प्रत्येक परिस्थिति में आगे बढ़िए
मनुष्य जीवन उन्नति करने के लिए है। कहने के लिए संसार में शेर, हाथी, सर्प आदि मनुष्य से कहीं अधिक शक्तिशाली प्राणी मौजूद हैं, पर अन्य किसी प्राणी में वह विवेक शक्ति नहीं पाई जाती जिससे भलाई-बुराई, लाभ-हानि का निर्णय करके उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सके। संसार के अन्य समस्त प्राणी प्रकृति द्वारा निर्मित एक छोटे से दायरे में ही जीवन-यापन करते हैं। यह विशेषता केवल मनुष्य को ही प्राप्त है कि वह इच्छानुसार नये-नये मार्ग खोजकर अगम्य स्थलों पर जा पहुँचता है और महत्त्वपूर्ण कार्यों को संपादित करता है । जो लोग ऐसी श्रेष्ठ मनुष्य-योनि को पाकर भी उन्नति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ते, वे वास्तव में बड़े अभागे हैं।
अगर मुझे अमुक सुविधाएँ मिलती तो मैं ऐसा करता’ इस प्रकार की बातें करने वाले एक झूठी आत्मप्रवंचना किया करते हैं । अपनी नालायकी को भाग्य के ऊपर, ईश्वर के ऊपर थोपकर खुद निर्दोष बनना तो हमारी चाहते हैं। यह एक असंभव मांग है कि यदि मुझे अमुक परिस्थिति मिलती तो ऐसा करता। जैसी परिस्थिति की कल्पना की जा रही है यदि वैसी मिल जाए तो वे भी अपूर्ण मालूम पड़ेंगी और उससे अच्छी स्थिति का अभाव प्रतीत होगा। जिन लोगों को धन, विद्या, मित्र, पद आदि पर्याप्त मात्रा में मिले हुए हैं, देखते हैं कि उनमें से भी अनेकों का जीवन बहुत अस्तव्यस्त और असंतोषजनक स्थिति में पड़ा हुआ का होना उनके आनंद की वृद्धि न कर सका वरन जी का जंजाल बन गया। जो सर्पविद्या नहीं जानता उसके पास बहुत साँप होना भी खतरनाक है। जिसे जीवन-कला का ज्ञान नहीं, उसे गरीबी में अभावग्रस्त अवस्था में थोड़ा-बहुत आनंद तब भी है, यदि वह संपन्न होता तो उन संपत्तियों दुरुपयोग करके अपने को और भी अधिक विपत्तिग्रस्त बना लेता।
यदि आपके पास आज मनचाही वस्तुएँ नहीं हैं, तो निराश होने की कुछ आवश्यकता नहीं है। टूटी-फूटी चीजें हैं उन्हीं की सहायता से अपनी कला को प्रदर्शित करना प्रारंभ कर दीजिए । जब चारों ओर घोर घना अंधकार छाया हुआ होता है तो वह दीपक जिसमें छदाम का दिया, आधे पैसे का तेल और दमड़ी की बत्ती है -कुल मिलाकर एक पैसे की भी पूँजी नहीं है – चमकता है और अपने प्रकाश से लोगों के रुके हुए कामों को चालू कर देता है। जबकि हजारों के मूल्य वाली वस्तुएँ चुपचाप पड़ी होती हैं, यह एक पैसे की पूँजी वाला दीपक प्रकाशवान होता है, अपनी महत्ता प्रकट करता है, लोगों का प्यारा बनता है, प्रशंसित होता है और अपने अस्तित्व को धन्य बनाता है। क्या दीपक ने कभी ऐसा रोना रोया कि मेरे आकार होता तो ऐसा बड़ा प्रकाश करता? दीपक को कर्महीन नालायकों की भाँति बेकार- शेखचिल्लियों के से मनसूबे बाँधने की फुरसत नहीं है, वह अपनी आज की परिस्थिति, हैसियत, औकात को देखता है, उसका आदर करता है और अपनी केवल मात्र एक पैसे की पूँजी से कार्य आरंभ कर देता है। उसका कार्य छोटा है बेशक, पर उस छोटेपन में भी सफलता का उतना ही अंश है जितना कि सूर्य और चंद्र के चमकने की सफलता में है। यदि आंतरिक संतोष, धर्म, मर्यादा और परोपकार की दृष्टि से तुलना की जाए तो अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार दोनों का ही कार्य एकसा है। दोनों का ही महत्त्व समान है, दोनों की सफलता एकसी है।
