शरीर के भीतरी अंगों की सफाई
जिस प्रकार हम स्नान करके साबुन लगाकर, तौलिए से घिस कर शरीर के बाहरी भाग की सफाई कर डालते हैं, उसी प्रकार भीतरी अंगों की सफाई रहना भी परमावश्यक है । सच पूछा जाय तो गन्दगी हमारे शरीर के भीतर ही इकट्ठी रहती है और उसी का एक अंश पसीने तथा मैल के रूप में बाहर निकलता है, पर भीतर की सफाई कैसे हो यह सब लोग नहीं जानते । यों तो कहने के लिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने उद्देश्य की पूर्ति के लिए नेति, द्योति, वस्ति आदि हठयोग के षट्कमों का आविष्कार किया था, जिससे प्रत्येक भीतरी अंश को घोकर उसी प्रकार स्वच्छ कर लिया जाता है, जैसे हम शरीर के ऊपरी भाग को घोते हैं । पर ये विधियाँ योगियों द्वारा की जाती हैं, साधारण मनुष्यों के लिए सुविधाजनक नहीं मानी जातीं । यह भी संभव है कि अधिकांश व्यक्ति उनको ठीक ढंग से न कर सकें और लाभ के स्थान पर कुछ हानि उठा लें ।
इसलिए साधारण मनुष्यों के लिए भीतरी अंगों की सफाई का दूसरा तरीका निकाला गया है और वह है-उपवास । वास्तव में हमारे शारीरिक यंत्र का निर्माण परमात्मा ने ऐसे ढंग से किया है कि अगर उसे स्वाभाविक ढंग से रखा जाय और प्रकृति के अनुकूल आचरण करने दिया जाय तो वह स्वयं अपनी भीतरी अंगों की सफाई कर सकता है । पर वर्तमान समय में मनुष्य ने प्रकृति के आदेश को मानना छोड़कर कुत्रिम ढंगों से रहना आरम्भ कर दिया है l उसका आहार विहार अधिकांश में अस्वाभाविक हो गया है l इसलिए शरीरों मैं दूषित विकारों का अशं बढ़ जाता है । हमारी प्राण शक्ति इस विकार को हानिकारक समझकर बाहर निकालना चाहती है, पर हम नित्य प्रति दो-दो चार-चार बार भोजन करके उस पर बोझा पर बोझा लादते चले जाते हैं । इससे विवश होकर वह निष्क्रिय हो जाती है । उपवास करने से जब पेट खाली हो जाता है और पचाने के लिए शक्ति की आवश्यकता नहीं होती, तब वही शक्ति शारीरिक विकारों को बाहर निकाल कर भीतरी अंगों की सफाई का कार्य करने लगती है । इसीलिए शरीर शास्त्र वेत्ताओं ने कहा है कि यदि आप स्वास्थ्य, यौवन, जीवन का आनन्द, स्वतंत्रता या शक्ति चाहते हैं तो उपवास कीजिए । आपको सौन्दर्य, विश्वास, हिम्मत, गौरव सरीखी निधियाँ प्राप्त करने के लिए भी उपवास करना चाहिए । उपवास से मनुष्य की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी नैसर्गिक बुद्धि जगती है और वह प्रेम की विशालता का अनुभव कर पाता है ।
आन्तरिक विकारों के दुष्परिणाम
प्रायः जिस बात से शरीर में विकार तथा विविध व्याधियाँ उत्पन्न होती है, उनका प्रधान कारण शरीर का संचित मल है । हम अनाप-शनाप खाते हैं, अप्राकृतिक भोजन प्रयोग में लाते हैं, घर और कल-कारखानों या ऑफिसों में बन्द पड़े रहते हैं । अतः शरीर और अंतड़ियों में दूषित द्रव्य या मल जमा हो जाता है । यह संचित-मल कुछ दिनों तक तो पड़ा रहता है किन्तु बाद में रक्त को दूषित बना देता है, पाचन प्रणाली दोषयुक्त हो जाती है, मल विर्सन का कार्य करने वाले अवयव शिथिल हो जाते हैं, तब शरीर अन्तर्बाह्म रोगी व दुर्बल बन जाता है । ऐसी स्थिति मैं यह आवश्यक हो जाता है कि उदर को कुछ काल के लिए विश्रांति दी जाय ।
