प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात के पास एक बार कोई व्यक्ति फटे-पुराने कपड़े पहनकर आया। उसके शरीर पर तार-तार कपड़े थे, फिर भी उसकी चाल-ढाल, बात करने के अंदाज और मुख-मुद्रा में एक दर्प टपकता था। सुकरात से आकर उसने कुछ अटपटे प्रश्न किए और कहा- “महात्मन्! मैं इनके उत्तर चाहता हूँ।”प्रश्न करने और उत्तर पूछने के बाद उस व्यक्ति ने सुकरात की ओर इस प्रकार देखा, जैसे कोई विद्वान अपनी तुलना में कम जानकार ज्ञानी से प्रश्न करता है। अंतर्दृष्टिसंपन्न सुकरात ने उस व्यक्ति के मनोगत भावों को जान लिया और पूछा- “मित्र! तुम इन प्रश्नों के उत्तर किसलिए जानना चाहते हो ?””यह तो आप जानते ही होंगे, लोग आपके पास किस आशय से आते हैं?” स्पष्ट था कि वह जिज्ञासा का समाधान करने का ढोंग कर रहा था, परंतु अहंकार के मद में उन्मत्त व्यक्ति अपना मंतव्य सीधे-सीधे व्यक्त करने से कतराता है। सुकरात जानते थे कि इस व्यक्ति को उत्तर देकर, व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझना पड़ेगा। अतः उन्होंने कहा – ” मित्र! मेरे पास तो लोग जिज्ञासाएँ लेकर आते हैं और मैं उनका शक्ति भर समाधान करता हूँ, पर तुम तो जिज्ञासा से नहीं आए हो; क्योंकि तुम्हारे फटे कपड़ों के प्रत्येक छिद्र से दांभिकता झाँक रही है।” वस्तुतः वह व्यक्ति दंभी था और साथ ही साथ अल्पज्ञ भी। अल्पज्ञ व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान को लेकर अपने सभी साथियों पर रोब गालिब करने का अवसर खोजता रहता है। जहाँ तक ज्ञानार्जन का प्रश्न है, अपनी अल्पज्ञता का आभास और विशेष ज्ञानप्राप्ति का प्रयास एक उचित उपाय है, परंतु कुंठित महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अपने थोड़े-से ज्ञान को लेकर ही ‘चुहिया को चिंदा मिल गया तो बजाजखाना खोल दिया’ वाली कहावत चरितार्थ करने लगता है। जबकि इस प्रकार के दंभ और दर्प से न तो उसका कोई हित है और न उसके मित्र और सहयोगी ही उससे प्रभावित होते हैं।महत्त्वाकांक्षी के कुंठाग्रस्त होने का कारण होता है- सृजनात्मक दृष्टिकोण का अभाव जर्मनी के एक निर्धन परिवार में एक छोटा-सा लड़का था, नाटे कद का और दुर्बल घर के लोगों से लेकर बाहर के हमजोली तक उसे चिढ़ाया करते, उसका मजाक बनाते रहते। यहाँ तक कि उसके माता-पिता तक ने उसे प्रताड़ित किया और उसका बचपन इन कारणों से बड़ा घुटा-घुटा व्यतीत हुआ। वस्तुतः वह प्रतिभाशाली और महत्त्वाकांक्षी था। मिलना चाहिए था, उसे प्रोत्साहन और मार्गदर्शन; जबकि मिली उपेक्षा और प्रताड़ना। फिर भी वह सोचता रहा कि मैं बड़ा आदमी बनूँगा, महान बनूँगा। कोई मुझे छोटा न समझे। दीन-हीन और नगण्य न माने। इसके लिए मैं प्रयत्न करूँगा, प्रबल प्रयत्न करूँगा।उसने प्रयत्न के लिए सैनिक क्षेत्र का चुनाव किया। उसके मन में बड़प्पन और विजयाकांक्षा उत्तरोत्तर बढ़ती रही उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण उसमें सृजनात्मक दृष्टिकोण का अभाव ही रहा। फलतः उसकी दांभिकता भी बढ़ती रही और शक्ति भी। एक दिन यही व्यक्ति जर्मनी का प्रसिद्ध डिक्टेटर और दो-दो विश्व युद्धों का जनक हिटलर बना। उसके पास प्रतिभा थी, शक्ति थी और उनसे उसने सारे विश्व को चमत्कृत भी किया, पर कुंठाग्रस्त विध्वंसात्मक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण वह विनाश की ओर ही अग्रसर हुआ। गलियों में सिर पर गंदगी की टोकरियाँ ढोने वाला यह साधारण मजदूर एक दिन बड़ी बुलंदी के साथ कहने लगा “मेरा जन्म शासन करने के लिए हुआ है, अपनी कुंठाओं का प्रतिशोध पूरा करने के लिए उसने करीब नब्बे हजार निरपराध प्राणियों को यंत्रणागृह में बंद कर मृत्यु के मुँह में बड़ी क्रूरता के साथ धकेल दिया।”