सच बात तो यह है कि अभावग्रस्त और कठिनाइयों में पले हुए, साधनहीन व्यक्ति ही संसार के नेता, महात्मा, महापुरुष, सफल जीवन, मुक्तिपथगामी हुए हैं। कारण यह है कि विपरीत परिस्थितियों से टकराने पर मनुष्य की अंत:प्रतिभा जाग्रत होती है, सुप्त शक्तियों का विकास होता है। पत्थर पर रगड़ खाने वाला चाकू तेज होता है और वह अपने काम में अधिक कारगर साबित होता है, उसका स्वभाव, अनुभव और दिमाग मँजकर साफ हो जाता है जिससे आगे बढने में उसे बहुत सफलता मिलती है। इसके विपरीत जो लोग अमीर और साधन संपन्न घरों में पैदा होते हैं उन्हें जीवन की आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त करने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता। लाड़, दुलार, ऐश, आराम के कारण उनकी प्रतिभा निखरती नहीं, वरन बंद पानी की तरह सड़ जाती है, यह निष्क्रिय चाकू की तरह जंग लगकर निकम्मी हो जाती है। आमतौर पर आजकल ऐसा देखा जाता है कि अमीरों के लड़के अपने जीवन में असफल रहते हैं और गरीबों के लड़के आगे चलकर चमक जाते हैं। पुराने जमाने में राजा -रईस अपने लड़कों को ॠषियों के आश्रम में इसलिए भेज देते थे कि वहाँ रहकर अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करें और अपनी प्रतिभा को तीव्र बनावें ।
हमारा उद्देश्य यह कहने का नहीं है कि अमीरी कोई बुरी चीज है और अमीरों के घर में पैदा होने वाले उन्नत जीवन नहीं बिता सकते । जहाँ साधन हैं वहाँ तो और भी जल्दी उन्नति होनी चाहिए । बढ़ई के पास बढ़िया लकड़ी और अच्छे औजार हों, तब तो वह बहुत ही सुंदर फर्नीचर तैयार करेगा, यह तो निश्चित है। हमारा तात्पर्य केवल यह कहने का है कि यदि जिंदगी जीने की कला आती हो, तो अभाव, कठिनाई या विपरीत परिस्थिति भी कुछ बाधा नहीं डाल सकती। गरीबी या कठिनाई में साधनों की कमी का दोष है तो प्रतिभा को चमकाने का गुण भी है। अमीरी में साधनों की बाहुल्यता है तो लाड़-दुलार और ऐश आराम के कारण प्रतिभा के कुंद हो जाने का दोष भी है । दोनों ही गुण -दोषयुक्त हैं। किंतु जो जीवन जीना जानता है, वह चाहे अमीर हो या गरीब, अच्छी परिस्थितियों में हो या कठिनाइयों में पड़ा हो, कुछ भी क्यों न हो, हर एक स्थिति में अनुकूलता पैदा कर सकता है और हर अवस्था में उन्नति, सफलता तथा आनंद प्राप्त कर सकता है।