भोजन बन्द कर देने से रक्त स्वच्छ और विषाक्त नहीं होने पाता और अनेक रोग उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रहती । हमारे शरीर के ज्ञानतन्तुओं पर बहुत जोर नहीं पड़ता । अतः शरीर का बल बढ़ता है और ओज क्षीण नहीं होने पाता । बिना पचा हुआ जो भी अंश पेट में फालतू पड़ा रहता है, वह धीरे-धीरे पचता है, पेट की तोंद नहीं निकल पाती । डॉ. लिंडहार लिखते हैं-“उपवास में शरीर को, अन्दर एकत्र भोजन का उपयोग शुरू करना होता है, किन्तु इसके पूर्व शरीर की बहुत-सी गन्दगी और विष निकल जाते हैं । जब हम यह जान लेते हैं कि हमारी सारी की सारी पाचन प्रणाली, जो २६ फुट लम्बी होती है और जिसका आरम्भ मुख और अन्त गुदा द्वार है, ऐसी सेलों और ग्रंथियों से सुसज्जित है, जिनका काम गन्दगी निकालना है, तब लम्बे उपवास का शोधक प्रभाव अच्छी तरह समझ में आ जाता है ।
वास्तव में उपवास हमारे वर्षों के संचित मल को बाहर फेंक कर नई जीवन शक्ति फूँक देता है, शरीर की गन्दगी और विष उपवास काल में पिये गये जल द्वारा आसानी से निकलते रहते हैं । अनेक रोगियों को उपवास इसी कारण कराया जाता है, जिससे ऑँतों की श्लैष्मिक कला को संचित मल की सफाई का अवसर प्राप्त हो सके । जो पूरी सफाई चाहते हैं, वे किसी प्राकृतिक चिकित्सक की देखरेख में लम्बा उपवास करते हैं । यह संचित मल धीरे-धीरे निकलता है, पर सफाई होने के पश्चात् कब्ज पूरी तरह चला जाता है ।
उपवास से मानसिक पवित्रता
स्वास्थ्य, आरोग्यता, दीर्घायु के अतिरिक्त आध्यात्मिक दृष्टि से उपवास का विशेष महत्व है । शरीर की शुद्धि होने से मन पर भी प्रभाव पड़ता है । शरीर तथा मन दोनों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । जब हमारा पेट भरा होता है, तो दृष्टि भी मैली हो जाती है, मन में कुविचार आते हैं, दुर्बल वासनाएँ उदीप्त हो उठती हैं, मानसिक विकारों मेंअभिवद्धि होती है । राजसी भोजन से श्रृंगार रस की उत्पत्ति होती है और काम, क्रोध, रोगादि रिपु प्रबल हो उठते हैं । सम्पूर्ण पाप की जड़ अधिक भोजन, विशेष राजसी कामोत्तेजक भोजन करना है । पेट का विवेक, शान्ति, धर्मबुद्धि इस तत्व को ध्यान में रख हमारे पुरुष अतीत काल से उपवास को मानसिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य के लिए अपनाते रहे हैं । इस प्रकार के उपवासों में ईसा, मुहम्मद, महावीर के लम्बे उपवास सर्व विदित हैं । महात्मा गाँधी के उपवास इसी कोटि में आते हैं । महात्माजी ने जितने भी उपवास किए, सभी लगभग नैतिक ध्येय से किए ।
जब हमें भोजन, खान-पान से छुट्टी मिलती है और ये झंझट दूर हो जाते हैं, तब चित्त-वृत्ति अच्छी तरह उच्च विषयों पर एकाग्र हो पाती है । हमारी आंतरिक वृत्ति पवित्र एवं निर्दोप होती है । ब्रह्म में वृत्ति लीन करने के लिए उपवास सर्वोत्तम उपाय है । ऐसा प्रतीत होता है कि जिन व्यक्तियों ने ब्रह्मानन्द का वर्णन किया है वे अवश्य ही उपवास परायण रहे होंगे । उपवास के समय चिंतन तथा एकाग्रता बड़ी उत्तमता से कार्य करते हैं । उपवास काल का ज्ञान अधिक स्थाई और स्पष्ट होता है । ज्ञान प्रायः भोजन के बोझ से दब जाता है किन्तु भोजन से मुक्ति मिलने पर स्पष्ट, निर्विकार और स्थायी बनता है । गीता में कहा है-
