गायत्री मंत्र का चौथा अक्षर ‘वि’ हमको धन के सदुपयोग की शिक्षा देता है-
वित्त शक्तातु कर्तव्य उचिताभाव पूर्तयः ।
न तु शक्त्या न या कार्य दर्पोद्धात्य प्रदर्शनम् ।।
अर्थात्-“धन उचित अभावों की पूर्ति के लिए है, उसके द्वारा अहंकार तथा अनुचित कार्य नहीं किए जाने चाहिए ।”
धन का उपार्जन केवल इसी दृष्टि से होना चाहिए कि उससे अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति हो । शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के विकास के लिए सांसारिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए घन का उपयोग होना चाहिए और इसीलिए उसे कमाना चाहिए ।
धन कमाने का उचित तरीका वह है जिसमें मनुष्य का पूरा शारीरिक और मानसिक श्रम लगा हो, जिसमें किसी दूसरे के हक का अपहरण न किया गया हो, जिसमें कोई चोरी, छल, प्रपञ्च, अन्याय, दबाव आदि का प्रयोग न किया गया हो । जिससे समाज और राष्ट्र का कोई अहित न होता हो, ऐसी ही कमाई से उपार्जित पैसा फलता – फूलता है और उससे मनुष्य की सच्ची उन्नति होती है ।
जिस प्रकार धन के उपार्जन में औचित्य का ध्यान रखने की आवश्यकता है, वैसे ही उसे खर्च करने में, उपयोग में भी सावधानी बरतनी चाहिए । अपने तथा अपने परिजनों के आवश्यक विकास के लिए धन का उपयोग करना ही कर्तव्य है । शानशौकत दिखलाने अथवा दुर्व्यसनों की पूर्ति के लिए घन का अपव्यय करना मनुष्य की अवनति, अप्रतिष्ठा और दुर्दशा का कारण होता है ।
अपनी उचित शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और सांसारिक आवश्यकताओं की उपेक्षा करके जो लोग अधिकाधिक घन इकट्ठा करने की तृष्णा में डूबे रहते हैं और सात पुस्त के लिए अमीरी छोड़ जाना चाहते हैं, वे
बड़ी भूल करते हैं । मुफ्त की दौलत मिलने से आगामी संतान आलसी, व्यसनी, अपव्ययी तथा अन्य बुराइयों की शिकार बन सकती है । जिसने जिस पैसे को पसीना बहाकर नहीं कमाया है, वह उसका मूल्यांकन नहीं कर
सकता । बच्चों के लिए सम्पत्ति जोड़़ कर रख जाने के बजाय उनको सुशिक्षित, स्वस्थ और स्वावलम्बी बनाने में खर्च करना अधिक उत्तम है ।
धन की तृष्णा से बचिए
घन कोई बुरी चीज नहीं है और खासकर वर्तमान समय में दुनियाँ का स्वरूप ही ऐसा हो गया है कि बिना धन के मनुष्य का जीवन-निर्वाह संभव नहीं, पर धन तभी तक शुभ और हितकारी है जब तक उसे ईमानदारी के साथ कमाया जाय और उसका सदुपयोग किया जाय । इसके विपरीत यदि हम धन कमाने और चारों तरफ से उसे बटोर कर अपनी तिजोरी में बन्द करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं, अथवा यह समझकर कि हम अपनी सम्पंत्ति का चाहे जैसा उपयोग करें, उसे दुर्व्यसनों की पूर्ति में खर्च करते हैं तो वह हमारे लिए अभिशाप स्वरूप बन जाता है । ऐसा मनुष्य अपना पतन तो करता ही है, साथ ही दूसरे लोगों को उनके उचित अधिकार से वंचित करके उनकी विपत्ति का कारण भी बनता है । आजकल तो हम यही देख रहे हैं कि जिसमें चतुरता एवं शक्ति की तनिक भी अधिकता है, वह कोशिश करता है कि मैं संसार की अधिक से अधिक सुख-सामग्री अपने कब्जे में कर लूँ । अपनी इस हविस को पूरा करने के लिए वह अपने पड़ोसियों के अधिकारों के ऊपर हमला करता है और उनके हाथ की रोटी, मुख के ग्रास छीनकर खुद मालदार बनता है ।
एक आदमी के मालदार बनने का अर्थ है अनेकों का क्रन्दन, अनेकों का शोषण, अनेकों का अपहरण । एक ऊँचा मकान बनाया जाय तो उसके लिए, बहुत-सी मिट्टी जमा करनी पड़ेगी और जहाँ-जहाँ से वह मिट्टी उठाई जायगी, वहाँ- वहाँ गड्ढा पड़ना निश्चित है । इस संसार में जितने प्राणी हैं उसी हिसाब से वस्तुएँ भी परमात्मा उत्पन्न करता है । यदि एक आदमी अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ जमा करता है तो इसका अर्थ-दूसरों की जरूरी चीजों का अपहरण ही हुआ । गत द्वितीय महायुद्ध में सरकारों ने तथा पूँजीपतियों ने अन्न का अत्यधिक स्टाक जमा कर लिया,