नेपोलियन भी महत्त्वाकांक्षी युवक था और उसने अपनी इस तृषा को तृप्त करने, यश-कीर्ति की पताका लहराने के लिए प्रथमतः लेखक बनने का प्रयास किया था। लेखक बनने के लिए उसने रूसो और ऐल्बो रेनाल की कृतियों का स्वाध्याय किया, फिर आनन-फानन में एक पुस्तक लिख डाली, उसे ऐल्बो रेनाल के पास भेज दिया। पढ़कर रेनाल ने लिखा- “ और गहरी खोज कर दोबारा लिखने का प्रयत्न करो।”बड़ी झुंझलाहट हुई नेपोलियन को उसने दोबारा एक निबंध लिखा- फिर निराशा, तीसरे प्रयास में भी सफलता। और इन तीनों विफलताओं ने ही उसे तोड़कर रख दिया। अधीर व्यक्ति मिनटों में आम और घंटों में जामुन लगाना और उगाना चाहते हैं। साहित्य क्षेत्र में मिली प्रारंभिक असफलताओं ने नेपोलियन की राह ही बदल दी और वह बन गया, युद्धोन्मादी, विश्वविजय का स्वप्नद्रष्टा द्वंद्व युद्ध, मार-काट, दमन, विरोधी शासकों का पतन और चीख-पुकार ही उसका जीवनमार्ग बन गया। नेपोलियन अपने विजित प्रदेशों पर सदैव शासन न कर सका। वह वीर था, योद्धा था, साहसी था यह ठीक है। ये गुण अनुकरणीय हैं, परंतु उसकी प्रवृत्ति विध्वंसात्मक थी। इसलिए जितने उसके प्रशंसक हैं, उनसे भी कहीं ज्यादा उसके आलोचक मिलते हैं।महत्त्वाकांक्षा कोई बुरी चीज नहीं बुरी है उसकी विपरीत दिशा इतिहास के कुछ गिने-चुने व्यक्ति ही नहीं सर्वसाधारण में भी बड़प्पन की कुंठित इच्छा पूरी करने के लिए लोग ऊल-जलूल दावतें करते रहते हैं। महत्ता और सम्मान प्राप्त करने के लिए अनपढ़ और गँवार लोग जेवरों, कीमती कपड़ों में अपनी कमाई झोंकते दिखाई देते हैं धनवान स्त्रियाँ अपने शरीर पर रौप्य और स्वर्णाभूषण लादे रहती हैं। युवक-युवतियाँ अपने अभिभावकों की कमाई को तरह-तरह की पोशाकें बनाने और फैशन करने में उजाड़ते रहते हैं। आखिर इन सबका क्या अर्थ है और क्या उद्देश्य ? यही न कि हम औरों से अच्छे और ऊँचे दिखाई दें। और जब सभी लोग इस दौड़ में शामिल होते हैं तो बड़प्पन की क्या पहचान ?मृत्युभोज, विवाह शादियों और अन्य पारिवारिक आयोजनों में लोग अनाप-शनाप खरच कर अपनी शान जताते हैं। इसमें भी कोई शान है ? लाखों रुपये खरच कर बड़ी धूम-धाम से इनका आयोजन किया जाए, परंतु उनकी स्मृतियाँ चिरस्थायी नहीं रहतीं। लोग थोड़े ही दिनों में उन बातों को भूल जाते हैं। यदि दो-चार दिनों बाद ही उससे इक्कीस आयोजन कहीं हुआ, तो उलटी सारी शान मिट्टी में मिल जाती है। न भी हो तो अपनी सामर्थ्य से अधिक खरच कर अपना बड़प्पन बघारना कोई बुद्धिमानी नहीं है। भला इतनी कीमत पर दो-चार दिन के लिए चर्चित बन गए तो क्या बहादुरी है? यह बात भी नहीं है कि लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ हों, पर बड़प्पन का व्यामोह और कुंठाग्रस्त अहं किसी भी कीमत पर अपना अस्तित्व मिथ्या आधारों पर स्थापित करने के लिए प्रयत्न करता है।इस प्रकार के बड़प्पन को हिटलर और मुसोलिनी से किसी भी रूप में कम नहीं कहा जा सकता फरक इतना है कि हिटलर और मुसोलिनी को व्यापक क्षेत्र मिला था और ऐसे व्यक्तियों को सीमित क्षेत्र मिलता है। हिटलर, मुसोलिनी ने नरसंहार किया था तो ऐसे व्यक्ति धन अपव्यय करते हैं। संहार और विध्वंस दोनों ही स्थानों पर हैं, अंतर केवल सामर्थ्य और क्षेत्र का है।तो महत्त्वाकांक्षा की उचित कसौटी क्या है? स्पष्ट है-सृजनात्मकता और उपयोगिता सृजन का अर्थ ही उपयोगिता है। बड़ा ही बनना है तो सत्कार्यों में, पुण्य प्रवृत्तियों में अपनी शक्ति और सामर्थ्य का व्यय करना चाहिए। अर्जन करना है तो भले-बुरे सभी तरीके अपनाकर धनवान बनने की अपेक्षा गुणवान, परोपकारी और सेवाभावी बनना अधिक सहज है तथा अधिक लाभदायक भी इस मार्ग से प्राप्त की गई प्रशंसा और कीर्ति चिरस्थायी तथा अमर होती है। बुद्ध और महावीर से लेकर गांधी, लिंकन, वाशिंगटन, लेनिन, पटेल आदि महामानवों ने इसी मार्ग का वरण किया है और प्रत्येक महत्त्वाकांक्षी को करना भी चाहिए।विपरीत परिस्थिति में सकारात्मक रहना श्रेष्ठ नेतृत्व का गुण है।युग निर्माण योजनामई, 2021