विषया बिनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रस वर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तति ॥
उपवास में बहुत-सी नीच प्रवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं, अन्तर्दृष्टि पवित्र बनती है, वृत्तियाँ वश में रहती हैं, धर्म बुद्धि प्रबल बनती है, काम, क्रोघ, लोभ आदि षट्रिरिपु क्षीण पड़ जाते हैं, प्राणशक्ति का प्रबल प्रवाह हमारे हदय में बहने लगता है और शान्त रस उत्पन्न होता है। उपवास से इन्द्रियों का नर्तन, वृत्तियों का व्यर्थ इघर-उधर बहक जाना और एकाग्रता का अभाव दूर हो जाता है। ईश्वर पूजन, साधना तथा योग के चमत्कारों के लिए उपवास अमोघ औषधि है।
महात्मा गांधी जी ने उपवास के आध्यात्मिक पहलू पर बड़ा जोर दिया है । वे कहते हैं, “मैं तो सदा ही इसका पक्षपाती रहा हूँ , क्योंकि ब्रह्म परायण के लिए उपवास सदा सहायक है । ईश्वर और उपवास का गठजोड़-सा जान पड़ता है । खाऊपन (ठुंश- ठुंश कर भोजन करना ) और ईश्वर का परस्पर बैर है ।” सत्याग्रही के लिए उपवास अन्तिम उपाय है, उसका न चूकने वाला शस्त्र है । गाँधी जी इसे आग्नेय अस्त्र कहते हैं और उनका दावा है कि उन्होंने उसे वैज्ञानिक रूप दिया है । उपवास से मनुष्य की दैवी सम्पदाएँ विकसित हो उठती हैं, उसके मन में दैवी शक्ति आ जाती है, अतः इस आध्यात्मिक साघन के प्रयोग के बड़े चमत्कार प्रतीत होते हैं ।
उपवास का प्रयोग आत्म-विकास के लिए भी होता है । यदि हम से जानबूझकर कोई गलती हो जाय और बाद में मन में ग्लानि का अनुभव हो तो हमें अपने आप को सजा देनी चाहिए । अपने प्रत्येक दोष पर कमजोरी को दूर करने के लिए उपवास का प्रयोग हो सकता है । अपने दोषों को देखकर उनका निवारण करना आत्मोद्धार का अचूक उपाय है । महापुरुषों का वचन है-“जैसे पुरुष पर-दोषों का निरूपण करने में अति कुशल है, यदि वैसे ही अपने दोषों को देखने हो, तो ऐसा कौन है, जो संसार के कठोर बन्धन से मुक्त न हो जाय ।” प्रत्येक दोष पर उपवास कीजिए ।
“जब कभी आपके सन्मुख कोई उलझन उपस्थित होती है, तो आप उपवास क्यों कर बैठते हैं ।” यह प्रश्न महात्मा गाँधी जी से पूछा गया तो उन्होंने उपवास के आध्यात्मिक पहलू पर प्रकाश डालते हुए कहा था-
“इस प्रकार के प्रश्न मुझसे पहले भी किए गए हैं, किन्तु कदाचित् इन्हीं शब्दों में नहीं । इसका उत्तर सीधा और स्पष्ट है । अहिंसा के पुजारी के पास यही अन्तिम हथियार है । जब मानवी बुद्धि अपना कार्य न कर निरुपाय हो जाती है, तो अहिंसा का पथिक उपवास करता है । उपवास द्वारा शोधित शरीर से प्रार्थना की ओर चित्त-वृत्ति अधिक सूक्ष्मता और सत्यता से उन्मुख होती है अर्थात् उपवास एक आध्यात्मिक वस्तु है और उसकी मूल प्रवृत्ति ईश्वर की ओर होती है । मनुष्य को यदि यह यकीन हो जावे कि वह उचित और न्यायोचित है तो उसे उस कार्य को पूर्ण करने से कदापि नहीं रुकना चाहिए । इस प्रकार का आध्यात्मिक उपवास अन्तरात्मा की अन्तर्ध्वनि के उत्तर में किया जाता है, अतः उसमें जल्दबाजी का भय कम होता है ।