फलस्वरूप दूसरी जगह अन्न की कमी पड़ गई और बंगाल जैसे प्रदेशों में लाखों आदमी भूखे मर गये । गत शताब्दी मैं ब्रिटन की धन सम्पन्नत्ता भारत जैसे पराधीन देशों के दोहन से हुई थी । जिन देशों का शोषण हुआ था वे बेचारे दीनदशा में गरीबी, बेकारी, भुखमरी और बीमारी से तबाह हो रहे थे ।
वस्तुएँ संसार में उतनी ही हैं, जिससे सब लोग समान रूप से सुखपूर्वक रह सकें । एक व्यक्ति मालदार बनता है, तो यह हो नहीं सकता कि उसके कारण अनेकों को गरीब न बनना पड़े, यह महान सत्य हमारे पूजनीय पूर्वजों
को भलीभाति विदित था इसलिए उन्होंने मानव धर्म में अपरिग्रह को महत्वपूर्ण स्थान दिया था । वस्तुओं का कम से कम संग्रह करना यह भारतीय सभ्यता का आदर्श सिद्धान्त था । ऋषिगण कम से कम वस्तुएँ जमा करते थे । वे
कोपीन लगाकर फूँस के झोंपड़ों में रहकर गुजारा करते थे । जनक जैसे राजा अपने हाथों खेती करके अपने पारिवारिक निर्वाह के लायक अन्न कमाते थे । प्रजा का सामूहिक पैसा-राज्य कोष केवल प्रजा के कामों में ही
खर्च होता था । व्यापारी लोग अपने आपः को जनता के घन का ट्रस्टी समझते थे और जब आवश्यकता पड़ती थी उस घन को बिना हिचकिचाहट के जनता को सौंप देते थे । भामाशाह ने राणाप्रताप को प्रचुर सम्पदा दी थी, जनता की थाती को, जनता की आवश्यकता के लिए बिना हिचकिचाहट सौंप देने के असंख्यों उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्ने-पन्ने पर अंकित हैं ।
आज का दृष्टिकोण दूसरा है । लोग मालदार बनने की धुन में अंधे हो रहे हैं । नीति-अनीति का, उचित-अनुचित का, घर्म- अधर्म का प्रश्न उठा कर ताक पर रख दिया गया है और यह कोशिशें हो रही हैं कि किस प्रकार जल्द से जल्द घनपति बन जायें । घन ! अधिक धन ॥ जल्दी धन ! घन ॥ धन ! इस रट को लगाता हुआ, मनुष्य होश-हवास भूल गया है । पागल सियार की तरह धन की खोज में उन्मत्त – सा होकर चारों ओर दौड़ रहा है ।
पाप एक छूत की बीमारी है । जो एक से दूसरे को लगती और फैलती है । एक को धनी बनने के लिए यह अन्धाधुन्धी मचाते हुए देखकर और अनेकों की भी वैसी ही इच्छा होती है । अनुचित रीति से घन जमा करने वाले लुटेरों की संख्या बढ़ती है-फिर लुटने वाले और लूटने वालों में संघर्ष होता है । उधर लूटनै वालों में प्रतिद्वन्दिता का संघर्ष होता है । इस प्रकार तीन मोर्चो पर लड़ाई ठन जाती है । घर-घर में गाँव-गाँव में जाति में, वर्ग में तनातनी हो रही है । जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी धनी बनने, व्यक्तिगत सम्पन्नता को प्रधानता देने, का एक ही निश्चित परिणाम है- कलह । जिसे हम अपने चारों ओर ताण्डव नृत्य करता हुआ देख रहे हैं ।
इस गतिविधि को जब तक मनुष्य जाति न बदलेगी तब तक उसकी कठिनाइयों का अन्त न होगा । एक गुत्थी सुलझने न पावेगी तब तक नई गुत्थी पैदा हो जायगी । एक संघर्ष शान्त न होने पावेगा तब तक नया संघर्ष आरम्म हो जावेगा । न लूटने वाला सुख की नींद सो सकेगा और न लुटने वाला चैन से बैठेगा । एक का धनी बनना अनेकों के मन में ईर्ष्या की, डाह की, जलन की आग लगाना है । यह सत्य सूर्य-सा प्रकाशवान् है कि एक का धनी होना अनेकों को गरीब रखना है । इस बुराई को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपरिग्रह का स्वेच्छा स्वीकृत शासन स्थापित किया था । आज की दुनियाँ राज-सत्ता द्वारा समाजवादी प्रणाली की स्थापना करने जा रही है ।
वस्तुतः जीवनयापन के लिए एक नियत मात्रा में धन की आवश्यकता है । यदि लूट-खसोट बन्द हो जाय तो बहुत थोड़े प्रयत्न से मनुष्य अपनी आवश्यक वस्तुएँ कमा सकता है । शेष समय में विविध प्रकार की उन्नतियों की साधना की जा सकती है । आत्मा मानव शरीर को धारण करने के लिए जिस लोभ से तैयार होती है, प्रयत्न करती है, उस रस को अनुभव करना उसी दशा में सम्भव है, जब धन संचय का बुखार उतर जाय और उस बुखार के साथ-साथ जो अन्य अनेकों उपद्रव उठते हैं उनका अन्त हो जाय ।