आनंदमय जीवन बिताने के लिए धन, विद्या, अच्छा सहयोग, स्वास्थ्य आदि की आवश्यकता है। परंतु ऐसा न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के होने से ही जीवन आनंदमय बन सकता है। एक अच्छी पुस्तक लिखने के लिए कागज, दवात, कलम की आवश्यकता है परंतु इन तीनों के इकट्ठे हो जाने से ही पुस्तक तैयार नहीं हो सकती, बुद्धिमान लेखक ही उत्तम पुस्तक के निर्माण में प्रमुख है, दवात, कलम, कागज तो एक गौण और छोटी वस्तु है। जिसे पुस्तक लिखने की योग्यता है उसका काम रुका न रहेगा, इन वस्तुओं को वह बहुत ही आसानी से इकट्ठी कर लेगा। आज तक एक भी घटना किसी ने ऐसी न सुनी होगी कि अमुक लेखक इसलिए रचनाएँ न कर सका कि उसकी दवात में स्याही न थी । अगर कोई लेखक यों कहें- ” क्या करू साहब मेरे पास कलम ही न थी, यदि कलम होती तो बहुत बढ़िया ग्रंथ लिख देता।” तो उसकी इस बात पर कोई विश्वास न करेगा भला कलम भी कोई ऐसी दुष्प्राप्य वस्तु है। जिसे लेखक प्राप्त न कर सके। एक कहावत है “नाच न जाने ऑगन टेढ़ा।” जिसे नाचना नहीं आता वह अपनी अयोग्यता को यह कहकर छिपाता है कि क्या करू आँगन टेढ़ा है। टेढ़ा ही सही, जिसे नाचना आता है उसके लिए टेढ़ेपन के कारण कुछ विशेष अडचन पड़ने की कोई बात नहीं है। इसी प्रकार जो जीवन की विद्या जानता है उसे साधनों का अभाव और विपरीत परिस्थितियों की शिकायत करने की कोई बात नहीं है । साधनों की आवश्यकता है, बेशक, परंतु इतनी नहीं कि उनके बिना प्रगति ही न हो सके।
चतुर पुरुष विपरीतता में अनुकूलता पैदा कर लेते हैं, विष को अमृत बना लेते हैं। संखिया, कुचला, धतूरा, पारा, गुग्गुल, हरताल आदि प्राणघातक विषों से लोग रोगनाशक, आयुवर्द्धक, रसायनें बनाते हैं । बाल में से चाँदी, कोयले में से हीरा निकालते हैं । सर्पों की विषथैली में से मणि प्राप्त करते हैं, धरती की शुष्क और कठोर तह को खोदकर शीतल जल निकालते हैं, गरजते समुद्र के पेट में घुसकर मोती लाते हैं। दृष्टि पसारकर देखिए आपको चारों ओर ऐसे कलाकार बिखरे हुए दिखाई पड़ेंगे, जो तुच्छ चीजों की सहायता से बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं, ऐसे वीर पुरुषों की कमी नहीं है जो वज्र जैसी निष्ठुर परिस्थिति में प्रवेश करके विजयलक्ष्मी का वरण करते हैं। यदि आपकी इच्छाशक्ति जरा वजनदार हो तो आप भी इन्हीं कलाकारों और वीर पुरुषों की श्रेणी में सम्मिलित होकर अपनी आज की सारी शिकायतें, चिंताएँ, विवशताएँ आसानी के साथ संतोष, आशा और समर्थता में बदल सकते हैं।
आपत्तियों से चिंतित न हों
अनेक व्यक्ति आपत्तियों से इतने भयभीत रहते हैं कि वे तरह-तरह की सच्ची और झूठी आपत्तियों की कल्पना करके अपने जीवन को चिंताग्रस्त बना लेते हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो भूतकाल की गुजरी हुई घटनाओं और भविष्यकाल की भली-बुरी संभावनाओं के लिए व्याकुल होना निरर्थक है। पर ये व्यक्ति प्राय: वर्तमान का ख्याल छोड़कर पुरानी घटनाओं का ही रोना रोया करते हैं अथवा भविष्यकाल में आने वाली संभावित कठिनाइयों की कल्पना करके डरते रहते हैं । ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ बुद्धिहीनता और डरपोकपन की परिचायक हैं। पुरानी या नई, कैसी भी आपत्तियों के कारण चिंता करना सब तरह से हानिकारक है । इसमें हमारी बहुत-सी शक्ति व्यर्थ ही नष्ट हो जाती है और हम अपने सम्मुख उपस्थित वास्तविक समस्याओं को हल करने में भी असमर्थ हो जाते हैं ।