धार्मिक उपवास और आत्मा की पवित्रता
उपवास द्वारा मनुष्य की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी बुद्धि और विवेक जागृत होता है-यह देखकर ही हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने धर्म के अन्तर्गत उपवास को विशेष स्थान प्रदान किया है । इससे मनुष्य के मानसिक और वासनाजन्य विकार शान्त हो जाते हैं और विवेक तीव्र हो उठता है ।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक १५ दिन पश्चात् व्रत का विधान रक्खा गया है । एकादशी के अतिरिक्त प्रदोष और रविवार, भिन्न-भिन्न पुण्य तिथियों तथा पर्वों पर व्रत किया जाता है । हिन्दु धर्म में आन्तरिक शुद्धि के लिए व्रत प्रधान तत्व माना गया है । संख्या संसार के अन्य सब धर्मों से अधिक है । हमारे यहाँ निर्जल और चान्द्रायण आदि अनेक प्रकार के दूसरे उपवास भी हैं, किसी की मृत्यु पर लंघन करना, शोक मनाने का चिन्ह है । क्या प्रसन्नता, क्या क्लेश सभी में उपवास को प्रधानता दी गई है । जैन धर्म में लम्बे उपवासों पर आस्था है । जैन धर्म के ग्रन्थों में केवल नाना प्रकार के उपवासों का ही विधान नहीं, प्रत्युत बहुकाल व्यापी उपवासों का विधान है । जैनियों के उपवास सप्ताहों और महीनों तक चलते हैं । मिश्र मैं प्राचीन कल मैं कई धार्मिक पर्वों पर उपवास किया जाता था, किन्तु वह जन – साधारण के लिए अनिवार्य नहीं था । यहूदी अपने सातवें महीने के दसवें दिन उपवास रखते हैं । उनके धर्म में जो इस उपवास का उल्लंघन करता है वह दण्डनीय है । इसके अन्तर्गत प्रातः से सायंकाल तक निराहार रहना पड़ता है । ईसाई घर्म में तथा ईसा की पाँचवी शताब्दी से पूर्व महात्मा सुकरात ने उन दिनों यूनान में प्रचलित कितने ही उपवासों का जिक्र किया है । रोमन जाति के व्यक्ति ईस्टर से पूर्व तीन सप्ताहों में शनिवार और रविवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में उपवास किया करते थे । महात्मा ईसा ने स्वयं एक बार चालीस दिन और चालीस रात्रियों का उपवास किया था ।
योरोप में जब पापों का प्रभाव बढ़ा तो उपवासों को विशेष महत्व प्रदान किया गया । मुसलमान रमजान के महीने में अपने घर्म ग्रन्थों के अनुसार तीस दिन तक रोजे रखते हैं । प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्त्त में कुछ खाकर सूर्यास्त के फश्चात् रोजा टूटता है । तात्पर्य यह हैं कि सभी प्रधान धर्मों में उपवास को विशेष महत्व प्रदान किया गया है । सभी ने एक स्वर से उसकी उपयोगिता स्वीकार की है । उपवास से शरीर, मन तथा आत्मा पर लाभदायक प्रभाव को देखकर ही उसे घर्म के अन्तर्गत स्थान दिया गया है ।