परमात्मा समदर्शी है । वह सब को समान सुविधा देता है । हमें चाहिए कि भौतिक पदार्थों का उतना ही संचय करें जितना उचित रीति से कमाया जा सके और वास्तविक आवश्यकताओं के लिए काफी हो । इससे अधिक सामग्री के संचय की तृष्णा न करें क्योंकि यह तृष्णा ईश्वरीय इच्छा के विपरीत तथा कलह उत्पन्न करने वाली है ।
धन विपत्ति का कारण भी हे सकता है ?
इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान समय में संसार के अधिकांश लोगों ने धन के वास्तविक दर्जे को भूल केर उसे बहुत ऊँचे आसन पे बिठा दिया है । आजकल की अवस्था को देख कर तो हमको यही प्रतीत होता है कि मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु धन ही है, यह स्वीकार करना होगा । ईसा मसीह ने गलत नहीं लिखा है कि ‘धनी का स्वर्ग में प्रवेश पाना असम्भव है ।” इसका अर्थ केवल यही है कि धन मनुष्य को इतना अन्धा कर देता है कि वह संसार के सभी कर्तव्यों से गिर जाता है । धन का इसी में महत्व है कि वह लोक-सेवा में व्यय हो । नहीं तो धन के समान अनर्थकारी और कुछ नहीं है । श्रीमद्भागवत में कहा है-
स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः |
भैदोः वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च ।
एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम् ।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ।।
-११/२३/८-१९
“(धन ) से ही मनुष्यों में ये पन्द्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं-चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद बुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जूआ और शराब । इसलिए कल्याणकामी पुरुष को ‘अर्थ’ नामघारी- अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए ।”
आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं । भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता । अब हमको समाज में अपना स्थान कमाने में बिताना चाहिए । केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए । लक्ष्य होना चाहिए कभी भी दुःखी न रहना । हरेक के जीवन में सबसे महान् प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो । हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिए । यह आदर्श पेट का धन्धा नहीं, सेवा होना चाहिए । सर्वकल्याण , समाज सेवा, सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो, हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन ध्येय केवल जीविका- उपार्जन न रह जाय । जीवन केवल अर्थशास्त्र या प्रतिस्पर्धा की वस्तु न रह जाय । व्यापार के नियम बदल जायें । एक काम के अनेक करने वालै हों और अनेक व्यक्ति एक ही काम को अपना सकें । मालिक और नौकर में काम करने के घण्टों की झिकझिक दूर हो । मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है, उसकी आत्मा भी है, उसका देवता भी है, उसका इहलोक और परलोक भी है ।
यदि हम अपने तथा दूसरों के हृदय के भीतर बैठकर यह सब समझ जाय, तो हमारा जीवन कितना सुखी हो जायगा, पर आज हम ऐसा नहीं करते हैं । यह क्यों ? इसका कारण धन की विपत्ति है । घन की दुनियाँ में निर्घन का व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है । जब तक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर न मिले, आदमी सुखी नहीं हो सकता । यह सभ्यता व्यक्तित्व के विकास को रोकती है, बिना इसके विकसित हुए सुख नहीं मिल सकता । सुख वह इत्र है, जिसे दूसरों को लगाने से पहले अपने को लगाना आवश्यक होता है । यह इत्र तभी बनता है, जब हम अपने एक कार्य को दूसरे की सहायता के भाव से करें । हमें चाहे अपनी इच्छाओं का दमन ही क्यों न करना पड़े, पर हमें दूसरे के सुख का आदर करना पड़ेगा । सुख का सबसे बड़ा साधन निःस्वार्थ सेवा ही है ।