चिंता, मन में केंद्रीभूत नाना दुःखद स्मृतियाँ तथा भावी भय की आशंका से उत्पन्न मानवमात्र का सर्वनाश करने वाला उसकी मानसिक शारीरिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का ह्रास करने वाला दुष्ट मनोविकार है। एक बार इस मानसिक व्याधि के रोगी बन जाने से मनुष्य कठिनता से इससे मुक्ति पा सके हैं, क्योंकि अधिक देर तक रहने के कारण यह गुप्त मन में एक जटिल मानसिक भावना ग्रंथि के रूप में प्रस्तुत रहता है । वहीं से हमारी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को परिचालित करता आदत बन जाने से चिंता नैराश्य का रूप ग्रहण कर लेती है । ऐसा व्यक्ति निराशावादी हो उठता है। उसका संपूर्ण जीवन नीरस, निरुत्साह और असफलताओं से परिपूर्ण हो उठता है।
चिंता का प्रभाव संक्रामक रोग की भाँति विषैला है। जब हम चिंतित व्यक्ति के संपर्क में रहते हैं, तो हम भी निराशा के तत्त्व खींचते हैं और अपना जीवन निरुत्साह से परिपूर्ण कर लेते हैं। बहुत से व्यक्ति कहा करते हैं-” भाई अब हम थक गए, बेकाम हो गए। अब परमात्मा हमें सँभाल ले तो अच्छा है।” वे इसी रोने को रोते रहते हैं-“हम बड़े अभागे हैं, बदनसीब हैं, हमारा भाग्य फूट गया है, दैव हमारे प्रतिकूल है, हम दीन हैं गरीब हैं । हमने सर तोड़ परिश्रम किया परंतु भाग्य ने साथ नहीं दिया।” ऐसी चिंता करने वाले व्यक्ति यह नहीं जानते कि इस तरह का रोना रोने से हम अपने हाथ से अपने भाग्य को फोड़ते हैं, उन्नति रूपी कौमुदी को काले बादलों से ढँक लेते हैं।
एक सुप्रसिद्ध विद्वान का कथन है- ” आपके जीवन में नाना पुरानी दुःखद, कटु, चुभने वाली स्मृतियाँ दबी हुईं पड़ी हैं। उनमें नाना प्रकार की बेवकूफियाँ, अशिष्टताएँ, मूर्खता से युक्त कार्य भरे पड़े हैं। अपने मन-मंदिर के किवाड़ उनके लिए बंद कर दीजिए । उनकी दु:ख भरी पीड़ा, वेदना, हाहाकार की काली परछांई वर्तमान जीवन पर मत आने दीजिए । इस मन के कमरे में इन मृतकों को, भूतकाल के मुरदों को दफना दीजिए । इसी प्रकार मन का वह कमरा बंद कर दीजिए जिसमें भविष्य के लिए मिथ्या भय , शंकाएँ,निराशापूर्ण कल्पनाएँ एकत्रित हैं। इस अजन्मे भविष्य को भी मन की कोठरी में दृढ़ता से बंद कर दीजिए। मरे हुए अतीत को अपने मुरदे दफनाने दीजिए । आज तो ‘आज’ की परवाह कीजिए। आज’ यह मदमाता, उल्लासपूर्ण *आज’ आपकी अमूल्य निधि है। यह आपके पास है। आपका साथी है । ‘आज’ की प्रतिष्ठा कीजिए। उससे खूब खेलिए, कूदिए और मस्त रहिए और उसे अधिक से अधिक उल्लासपूर्ण बनाइए । ‘ आज ‘ जीवित चीज है । ‘आज’ में वह शक्ति है, जो दु:खद कल को भुलाकर भविष्य के मिथ्या भयों को नष्ट कर सकता है।”
इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि भविष्य के लिए कुछ न सोचें, या न विचारें? नहीं, कदापि नहीं । इसका तात्पर्य यही है कि आगे आने वाले ‘कल’ के लिए, व्यर्थ ही चिंता करने से काम न चलेगा, वरन अपनी समस्त बुद्धि, कौशल, युक्ति और उत्साह से आज का कार्य सर्वोत्कृष्ट रूप में संपन्न करने से चलेगा यदि हम ‘आज’ का कार्य कर्त्तव्य समझकर संपूर्ण एकाग्रता और लगन से पूर्ण करते हैं, तो हमें ‘कल’ की (भविष्य की) चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार आप उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं ।