भारत के प्राचीन ऋषियों की तपस्या का उपवास एक प्रधान अंग था । बड़े-बड़े धर्माचार्य स्वयं बहुत दिनों तक उपवास करके अपने अनुयायियों और भक्तों को उसका लाभ बतलाते थे और उनका स्वयं आदर्श बनते थे, पर आजकल जो लोग धार्मिक दृष्टि से उपवास करते हैं,प्रायः सभी देशों में उन्हें धर्माध बतलाया जाता है और उनकी हैँसी उड़ाई जाती है । इसका कारण यही है कि आजकल लोग प्राकृतिक नियमों से एकदम अनभिज्ञ हो मये हैं । जो लोग अन्न को ही प्राण समझते हैं, उन्हीं की आँखें खोलने के लिए उपवास के सिद्धान्तों का फिर से प्रचार होने लगा है । तात्पर्य यह है कि उपवास के दो प्रधान उद्देश्य हैं-(१ ) स्वच्छता, आन्तरिक विकारों, विजातीय द्व्यों, संचित विषों का निराकरण तथा (२) आष्यात्मिक उपयोग, नैतिक बुद्धि की जागृति, आत्मिक और मानसिक शुद्धि । उफ्वास न केवल शरीर शोधक है, प्रत्युत साथ-साथ आत्म-परिपोषक भी है ।
पवित्रता और मनोविकारों का सम्बन्ध
वैसे पवित्रता और स्वच्छता प्रधानतः एक शारीरिक कार्य माना जाता है, पर हमारे मनोविकारों से भी उसका बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहता है । देखने में तो सभी सांसारिक कार्य हमारी बाह्म इन्द्रियों, हाथ-पैरों द्वारा किए जाते हैं, मर जैसा हम सभी जानते हैं, इन्द्रियों का संचालन मन द्वारा ही होता है । हमारा मन ही भली-बुरी इच्छाएँ और अभिलाषाएँ किया करता है और उसका प्रभाव हमारे शरीर पर पूर्ण रूप से पड़ता है ।
कितने ही लोग यह ख्याल करते हैं कि काम, क्रोध, लोभ आदि मनोविकार केवल आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, भौतिक बातों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता, पर यह विचार ठीक नहीं । परमात्मा ने मनुष्य की जिस प्रकार रचना की है उसमें भौतिक और आध्यात्मिक पहलुओं में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । भौतिक विभाग में खराबी आने से उसका प्रभाव आध्यात्मिक जीवन पर अवश्य पड़ेगा और आध्यात्मिक दोषों के उत्पन्न होने से भौतिक जीवन में भी अव्यवस्था और बुराइयों का उत्पन्न हो जाना अनिवार्य है । हमारे काम, क्रोधादि एक प्रकार केवास्तविक विष हैं, जो मन में प्रवेश करके वहाँ अपना अड्डा जमा लेते हैं और हमारे भीतरी शारीरिक अंगों को गन्दा बना डालते हैं । ये विष अपने काले घुएँ से शरीर की धातुओं को विषैला बनाकर उन्हें रोगों का केन्द्र बना देते हैं ।
यदि इन विकारों को हटाकर जीवन प्रसन्नता, प्रेम, सौन्दर्य और पवित्रता के भावों से भर लिया जाय तो मनुष्य बहुत ही अल्प समय में पूर्ण स्वस्थ बन सकता है और यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं कि स्वास्थ्य ही सौन्दर्य है, एक ही वस्तु के यह दो पहलू हैं ।
काम वासना विकार
