ड लिखते हैं-“ऐसी युवतियों की चाल-ढाल, बोल-चाल, उठने-बैठने के तौर-तरीकों में भी पुरुष के-से लक्षण प्रकट होने लगते हैं। वे अपने आप को पुरुष-सा अनुभव करती हैं, जिससे उनके लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों का ह्रास होने लगता है। स्त्री जब स्त्री न रहकर पुरुष बनने लगती है, तब वह न केवल पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने में असमर्थ हो जाती है, वरन उसके वैयक्तिक जीवन की शुद्धता भी धूमिल पड़ने लगती है। पाश्चात्य देशों में दांपत्य जीवन में उग्र होता हुआ अविश्वास उसी का एक दुष्परिणाम है।”श्री हेराल्ड ने अपना विश्वास व्यक्त किया कि भारतीय आचार्यों ने वेशभूषा के जो नियम और आचार बनाए, वह केवल भौगोलिक अनुकूलता ही प्रदान नहीं करते, वरन स्त्री-पुरुषों की शारीरिक बनावट का दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है उस सूक्ष्म विज्ञान को दृष्टि में रखकर भी बनाए गए हैं; वेशभूषा का मनोविज्ञान के साथ इतना बढ़िया सामंजस्य न तो विश्व के किसी देश में हुआ और न किसी संस्कृति में, वरन यह भारतीय आचार्यों की मानवीय प्रकृति के अत्यंत सूक्ष्म अध्ययन का परिणाम था।
आज पाश्चात्य देशों में अमेरिका में सर्वाधिक भारतीय पोशाक, साड़ी का तो विशेष रूप से तेजी से आकर्षण और प्रचलन बढ़ रहा है दूसरी ओर अपने देश के नवयुवक और नवयुवतियाँ विदेशी और सिनेमा टाइप वेशभूषा अपनाती चली जा रही हैं। यह न केवल अंधानुकरण की मूढ़ता है, वरन अपनी बौद्धिक, मानसिक एवं आत्मिक कमजोरी का ही परिचायक है।अपनी वेशभूषा भारतीय परंपराओं और संस्कृति के अनुरूप बनाए रखेंगे तो गौरव अनुभव कर सकेंगे। वर्तमान जीवनशैली में तेजी से बदलाव आ रहा है, वह रोकना संभव न भी हो तो कम-से-कम वेशभूषा में शालीनता दिखाई देना चाहिए। श्री हेराल्ड लिखते हैं-“सामाजिक विशेषज्ञों को इस संबंध में अभी विचार करना चाहिए; अन्यथा वह दिन अधिक दूर नहीं, जब पानी सिर से गुजर जाएगा।”भारतीय दर्शन में आत्मकल्याण के लिए बहुत उपाय हैं, सैकड़ों योग-साधनाएँ हैं वैसे ही लोककल्याण के लिए भी अनेक परंपराएँ, मान्यताएँ और आचार-विचार प्रतिस्थापित किए गए हैं, उन सबका उद्देश्य जीवन को सशक्त और संस्कारवान बनाना रहा है। अब जो परंपराएँ विकृत हो चुकी हैं, उनमें वेशभूषा भी कम चिंताजनक नहीं; हमें अनुभव करके ही नहीं इस मनोवैज्ञानिक खोज से भी सीखना चाहिए कि अपनी वेशभूषा ओछापन नहीं, बड़प्पन का ही प्रतीक है।
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना
सितम्बर 2020