ईसाइयों में प्रार्थना का एक अंश इस प्रकार है,”हे प्रभु! हमें आज का भोजन दीजिए। हमें आज समृद्ध कीजिए ।” स्मरण रखिए, प्रार्थना का तात्पर्य है कि आज’ हमें भोजन, आनंद, समृद्धि प्राप्त हो । इसमें न तो बीते हुए कल के लिए शिकायत है और न आने वाले ‘ कल’ के लिए याचना का भय। यह प्रार्थना हमें ‘आज’ (वर्तमान) का महत्त्व स्पष्ट करती है । यदि हम आज को आदर्श रूप में अधिकतम आनंद से व्यतीत कर लें तो हमारा भावी जीवन स्वयं समुन्नत हो सकेगा। सैकड़ों वर्ष पूर्व एक निर्धन दर्शनवेत्ता ऐसे पर्वतीय प्रदेश में घूम रहा था, जहाँ लोग कठिनता से जीविकोपार्जन कर पाते थे। एक दिन उसने उन्हें एकत्रित किया और एक लघु भाषण में कहा-‘कल’ की चिंताओं में निमग्न आत्माओ! कल के भय, चिंताओं और अंधकार में क्यों इस सुनहरे वर्तमान को नष्ट कर रहे हो ? कल स्वयं अपनी चिंता करेगा। यदि तुम आज को अधिकाधिक आनंद, संतोष और आदर्श रूप में व्यतीत कर सको तो उत्तम है। परमेश्वर स्वयं तुम्हारे भविष्य को समुन्नत करने में प्रयत्नशील है।”
महापुरुष ईसा ने कहा है-” कल की चिंता मत करो ।” पर इसका वास्तविक मर्म बहुत कम लोग समझते हैं। आप कहेंगे कल की चिंता कैसे न करें? हमारा परिवार है, हमारे बच्चों की शिक्षा, वस्त्र, भोजन, मकान की विषम समस्याएँ हैं ? कल हमें उनके विवाह करने हैं ? क्या रुपया एकत्रित किए बिना काम चलेगा ? हमें बीमा पॉलिसी में रुपया जोड़ना चाहिए? हमारी आज नौकरी लगी है, कल छूट भी सकती है, आज हम स्वस्थ हैं, कल बीमार पड़ेंगे तो कैसे काम चलेगा ? वृद्धावस्था में हमारा क्या होगा?
इस प्रकार की बातें ठीक हैं। एक विचारशील मस्तिष्क में ये विचार आने चाहिए। हमारा सुझाव है कि आप ‘कल’ के लिए अपने आप को शक्तिशाली बनाने के लिए, योग्यतर, स्वस्थ, आर्थिक दृष्टि से संपन्न होने के लिए नई योजनाओं को कार्यान्वित करें। भावी जीवन के लिए जितना संभव हो तैयारी कीजिए, परिश्रम, उद्योग, मिलनसारी द्वारा समाज में अपना स्थान बनाइए, पर चिंता न कीजिए। योजना बनाकर दूरदर्शितापूर्ण कार्य करना एक बात है, चिंता करना दूसरी बात है। चिंता से क्या हाथ आवेगा? जो रही सही शक्ति और मानसिक संतुलन है, वह भी नष्ट हो जाएगा । चिंता तो आपको उत्साह, शक्ति और प्रसन्नता से पंगु कर देगी । जिस कठिनाई या प्रतिरोध को आप अपनी व्यक्तिगत शक्तियों से बखूबी जीत सकते थे, वह पर्वत सदृश कठिन प्रतीत होगी। चिंता आपके सामने एक ऐसा अंधकार उत्पन्न करेगी, कि आपको उस महान शक्तिकेंद्र का ज्ञान न रह जाएगा जो आदिकर्त्ता परमेश्वर ने आपके अंग-प्रत्यंग में छिपा रखा है ।