संसार में रुपये के सबसे बड़े उपासक यहूदी समझे जाते हैं, पर यहूदी समाज मैं भी अब धन के विरुद्ध जेहाद शुरू हो गया है । ‘यरुशलम मित्र संघ’ की ओर से ‘चूज’ यानी पसन्द कर लो’ शीर्षक एक पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका लक्ष्य है-‘तुम ईश्वर तथा शैतान् दोनों की एक साथ उपासना नहीं कर सकते ।’ इसके लेखक श्री आर्थर ई. जोन्स का कहना है कि ‘न जाने किस कुघड़ी में रुपया-पैसा संसार में आया, जिसने आज हमारे ऊपर ऐसा अधिकार कर लिया है कि हम उसके अंग बन गये हैं । यदि मैं यह कहूँ कि संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी रुपया है, तो पुराने लोग सकपका उठेंगे । किन्तु आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है । खाद्य-साम्ग्री का संकट, रोग- ध्याधि-सबका कारण यही है । चूँकि सुख की सभी वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती है, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है । जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव-पेंच में लगता है । व्यापार की दुनियाँ में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते ।
‘विपत्ति यह है कि आदमी एक दूसरे को प्यार नहीं करते l यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिपादन की भावना हो जाय तो हर एक कस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय । आज लाखों आदमी हिसाब-किताब, बहीखाते के काम में परेशान हैं और लाखों आदमी फौज, पल्टन या पुलिस में केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बहीखाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें । जेल तथा पुलिस की आवश्यकता रुपये की दुनियाँ में होती है । यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायें तथा अपनी उत्पत्ति का अर्थिक मुल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें, तो संसार कितना सुखमय हो जायगा । आज संसार में अटूट सम्पत्ति, उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है । यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनियाँ कैसी होती ? अस्पतालों में लाखों नर-नारी रुपये की मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारी धन के लिए जेल काट रहे हैं । प्रायः
हर परिवार में इसका झगड़ा है । मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है । यदि धन की मर्यादा न होती, तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता ।
यह सत्य है कि संसार से पैसा एकदम उठ जाय, ऐसी सम्भावना नहीं है, पर पैसे का विकास, उसकी महत्ता तथा उसका राज्य रोका अवश्य जा सकता है । इसके लिए हमको अपना मोह तोड़ना होगा , स्वार्थ के स्थान पर
पदार्थ, समृद्धि के झूठें सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर भगवान की शरण लेनी होगी । नहीं तो आज की हाय-हाय जो हमारे जीवन का सुख नष्ट कर चुकी है, अब हमारी आत्मा को भी नष्ट करने वाली है । हमें सब कुछ खोकर भी अपनी आत्मा को बचाना है ।
धन के प्रति उचित दृष्टिकोण रखिए
बात यह है कि भ्रमवश हम रुपये पैसे को धन समझ बैठे, स्थावर सम्पत्ति का नामकरण हमने धन के रूप में कर डाला और हमारे जीवन का केन्द्र-विन्दु, आनन्द का मोत इस जड़ स्थावर जंगम के रूप में सामने आया । हमारा प्रवाह गलत मार्ग पर चल पड़ा ।
