धन का सच्चा स्वरूप
घन इसलिए जमा करना चाहिए कि उसका सुदपयोग किया जा सके और उसे सुख एवं सन्तोष देने वाले कामों में लगाया जा सके, किन्तु यदि जमा करने की लालसा बढ़कर तृष्णा का रूप धारण कर ले और आदमी बिना घर्म-अघर्म का ख्याल किए पैसा लेने या आवश्यकताओं की उपेक्षा करके उसे जमा करने की कंजूसी का आदी हो जाय तो वह धन धूल के बराबर है । हो सकता है कि कोई आदमी धनी बन जाय, पर उसमें मनुष्यता के आवश्यक गुणों का विकास न हो और उसका चरित्र अत्याचारी, बेईमान या लम्पटों जैसा बना रहे । यदि धन की वृद्धि के साथ-साथ सद्वृत्तियाँ भी न बढे तो समझना चाहिए कि यह धन जमा करना बेकार हुआ और उसने धन को साधन न समझकर साध्य मानं लिया है । घन का गुण उदारता बढ़ाना है, हदय को विशाल करना है, कंजूसी या बेईमानी के भाव जिसके साथ सम्बद्ध हों, वह कमाई केवल दुःखदायी ही सिद्ध होगी ।
जिनका हृदय दुर्भावनाओं से कलुषणित हो रहा है, वे यदि कंजूसी से घन जोड़ भी लें तो वह उनके लिए कुछ भी सुख नहीं पहुँचाता, वरन् उलटा कष्टकर ही सिद्ध होता है । ऐसे धनवानों को हम कंगाल ही पुकारेंगे, क्योंकि पैसे से जो शारीरिक और मानसिक सुविधा मिल सकती है, वह उन्हें प्राप्त नहीं होती, उलटी उसकी चौकीदारी की भारी जोखिम शिर पर लादे रहते हैं । जो आदमी अपने आराम में, स्त्री के स्वास्थ्य में, बच्चों की पढ़ाई में दमड़़ी खर्चना नहीं चाहते, उन्हें कौन घनवान् कह सकता है ? दूसरों के कष्टों को पत्थर की भौंति देखता रहता है किन्तु शुभ कार्य में कुछ दान करने के नाम पर जिसके प्राण निकलते हैं, ऐसा अभागा मक्खीचूस कदापि धनी नहीं कहा जा सकता । ऐसे लोगों के पास बहुत ही सीमित मात्रा में पैसा जमा हो सकता है, क्योंकि वे उसके द्वारा कैवल ब्याज कमाने की हिम्मत कर सकते हैं, उनमें घाटे की जोखिम भी रहती है । कंजूस डरता है कि कहीं मेरा पैसा डूब न जाय, इसलिए उसे छाती से छुड़ाकर किसी कारोबार में लगाने की हिम्मत नहीं होती। इन कारणों से कोई भी कंजूस स्वभाव का मनुष्य बहुत बड़ा धनी नहीं हो सकता ।
तृष्णा का कहीं अन्त नहीं, हविस छाया के समान है, जिसे आज तक कोई भी पकड़ नहीं सका है । मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल पैसा पैदा करना ही नहीं वरनु इससे भी कुछ बढ़कर है । पोम्पाई नगर के खण्डहरों को खोदते हुए एक ऐसा मानव अस्थि पंजर मिला, जो हाथ में सोने का एक ठेला बड़ी मजबूती से पकड़े हुए था । मालूम होता है कि उसने मृत्यु के समय सोने की रक्षा की सबसे अधिक चिन्ता की होगी । एक जहाज जब डूब रहा था, तो सब लोग नावों में बैठकर भागने लगे, किन्तु एक व्यक्ति उस जहाज के खजाने में से धन समेटने में लगा । साथियों ने कहा-चलो भाग चलो, नहीं तो डूब जाओगे, पर वह मनुष्य अपनी घुन में ही लगा रहा और जहाज के साथ डूब गया । एक कन्जूस आदमी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे एक ऐसी थैली दी, जिसमें बार-बार निकालने पर भी एक रुपया बना रहता था । साथ ही शंकर जी ने यह भी कह दिया कि-जब तक इस थैली को नष्ट न कर दो, तब तक खर्च करना आरम्भ न करना । वह गरीब आदमी एक-एक करके रुपया निकालने लगा । साथ ही उसकी तृष्णा बढ़ने लगी । बार-बार निकालता ही रहा, यहाँ तक कि निकालते-निकालते उसकी मृत्यु हो गई । एक बार लक्ष्मी जी ने एक भिखारी से कहा कि तुझे जितना सोना चाहिए ले ले, पर वह जमीन पर न गिरने पावे, नहीं तो मिट्टी हो जायेगा । भिखारी अपनी झोली में अन्धा-घुन्ध सोना भरता गया, यहाँ तक कि झोली फट कर सोना जमीन पर गिर पड़ा और धूल हो गया । मुहम्मद गौरी जब मरने लगा तो उसने अपना सारा खजाना आँखों के सामने फैलवाया, वह उसकी ओर आँखें फाड़ – फाड़कर देख रहा था और नेत्रों में से आँसुओं की धार बह रही थी । तृष्णा के सताये हुए कंजूस मनुष्य भिखमंगों से जरा भी कम नहीं हैं, भले ही उनकी तिजोरियाँ सोने से भरी हुई हों ।