युद्ध, बीमारी, दिवाला या दुःखद मृत्यु के अंधकारपूर्ण रुदन में, शुभ चिंतन और अशुभ चिंतन में केवल यह अंतर है- अच्छा विचार वह है जो कार्य-कारण के फल को तर्क की कसौटी पर परखता है, दूर की देखता है और किस कार्य से भविष्य में क्या फल होगा, इसका संबंध देखकर भावी उन्नति की योजनाएँ निर्माण करता है। सृजनात्मक विचार भावी निर्माण में पुरानी गलतियों की सजा के अनुभवों और संसार की कठोरताओं को देख-भाल कर अपनी उन्नति के लिए योजना प्रदान करता | अच्छे चिंतन में संग्रहित सांसारिक अनुभवों के बल पर उत्साह और आशा का शुभ्र आलोक है, कार्यनिष्ठा और साहस का बल है, शक्ति और कुशलता का पावन योग है, कार्य से भागकर नहीं, वरन गुत्थियों को सुलझाकर अपूर्व सहनशक्ति का परिचय देने का विधान है ।
बुरी विचारधारा का प्रारंभ ही डर और घबराहट से होता है । कठिनाइयाँ आ रही हैं, हमें वह कार्य करना ही पड़ेगा, जो साधारणत: हमने नहीं किया है, पैसा और शक्ति पास में नहीं रहेगी, फिर क्या किया जाएगा –ऐसी फालतू गलत कल्पनाएँ आकर शक्ति और उत्साह का विनाश कर देती हैं। मानसिक संतुलन नष्ट हो जाता है । इच्छाशक्ति और मनोबल पिछली गलतियों की स्मृति और वेदनाओं से नष्ट या पंगु हो जाता है। पश्चात्ताप एवं आत्मग्लानि के अंधकार में ऐसा व्यक्ति रही सही शक्ति को भी खो बैठता । यह गलत कल्पनाएँ चिंता जैसी राक्षसी की ही संताने हैं।
आजकल पागलखानों तथा शफाखानों में मानसिक रोगों के जितने बीमार आते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं, जो चिंता- भार के कारण मन को संतुलित नहीं रख सके हैं। उनके मस्तिष्क में बीते हुए जीवन का हृदयद्रावक हाहाकार, कल्पना, मौन रुदन है । प्रिय व्यक्ति के विछोह की आकुलता, पीड़ा और दुस्सह वेदना है। हजारों रुपयों की हानि की कसक है। समाज में दूसरों द्वारा की हुई मान हानि की जलन है, समाज, अफसर, रूढ़ियों तथा पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह है कोई पिटते-कुटते ऐसे जड़ निराशावादी हो गए हैं कि उनका जैसे आनंद का श्रोत ही सूख गया है। इन्हीं अनुभवों के बल पर वे भविष्य में भय से उत्पन्न दुष्प्रवृत्तियों के शिकार हैं। अपनी प्रतिकूलता के दूषित विचार उनके अंत:करण की उत्तम योजनाओं को क्षणभर में धूल में मिला देते हैं।
की मानसिक शक्तियों को क्षय कर चिंता में फँसाने वाला भय मनुष्य महाराक्षस है। भय की प्रथम संतान चिंता है। इन स्मृतियों तथा भावी दुःस्वपनों का द्वंद्व मानसिक रोगों के रूप में प्रकट होता है । अव्यक्त आशंकाएँ, कुकल्पनाएँ संस्काराधीन होती हैं, वे रोग के रूप में उद्भूत होकर किसी प्रकार अपनी परितृप्ति चाहती हैं ।
आपत्ति निवारण के कुछ स्वर्णिम सूत्र
विपत्ति से घबराओ मत। विपत्ति कड़वी जरूर होती है, पर याद रखो, चिरायता और नीम जैसी कड़वी चीजों से ही ताप का नाश होकर शरीर निर्मल होता है। विपत्ति में कभी भी निराश मत होओ। याद रखो, अन्न उपजाकर संसार को सुखी कर देने वाली जल की बूँदें काली घटा से ही बरसती हैं। विपत्ति असल में उन्हीं को विशेष दु:ख देती है, जो उससे डरते हैं। जिनका मन दृढ़ हो, संसार की अनित्यता का अनुभव करता हो और हर बात में भगवान की दया देखकर निडर रहता हो , उसके लिए विपत्ति फूलों की सेज के समान है ।