क्या हमारे अमूल्य श्वांस-प्रश्वास की कुछ क्रियाओं की तुलना या मूल्यांकन त्रैलोक्य की सम्पूर्ण सम्पत्ति से की जा सकती है ? कारुं का सारा खजाना जीवन रूपी धन की चरण रज से भी अल्प क्यों माना जाय ? सच्चा धन हमारा स्वास्थ्य है, विश्व की सम्पूर्ण उपलब्ध सामग्री का अस्तित्व जीवन धन की योग्य शक्ति पर ही अवलम्बित हैं । मानव अप्राप्य के लिए चिंतित तथा प्राप्य के प्रति उदासीन है । हमारे पास जो है-उसके लिए सुख का श्वांस नहीं लेता, सन्तोष नहीं करता, वरन क्या नहीं है इसके लिए वह चिन्तित दुःखी व परेशान है । मानव स्वभाव की अनेक दुर्बलताओं में प्राप्य के प्रति असन्तोष्पी रहना सहज ही स्वभावजन्य पद्धति मानी गई ।
मानव आदिकाल से ही मस्तिष्क का दिवालिया रहा । देखिए न, एक दिन एक हृष्ट-पुष्ट भिक्षुक, जिसका स्वस्थ शरीर सबल अभिव्यक्ति का प्रतीक था, एक गृहस्थ ज्ञानी के द्वार पर आकर अपनी दरिद्रता का, अपनी
अपूर्णता का बड़े जोरदार शब्दों में वर्णन सुना रहा था, जिससे पता चलता था, कि वह व्यक्ति महान् निर्घन है और इसके लिए वह विश्व निर्माता ईश्वर को अपराधी करार दे रहा था । अचानक ज्ञानी गृहस्थी ने कहा-भाई हमें अपने
छोटे भाई हेतु आँख की पुतली की दरकार है, सौ रुपये लेकर आप हमें देवें । भिक्षुक ने तपाक से नकारात्मक उत्तर दिया कि वह दस हजार रुपये तक भी अपने इस बहुमूल्य शरीर के अवयवों को देने को तैयार नहीं । कुछ
क्षण बाद पुनः ज्ञानी गृहस्थ ने कहा-मैरे पुत्र का मोटर दुर्घटना में बाँया पाँव टूट चुका है, अतः दस हजार रुपये आप नगद लेकर आज ही अस्पताल चलकर अपना पैर देवेंगे तो बड़ी कृपा होगी । इस प्रश्न पर वह भिक्षुक अत्यन्त ही क्रोधित मुद्रा में होकर बोला दस हजार तो दरकिनार रहे, लाख क्या दस लाख तक मैं अपने बहुमल्य अवयवों को नहीं देऊँगा और रुष्ट होकर जाने लगा । गम्भीरता के साथ ज्ञानी ने रोककर कहा-भाई तुम तो बड़े ही धनी हो जब तुम्हारे दो अवयवों का मूल्य ५० लाख रुपये के लगभग होता है तो भला सम्पूर्ण देह का मूल्य तो अरबों रुपये तक होगा । तुम तो अपनी दरिद्रता का ढ़िढोरा पीटते हो , अरे लाखों को ठोकर मार रहे हो, अतः जीवन धन अमूल्य है ।
हम अपना दृष्टिकोण ठीक बनावें । । मिट्टी के ढेलों को, जड़ वस्तु को धन की उपमा देकर उसकी रक्षा के लिए सन्तरी तैनात किए, विशाल तिजोरियों के अन्दर सुरक्षित किया। चोरों से, डाकुओं से किसी भी मुल्य पर
हमने उसे बयाया, परन्तु प्रतिदिन नष्ट होने वाला हमारी प्रत्येक दैनिक, अशोच्य क्रियाओं द्वारा घुल-घुल कर मिटने वाला यह जीवन दीप बिना तेल के बुझ जायगा । ‘निर्वाण दीपे किमु तैल्य दानमु’ फिर क्या होने वाला है, जबकि दीपक बुझ जाय । हमें आलस्य, अकर्मण्यता आदि स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली दैनिक क्रियाओं द्वारा इस जीवन घन की रक्षा करनी होगी । व्यसन, व्यभिचार, संयमहीनता के डाकू कहीं लूट न लें । सतर्कता के साथ जागरूक रहना होगा । रुग्ण शैया पर पड़े रोम के अन्तिम सम्राट को राजवैद्य द्वारा अन्तिम निराशाजनक सूचना पाने पर कि वह केवल कुछ क्षणों के ही मेहमान हैं, आस-पास के मंत्रियों से साम्राज्ञी ने कई बार मिन्नतें की कि वे साम्राज्य के कोष का आधा भाग वैद्य के चरणों में भेट करने को तैयार हैं अगर उन्हें वे दो घंण्टे जीवित और रखें । उत्तर था- “त्रैलोक्य की सम्पूर्ण लक्ष्मी भी सम्राट को निश्चित क्षण से एक श्वाँस भी अधिक देने में असमर्थ है ।” क्या हमारी आँखों के ज्ञान की ज्योति बुझ चुकी है ? क्या उपरोक्त कथन से स्पष्ट नहीं होता कि जीवन धन अमूल्य है, बहुमूल्य है तथा अखिल ब्रह्माण्ड की किसी भी वस्तु की तुलना मैं यह महान है ?
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
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जय जय गुरुदेव
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