सच्ची दौलत का मार्ग आत्मा को दिव्य गुर्णों से सम्पन्न करना है । सच समझिए हदय की सदृवृत्तियों को छोड़कर बाहर कहीं भी सुख-शान्ति नहीं है । भले ही हम बाह्य परिस्थितियों में सुख हूँढ़ते फिरें । यह ठीक है कि कुछ कमीने और निकम्मे आदमी भी अनायास धनवान हो जाते हैं, पर असल में वे धनपति नहीं हैं । यथार्थ में तो दरिद्रों से अधिक दरिद्रता भोग रहे हैं, उनका धन बेकार है, अस्थिर है और बहुत अशों में तो वह उनके लिए दुःखदायी भी है । दुर्गुणी धनवान कुछ नहीं, केवल एक भिक्षुक है । मरते समय तक जो धनी बना रहे कहते हैं कि वह बड़ा भाग्यवान था, लेकिन हमारा मत है कि वह अभागा है, क्योंकि अगले जन्म में अपने पापों का फल तो वह स्वयं भोगेगा, किन्तु धन को न तो भोग सका और न साथ ले जा सका । जिसके हृदय में सत्प्रवृत्तियों का निवास है, वही सबसे बड़ा धनवान है, चाहे बाहर से वह गरीबी का जीवन ही क्यों न व्यतीत करता हो । सद्गुणी का सुखी होना निश्चित है । समृद्धि उसके स्वागत के लिऐ दरवाजा खोले खड़ी हुई है । यदि आप स्थाई रहने वाली सम्पदा चाहते हैं तो घर्मात्मा बनिए । लालच में आकर अधिक पैसे जोड़ने के लिए दुष्कर्म करना यह तो कंगाली का मार्ग है । खबरदार रहो, कि कहीं लालच के दशीभूत होकर सोना कमाने तो चलो, पर बदले में मिट्टी ही हाथ लगकर न रह जाये ।
एडीसन ने एक स्थान पर लिखा है कि देवता लोग जब मनुष्य जाति पर कोई बड़ी कृपा करते हैं तो तूफान और दुर्घटनाएँ उत्पन्न करते हैं, जिससे कि लोगों का छिपा हुआ पौरुष प्रकट हो और उन्हें अपने विकास का अवसर प्राप्त हो । कोई पत्थर तब तक सुन्दर मूर्ति के रूप में परिणत नहीं हो सकता, जब तक कि उसे छैनी हथोड़े की हजारों छोटी – बड़ी चोटें न लगे । एडमण्डवर्क कहते हैं कि-“कठिनाई व्यायामशाला के उस उस्ताद का नाम है जो अपने शिष्यों को पहलवान बनाने के लिए उनसे खुद लड़ता है और उन्हें पटक-पटक कर ऐसा मजबूत बना देता है कि वे दूसरे पहलवान को गिरा सकें ।” जान बानधन ईश्वर से प्रार्थना किया करते थे कि- “हे प्रभु ! मुझे अधिक कष्ट दे, ताकि मैं अधिक सुख भोग सकूँ ।’
जो वृक्ष, पत्थरों और कठोर भू-भागों में उत्पन्न होते हैं और जीवित रहने के लिए सर्दी, गर्मी, आँधी आदि से निरन्तर युद्ध करते हैं, देखा गया है कि वे वृक्ष अधिक सुदृढ़ और दीर्घजीवी होते हैं । जिन्हें कठिन अवसरों का सामना नहीं करना पड़ता, उनसे जीवन भर कुछ महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो सकता । एक तत्वज्ञानी कहा करता था कि महापुरुष दुःखों के पालने में झूलते हैं और विपत्तियों का तकिया लगाते हैं । आपत्तियों की अग्नि हमारी हड्डियों को फौलाद जैसी मजबूत बनाती है । एक बार एक युवक ने एक अध्यापक से पूछा-‘क्या मैं एक दिन प्रसिद्ध चित्रकार बन सकता हैूँ ?’ अध्यापक ने कहा-‘नहीं ‘ इस पर उस युवक ने आश्चर्य से पूछा-‘क्यों ?’ अध्यापक ने उत्तर दिया-‘इसलिए कि तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति से एक हजार रुपया मासिक की आमदनी घर बैठे हो जाती है ।’ पैसे के चकाचौंघ में मनुष्य को अपना कर्तव्य-पथ दिखाई नहीं पड़ता और वह रास्ता भूलकर कहीं से कहीं चला जाता है । कीमती औजार लोहे को बार-बार गरम करके बनाये जाते हैं । हथियार तब तेज होते हैं, जब उन्हें पत्थर पर खूब घिसा जाता है । खराद पर चढ़े बिना हीरे में चमक नहीं आती । चुम्बक पत्थर को यदि रगड़ा न जाय तो उसके अन्दर छिपी हुई अग्नि यों ही सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहेगी । परमात्मा ने मनुष्य जाति को बहुत सी अमूल्य वस्तुएँ दी है, इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण गरीबी, कठिनाई, आपत्ति और असुविधा हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा मनुष्य को अपने सर्वोत्तम गुणों का विकास करने योग्य अवसर मिलता है कदाचित् परमेश्वर हर एक व्यक्ति के सब काम, आसान कर देता तो निश्चय ही आलसी होकर हम लोग कब के मिट गये होते ।
यदि आपने बेईमानी करके लाखों रुपये की सम्पत्ति जमा कर ली तो क्या बड़ा काम कर लिया ? दीन-दुखियों का रक्त चूसकर यदि अपना पेट बढ़ा लिया तो यह क्या बड़ी सफलता हुई ? आपके अमीर बनने से यदि दूसरे अनेक व्यक्ति गरीब बन रहे हों, आपके व्यापार से दूसरों के जीवन पतित हो रहे हों, अनेकों की सुख-शान्ति नष्ट हो रही हो तो ऐसी अमीरी पर लानत है । स्मरण रखिए-एक दिन आपसे पूछा जायगा कि धन को कैसे पाया और कैसे खर्च किया ? स्मरण रखिये आपको एक दिन न्याय-तुला पर तोला जायगा और उस समय अपनी भुल पर पश्चात्ताप होगा, तब देखोगे कि आप उसके विपरीत निकले, जैसा कि होना चाहिए था ।
आप आश्चर्य करेंगे कि क्या बिना पैसा के भी कोई घनवान हो सकता है ? लेकिन सत्य समझिये इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिनकी जेब में एक पैसा नहीं है या जिनकी जेब ही नहीं है, फिर भी वे घनवान हैं और इतने बड़े धनवान कि उनकी समता कोई दूसरा नहीं कर सकता । जिसका शरीर स्वस्थ है, हदय उदार है और मन पवित्र है यथार्थ में वही घनवान है । स्वस्थ शरीर चाँदी से अधिक कीमती है, उदार हृदय सोने से भी अधिक मूल्यवान है और पवित्र मन की कीमत रत्नों से अधिक है । लार्ड कालिंगउड कहते थे-दूसरों को धन के ऊपर मरने दो, मैं तो बिना पैसे का अमीर हूँ, क्योंकि मैं जो कमाता हूँ, नेकी से कमाता हूँ ।’ सिसरो ने कहा है- ‘मेरे पास थोड़े से ईमानदारी के साथ कमाए हुए पैसे हैं परन्तु वे मुझे करोड़पतियों से अधिक आनन्द देते हैं ।
दघीचि, वशिष्ठ, व्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास, रामदास, कबीर आदि बिना पैसे के अमीर थे । वे जानते थे कि मनुष्य का सब आवश्यक भोजन मुख द्वारा ही अन्दर नहीं जाता और न आनन्द देने वाली वस्तुएँ पैसे से खरीदी जा सकती हैं । ईश्वर ने जीवन रूपी पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर अमूल्य रहस्यों को अंकित कर रखा है, यदि हम चाहें तो उनको पहचान कर जीवन को प्रकाशपूर्ण बना सकते हैं । एक विशाल हृदय और उच्च आत्मा वाला मनुष्य झोंपड़ी में भी रत्नों की जगमगाहट पैदा करेगा । जो सदाचारी है और परोपकार में प्रवृत्त है, वह इस लोक में धनी है और परलोक में भी l भले ही उसके पास द्रव्य का अभाव हो । यदि आप विनयशील, प्रेमी, निस्वार्थ और पवित्र हैं तो विश्वास कीजिए कि आप अनन्त धन के स्वामी है।