जैसे रास्ते में दूर से पहाड़ियों को देखकर मुसाफिर घबरा उठता है कि मैं इन्हें कैसे पार करूँगा, लेकिन पास पहुँचने पर वे उतनी कठिन मालूम नहीं होतीं, यही हाल विपत्तियों का है । मनुष्य दूर से उन्हें देखकर घबरा उठता है और दुखी होता है, परंतु जब वे ही सिर पर आ पड़ती हैं तो धीरज रखने से थोड़ी सी पीड़ा पहुँचाकर ही नष्ट हो जाती हैं । जिस तरह खरादे बिना सुंदर मूर्ति नहीं बनती उसी तरह विपत्ति से गड़े बिना मनुष्य का हृदय सुंदर नहीं बनता। विपत्ति प्रेम की कसौटी है। विपत्ति में पड़े हुए बंधु-बाँधवों में तुम्हारा प्रेम बढ़े और वह तुम्हें निरभिमान बनाकर आदर के साथ उनकी सेवा करने को मजबूर कर दे, तभी समझो कि तुम्हारा प्रेम असली है । इसी प्रकार तुम्हारे विपत्ति पड़ने पर तुम्हारे बंधु- बाँधवों और मित्रों की प्रेम-परीक्षा हो सकती है । काले बादलों के अँधेरे में ही बिजली की चमक छिपी रहती है, विपत्ति अर्थात दुःख के बाद सुख, निराशा के बाद आशा, पतझड़ के बाद बसंत ही सृष्टि का नियम है।
याद रहे कि जब तक सुख की एकरसता को वेदना की विषमता का गहरा आघात नहीं लगता, तब तक जीवन के यथार्थ तत्त्व का परिचय नहीं मिल सकता। विपत्ति पड़ने पर पाँच प्रकार से विचार करो –
१-विपत्ति अपने ही कर्म का फल है, इसे भोग लोगे तो के एक कठिन बंधन से छूट जाओगे।
२-विपत्ति तुम्हारे विश्वास की कसौटी है इसमें न घबड़ाओगो तो तुम्हें भगवान की कृपा प्राप्त होगी।
३-विपत्ति मंगलमय भगवान का विधान है और उनका विधान कल्याणकारी ही होता है। इस विपत्ति में ही तुम्हारा कल्याण ही भरा है।
४-विपत्ति के रूप में जो कुछ तुम्हें प्राप्त होता है, यह ऐसा ही होने को था, नई चीज कुछ भी नहीं बन रही है, भगवान का पहले से रचकर रखा हुआ ही दृश्य सामने आता है।
५-जिस देह को, जिस नाम को और जिस नाम तथा देह के संबंध को सच्चा मानकर तुम विपत्ति से घबराते हो, वह देह, नाम और संबंध सब आरोप मात्र हैं, इस जन्म से पहले भी तुम्हारा नाम, रूप और संबंध था, परंतु आज उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, यही हाल इसका भी है, फिर विपत्ति में घबराना तो मूर्खता ही है, क्योंकि विपत्ति का अनुभव देह, नाम और इनके संबंध को लेकर ही होता है ।
जीवन के समस्त अन्य व्यापारों की तरह कठिनाइयों और आपत्तियों का आते-जाते रहना भी स्वाभाविक नियम है। उनको बुरा या भला समझना बहुत कुछ अपनी मनोवृत्ति पर निर्भर है। पर वास्तव में अधिकांश आपतियाँ मनुष्य को उसकी गलतियाँ बतलाने वाली होती हैं इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य है कि कैसी भी आपत्तियाँ क्यों न आवें, धैर्य को कभी न छोड़ें और शांत चित्त से उनके निवारण का प्रयत्न करें । ऐसा करने से आपत्तियाँ हानि करने के बजाय अंतिम परिणाम में लाभकारी ही सिद्ध होंगी ।
लेखक : पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य