नर और मादा में लौह-चुम्बक जैसा स्वाभाविक आकर्षण होने के कारण दोनों जोड़े से रहना पसन्द करते हैं । जो पशु-पक्षी जितने ही विकसित होते जाते हैं, वे यौन-आकर्षण को अनुभव करते हैं और साथ-साथ रहते हैं । चकवा, सारस, कबूतर, तीतर, बत्तक, राजहंस आदि पक्षी और सिंह, हिरण, भेड़िया आदि पशु एवं साँप, मगर जैसे जीव जन्तु जोड़े से रहते हैं । जो नियमित जोड़ा चुनना नहीं जानते, वे भी समय-समय पर यौन आकर्षण के अनुसार आकर्षित होते रहते हैं और विपरीत योनि के साथ रहना पसन्द करते हैं । प्रजा की उत्पत्ति के कार्य को प्राणी भूल न जाय इसलिए प्रकृति ने उसमें एक विशेष आनन्द का भी समावेश कर दिया है । इस प्रकार विकसित जीव- जन्तु जोड़े से रहना चाहते हैं, तदनुसार मनुष्य भी चाहता है । इस आकर्षण को प्रेम पुकारा जाता है । यही रस्सी नर मादा को साथ-साथ रहने के नाम के लिए आपस में बँधे रहती है । तरुण पुरुष विवाह की इच्छा करे तो यह उसका शारीरिक धर्म है, इसमें हानि कुछ नहीं, लाभ ही है ।
जोड़े से रहना बुरा नहीं है परन्तु प्रेम की स्वाभाविक शक्ति और गर्भाघान क्रिया के तात्कालिक आनन्द, इन दोनों सात्विक वस्तुओं को जब हम काम वासना के बुरे रूप में परिणति कर देते हैं तो वह शरीर के लिए बहुत ही खतरनाक वस्तु बन जाती है । जैसे भूख स्वाभाविक है और मधुर भोजन करना भी स्वाभाविक है, किन्तु इन प्राकृतिक क्रियाओं को विकृत करके जो मनुष्य चटोरा बन जाता है, दिन भर तरह-तरह के भोजन का ही चिन्तन करता है । थोड़ी योड़ी देर पर चाट पकौड़ी, मिठाई, खटाई, चाटता रहता है, उसकी यह विकृत आदत ही उसके सर्वनाश का कारण बन जाती है । पेट खराब होने से वह बीमार पड़ता है और शक्तिहीन होकर बहुत जल्द मर जाता है । इसी प्रकार यौन आकर्षण की स्वाभाविक क्रिया को जब कामाग्नि के रूप में परिणत कर दिया जाता है तो यह शरीर को जलाकर भस्म कर देती है । दिन भर पंखा चलाने वाली, रात भर रोशनी करने वाली, आपको सब प्रकार का सुख देने वाली, बिजली भी जब अनुचित रीति से छू ली जाती है तो वह एक झटके में ही प्राण ले लेती है ।
काम शक्ति, जीवन शक्ति का एक चिन्ह है, किन्तु उसका निर्धारित अवसर पर ही प्रयोग करना चाहिए । प्राकृतिक नियम यह है जब मादा को गर्भ धारण करने की तीव्र इच्छा हो तो नर के पास गमन करे । यही काम तृप्ति की मर्यादा है । किन्तु आजकल तो जिह्वा के चटोरपन और इन्द्रियों की लिप्सा को तृप्त करना मनुष्यों का जीवनोद्देश्य बन गया l अमर्यादित कामोत्तेजना एक प्रकार की प्रत्यक्ष अग्नि है । कामुकता के भाव उदय होते ही शरीर की गर्मी बढ़ जाती है । श्वास गरम आने लगती है । त्वचा का तापमान बढ़ जाता है । रक्त का वेग तीब्र हो जाता है । इस गर्मी के दाह से कुछ धातुएँ पिघलने और कुछ जलने लगती हैं । शरीर के कुछ सत्व पिघल कर मूत्र के साथ अवित होने लगते हैं । देखा जाता है कि कामुक व्यक्तियों के पेशाब का रंग पीला होता है, क्योंकि उनमें पित्त, क्षार, शर्करा आदि शरीरोपयोगी वस्तुएँ मिल जाती हैं, कभी-कभी उनका पेशाब अधिक चिकना, गाढ़ा, सफेदी लिए और लसदार होता है, इसमें चर्बी, एल्ब्यूमिन, हड्डियों का सार भाग आदि मिल जाता है । जब अधिक गरम पेशाब आता है, तो उसमें कई फास्फोरस और लोह – सत्व जैसी अमूल्य वस्तुएँ मिली रहती हैं । इस तरह कामाग्नि से शरीर के रस पिघल-पिघल कर नीचे बहते रहते हैं और देह खोखली होती जाती है । त्वचा, स्नायु, तन्तु, पेशियाँ और अस्थि पिंजर उस अग्नि से जलने लगते हैं और वे मामूली रोगों से बचने की भी शक्ति को खो बैठते हैं ।
