भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चौथ को गणेशजी का व्रत किया जाता है, क्योंकि उनका जन्म उसी दिन माना गया है। गणेशजी सबसे अधिक लोकप्रिय देवता हैं। प्रत्येक शुभ कार्य में सर्वप्रथम उन्हीं की पूजा-अर्चना की जाती है। साधारण व्यवहारिक निमंत्रण-पत्रों से लेकर बड़े-बड़े ग्रंथों के आदि में ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखने की प्रथा चल गई है। सिद्धि-सदन और विद्यावारिधि गणेशजी आठों सिद्धियों और नव-निधियों के देने वाले हैं। गणेश चतुर्थी को लोग दिन भर व्रत रखते हैं। चार घड़ी रात बीतने पर जब आकाश में चंद्रमा दिखलाई पड़ता है, तो आँगन में पवित्र किये स्थान पर ताँबे या मिट्टी का कलश जल से भरकर उसके ऊपर चाँदी, पीतल या मिट्टी की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत् उसकी पूजा करते हैं। इसके बाद गणेशजी का प्रसाद लड्डू आदि ग्रहण करते हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करते हैं, उनकी सभी मनोकामनाएँ सिद्ध होती हैं। स्कंदपुराण में लिखा है कि, श्रीकृष्णजी के उपदेश से युधिष्ठिर महाराज ने इस व्रत को किया था, जिससे महाभारत संग्राम में पांडवों की विजय हुई थी। तब से इस व्रत का विशेष प्रचार हुआ। गणेश-चतुर्थी के व्रत की कथा इस प्रकार है
एक समय शंकरजी और पार्वतीजी विचरण करते-करते नर्मदा के किनारे पहुँच गये। वहाँ एक अत्यंत रमणीय स्थान देखकर विश्राम के लिए बैठ गये। कुछ देर बाद पार्वतीजी बोलीं- “भगवन् ! मेरी इच्छा है कि, यहाँ आपके साथ चौपड़ का खेल खेलूँ ।”
शिवजी ने कहा- “अच्छा है, पर हम तुम तो खेलने वाले हुए, परंतु हार-जीत का निर्णय करने वाला भी तो कोई होना आवश्यक है।”
पार्वतीजी ने आस-पास से थोड़ी-सी घास उखाड़कर उससे एक बालक बना दिया और उसमें प्राण डालकर कहा—बेटा, हम दोनों चौपड़ खेलते हैं, तुम उसे देखते रहना और बतलाते रहना कि किसकी हार-जीत हुई ।
खेल में तीन बार पार्वतीजी की विजय हुई और शंकरजी तीनों दफे हार गये; परंतु अंत में जब बालक से पूछा गया तो उसने शिवजी की जीत और पार्वतीजी की हार बताई। उसकी इस दुष्टता को देखकर पार्वतीजी बड़ी नाराज हुई और उसे शाप दिया – ” तूने सत्य बात कहने में प्रमाद किया है, इस कारण तू एक पैर से लँगड़ा होगा और सदा इसी बीच में पड़ा रहकर दुःख पावेगा।”
माता का शाप सुनकर बालक ने कहा- “मैंने कुटिलता से ऐसा नहीं किया है, केवल बालकपन के कारण मुझ से भूल हुई है, इससे मुझे क्षमा करो।”
तब पार्वतीजी ने दया करके कहा- जब इस नदी के तट पर नाग- कन्याएँ गणेश-पूजन करने आवें, तो उनके उपदेशानुसार तू भो गणेशजी का व्रत करना। उससे यह शाप दूर हो जायेगा ।
यह कहकर पार्वतीजी हिमालय को चली गई। एक वर्ष बाद नाग – कन्याएँ गणेश-पूजन के लिए नर्मदा के किनारे आईं। उस समय श्रावण का महीना था। नाग कन्याओं ने वहाँ रहकर गणेश व्रत किया और उस बालक को भी व्रत तथा पूजा की विधि बतलाई। नाग- कन्याओं के चले जाने पर उस बालक ने २१ दिन तक गणेश व्रत किया। तब गणेशजी ने प्रकट होकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए जो इच्छा हो सो वर माँगो बालक ने कहा- मेरे पाँव में शक्ति आकर लँगड़ापन दूर हो जाये, जिससे मैं कैलाश पर चला जाऊँ और वहाँ माता-पिता मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ ।