उष्णता के कारण पकी हुई चमड़ी खुरदरी, काली और सूखी, निस्तेज हो जाती है । निकट से देखने पर उसका शरीर बिलकुल रूखा और मुर्दापन लिए हुए देखा जा सकता है । लकवा, गठिया, कम्प आदि बात सम्बन्धी रोग अक्सर अति मैथुन से होते हैं, यह अग्नि मस्तिष्क के लिए तो सबसे अधिक घातक हैं । स्मरण शक्ति और निश्चयात्मक शक्ति का भी लोप होने लगता है । ऐसे खण्डहर मस्तिष्क में हीन विचारों के चमगादड़ आकर इकट्ठे होने लगते हैं । यह हीन विचार उसे उद्विग्न कर देते हैं और कभी-कभी तो घर से भागकर भिखारी बन जाना, पागलपन, मद्य सेवन एवं आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों तक ले पहुँचते हैं । कामुकता का निश्चित परिणाम आसक्ति है । निर्बलता या कमजोरी साथ में अपना एक बड़ा कुटुम्ब लेकर आती है । उसके यह बाल बच्चे शरीर के जिस कोने में जगह पाते हैं, उसी में डेरा डाल लेते हैं । सिर में दर्द, रीढ़ में दर्द, पैरों में भड़कन, आँखों तले अन्धेरा, भूख न लगना, उदासीनता, निराशा, मुँह कडुवा रहना, दस्त साफ न होना कफ गिरना, दाँतों का दर्द, खुश्की, जलन, निद्रा की कमी, यह सब रोग कमजोरी के बाल-बच्चे हैं । यह अपनी माता के साथ रहते हैं । कोई दवा-दारू इन्हें हटा नहीं सकती । दुषित काम वासना केवल शारीरिक निर्बलता ही उत्पन्न नहीं करती वरनु ऐसे गर्दे रोगों को भी पैदा करती है जो शारीरिक पवित्रता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देते हैं ।
क्रोध के भयंकर परिणाम
डॉक्टर अरोली और कैनन ने अनेक परीक्षणों के बाद यह घोषित कर दिया है कि क्रोध के कारण अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाली रक्त की विषैली शर्करा हाजमा बिगाड़ने के लिए सबसे अधिक भयानक है । आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्वास्थ्य निरीक्षक डा. – हेमन वर्ग ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है-एक बार परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों में अधिकांश चिड़चिड़े मिजाज के थे । पागलखानों की रिपोर्ट बताती है कि ‘क्रोध को लेकर सोना अपनी बगल में जहरीले साँप को लेकर सोना है । सचमुच क्रोध की भयंकरता सब दृष्टियों से बहुत अधिक है ।
इस महाव्याधि का शरीर और मन पर जो दूषित असर होता है, वह जीवन को पूरी तरह असफल बना देता है, अशान्ति, आशंका, आवेश उसे घेरे रहते हैं । पास पड़ौसियों की दृष्टि में वह घृणा का पात्र बन जाता है । गृह-कलह छिड़ा रहता है । प्रसिद्ध दार्शनिक सोना कहते हैं-“क्रोध शराब की तरह मनुष्य को विचार शून्य, दुर्बल एवं लकवे की तरह शक्तिहीन बना देता है । दुर्भाग्य की तरह यह जिसके पीछे पड जाता है, उसका सर्वनाश करके ही छोड़ता है । डॉक्टर पूनमचन्द खत्री का कथन है कि-“क्रोघ का मानसिक रोग किसी शारीरिक रोग से कम नहीं है । दमा, यकृति-वृद्धि, गठिया, आम रोग जिस प्रकार आदमी को घुला-घुला कर मार डालते हैं, उसी प्रकार क्रोध का कार्य होता है । कुछ ही दिनों में क्रोधी के शरीर में कई प्रकार के विष उत्पन्न हो जाते हैं, जिनकी तीक्ष्णता से भीतरी अवयव गलने लगते हैं ।”