गणेशजी वरदान देकर अंतर्धान हो गये। बालक शीघ्र ही कैलाश पहुँच कर शिवजी के चरणों पर गिर पड़ा। शिवजी ने पूछा – तूने ऐसा कौन-सा उपाय किया, जिससे पार्वतीजी के शाप मुक्त होकर यहाँ तक आ पहुँचा। अगर ऐसा कोई व्रत हो तो मुझे भी बता, जिससे उसे करके मैं पार्वतीजी को प्राप्त करूँ, क्योंकि उस दिन से क्रुद्ध होकर वे अभी तक मेरे समीप नहीं आईं।
बालक की बतलाई विधि के अनुसार शिवजी ने भी २१ दिन तक गणेश का व्रत किया, जिससे पार्वतीजी के हृदय में आप ही शिवजी से मिलने की इच्छा हुई और वे पिता हिमाचल से विदा माँगकर कैलाश चली आईं।
इस प्रकार गणेशजी का व्रत सब कामनाओं का पूर्ण करने वाला है। गणेशजी हमारे देश के बहुत प्राचीन देवता हैं और ५-६ हजार वर्ष पुराने मोहनजोदड़ो के खंडहरों में भी उनकी पूजा का पता लगता है। गुप्तकालीन मूर्ति कला में भी चूहे पर बैठे गणेशजी की आकृतियाँ बनी हैं।
गणेशजी का दूसरा नाम गणपति भी है। इनके संबंध में जो खोज की गई है, उसके आधार पर अनेक विद्वानों का कथन है कि गणेशजी का नाम अथवा उनकी पूजा का विधान वेदों में नहीं मिलता । फिर भी इतना मालूम होता है कि प्राचीन भारत में स्थान-स्थान पर गणतंत्र शासन के जो संगठन फैले हुए थे, उनके देवता के रूप में गणपति की पूजा की जाती थी और तभी से प्रत्येक शुभ कार्य को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए गणेशजी को मनाने की पद्धति प्रचलित हो गई है। इस प्रकार गणेशजी सामान्य जनता के देवता और मार्ग-दर्शक के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य हैं। हमारे वर्तमान राष्ट्रीय आंदोलन के महान् नेता लोकमान्य तिलक ने भी इसी विचार से महाराष्ट्र में गणपति उत्सव को एक बहुत बड़े राष्ट्रीय त्यौहार का रूप दिया था, जो अभी तक उक्त प्रांत में कई दिन तक बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। यद्यपि विदेशियों के आगमन से भारत की गणतंत्र प्रणाली एक-डेढ़ हजार वर्ष से समाप्त प्रायः हो गई है, तो भी जनता की उन्नति के लिए उससे उत्तम शासन-प्रणाली अन्य कोई नहीं हो सकती। उसमें प्रत्येक क्षेत्र की जनता अपने निर्वाह के आवश्यक कार्यों की व्यवस्था स्वयं कर सकती है और उसे परावलंबी नहीं होना पड़ता। वह समय भारत में फिर आ जाये और जनता के कष्ट दूर हों, यही प्रार्थना हमको गणेशजी से इस दिन करनी चाहिए ।
वर्तमान काल की प्रजा सत्तात्मक शासन प्रणाली एक प्रकार से प्राचीन गणतंत्र प्रथा का ही रूप है। इतना अंतर अवश्य पड़ गया है कि प्राचीन गणराज्य प्राय: छोटे होते थे और उनके अधिकांश निवासी एक ही जाति, भाषा और धर्म के होते थे। इसके विपरीत आजकल के प्रजातंत्र प्रायः विशाल हैं और उनमें विभिन्न जातियों, धर्मों और भाषाओं के लोग सम्मिलित होते हैं। इसलिए आजकल के प्रजातंत्रों की समस्याएँ पहले से कहीं अधिक जटिल और प्रभावयुक्त हो गई हैं। हमारा देश भी प्रजातंत्र प्रथा का अनुयायी है और उसमें प्राचीन गणतंत्रों के गुणों का समावेश करना हमारा कर्तव्य है। इसलिए गणेश चतुर्थी के त्यौहार पर प्रजातंत्र की सच्ची भावना का प्रचार करना ही वास्तविक गणपति पूजा है।
पुस्तक : त्यौहार और व्रत