न्यूयार्क के वैज्ञानिकों ने परीक्षा करने के लिए गुस्से में भरे हुए मनुष्य का कुछ बूँद खून लेकर पिचकारी द्वारा खरगोश के शरीर में पहुँचाया । नतीजा यह हुआ के बाईस मिनट बाद खरगोश आदमियों को काटने दौड़ने लगा । पैंतीसवें मिनट पर उसने अपने आप को काटना शुरू कर दिया और एक घण्टे के अंदर पैर पटक-पटक केर मर गया । क्रोध के कारण उत्पन्न होने वाली विषैली शकर खून को बहुत अशुद्ध कर देती है । अशुध्त्ता के कारण चेहरा और सारा शरीर पीला पड़ जाता है । पाचन शक्ति बिगड़ जाती है । नसें खिंचती हैं एवं गर्मी, खुश्की का प्रकोप रहने लगता है । सिर का भारीपन, आँखों तले अन्धेरा, कमर में दर्द, पेशाब का पीलापन, क्रोध जन्य उपद्रव हैं । अन्य अनेक प्रकार की व्याधियाँ उसके पीछे पड़ जाती हैं । एक अच्छी होती है तो दूसरी उठ खड़ी होती है और रात – दिन क्षीण होकर मनुष्य अल्पकाल में ही काल के गाल में चला जाता है ।
क्रोघ एक भयंकर विषधर है । जिसने अपनी आस्तीन में इस साँप को पाल रखा है, उसका ईश्वर ही रक्षक है । एक प्राचीन नीतिकार का कथन है कि “जिसने क्रोध की अग्नि अपने हृदय में प्रज्ज्वलित कर रखी है, उसे चिता से क्या प्रयोजन ? अर्थात् वह तो बिना चिता के ही जल जायगा । ऐसी महाव्याधि से दूर रहना ही कल्याणकारी है, जिन्हें क्रोध की बीमारी नहीं है, उन्हें पहले से ही सावधान होकर इससे दूर रहना चाहिए और जो इसके चंगुल में फँस चुके हैं, उन्हें पीछा छुडाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए ।
क्रोध का कारण प्रायः हमारा झूठा अहंकार या अज्ञान होता है । “प्रत्येक व्यक्ति हो हमारी आज्ञा या बात माननी चाहिए ।” इस दूषित भावना के कारण प्रायः क्रोध भड़का करता है । इसके लिए हमको सदैव अपनी वास्तविक स्थिति पर विचार करके चित्त को शान्त करने का अभ्यास करना चाहिए । प्रतिज्ञा कर लीजिए कि “अपने दुश्मन क्रोध को पास न फटकने दूँगा । जब आवेगा तभी उसका प्रतिकार करूँगा |” हो सके तो इन शब्दों को लिख कर किसी ऐसे स्थान पर टाँग लीजिए, जहाँ दिन भर निगाह पड़ती रहे । जब क्रोध आवे, तभी अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करना चाहिए एवं कुछ देर के लिए चुप्पी साध लेनी चाहिए । क्रोध के सम्य ठण्डे पानी का एक गिलास पीना आयुर्वेदीय चिकित्सा है । इससे मस्तिष्क और शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शान्त हो जाती है । एक विद्वान का मत है कि जिस स्थान पर क्रोध आवे, वहाँ से उठकर कहीं चले जाना या किसी और कामं में लग जाना अच्छा है । इससे मन की दशा बदल जाती है और चित्त का झुकाव दूसरी ओर हो जाता है । एक योगाभ्यासी सज्जन बताते हैं कि क्रोध आते ही गायत्री मन्त्र का जप करने लगना अनुभूत और परीक्षित प्रयोग है । इन उपायों से आप क्रोध को भगाकर अपने मन को पवित्र बना सकेंगे ।
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य