जिसके पास पैसा नहीं, वह गरीब कहा जायगा, परन्तु जिसके पास केवल पैसा है, वह उससे भी अधिक कंगाल है । क्या आप सद्बुद्धि और सद्गुणों को धन नहीं मानते ? अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़े थे और गरीब थे, पर जब जनक की सभी में जाकर अपने गुणों का परिचय दिया तो राजा उनका शिष्य हो गया । द्रोणाचार्य जब धृतराष्ट्र के राज-दरबार में पहुँचे तो उनके शरीर पर कपड़े भी न थे, पर उनके गुणों ने उन्हें राजकुमारों के गुरु का सम्मानपूर्ण पद दिलाया । महात्मा ड्योजनीज के पास जाकर दिग्विजयी सिकन्दर ने निवेदन किया-महात्मन् ! आपके लिए क्या वस्तु उपस्थित करौँ ? उन्होंने उत्तर दिया-‘मेरी धूप मत रोक और एक तरफ खड़ा हो जा । वह चीज मुझसे मत छीन, जो तू मुझे नहीं दे सकता ।’ इस पर सिकन्दर ने कहा-यदि मैं सिकन्दर न होता ड्योजनीज ही होना पसन्द करता ।’
गुरु गोविन्द सिंह, वीर हकीकतराय, छत्रपति शिवाजी, राणा प्रताप आदि ने धन के लिए अपना जीवन उत्सर्ग नहीं किया था । माननीय गोखले से एक बार एक सम्पन्न व्यक्ति ने पुछा-‘आप इतने राजनीतिज्ञ होते हुए भी गरीबी
का जीवन क्यों व्यतीत करते हैं ?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘मेरे लिए यही बहुत है । पैसा जोड़ने के लिए जीवन जैसी महत्वपूर्ण वस्तु का अधिक भाग नष्ट करने में मुझे कुछ भी बुद्धिमत्ता प्रतीत नहीं होती ।’
तत्वज्ञों का कहना है कि-ऐ ऐश्वर्य की इच्छा करने वालो ! अपने तुच्छ स्वार्थों को सड़े और फटे-पुराने कुर्ते की तरह उतार कर फेंक दो, प्रेम और पवित्रता के नवीन परिघान ग्रहण कर लो । रोना, झींकना, घबराना और निराश होना छोड़ो, विपुल सम्पदा आपके अन्दर भरी हुई है । धनवान बनना चाहते हो तो उसकी कुञ्जी बाहर नहीं, भीतर तलाश करो । धन और कुछ नहीं, सद्गुणों का छोटा- सा प्रदर्शन मात्र है लालच, क्रोध, घृणा, द्वेष, छल और इन्द्रिय लिप्सा को छोड़ दो । प्रेम , पवित्रता , सज्जनता, नम़ता, दयालुता, धैर्य और प्रसन्नता से अपने मन को भर लो । बस फिर दरिद्रता तुम्हारे द्वार से पलायन कर जायगी । निर्बलता और दीनता के दर्शन भी न होंगे । भीतर से एक ऐसी अगम्य और सर्व विजयी शक्ति का आविर्भाव होगा, जिसका विशाल वैभव दूर-दूर तक प्रकाशित हो जायगा ।
ईमानदारी की कमाई ही स्थिर रहती है
जो मनुष्य धन के विषय में अध्यात्मवेत्ताओं के दृष्टिकोण को समझ लेता है, वह उसे कभी सर्वोपरि स्थान नहीं दे सकता । इसका अर्थ यह नहीं कि वह संसार को त्याग दे अथवा निर्धनता और दरिद्रता का जीवनयापन करने लगे । हमारे कथन का आशय इतना ही है कि धन के लिए नीति और न्याय के नियमों की अवहेलना कदापि मत करो और जहाँ घर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का प्रश्न उठे वहाँ हमेशा धर्म और सत्य का पक्ष ग्रहण करो, चाहे उससे धन का लाभ होता हो और चाहे हानि l धन कमाया जाय और उसका उचित उपभोग भी किया जाय, पर पूरी ईमानदारी के साथ ।
धन नदी के समान है । नदी सदा समुद्र की ओर अर्थात् नीचे की ओर बहती है । इसी तरह धन को भी जहाँ आवश्यकता हो वहीं जाना चाहिए । परन्तु जैसे नदी की गति बदल सकती है, वैसे ही धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता है । कितनी ही नदियाँ इधर-उधर बहने लगती हैं और उनके आस-पास बहुत सा पानी जमा हो जाने से जहरीली हवा पैदा होती है । इन्हीं नदियों में बाँध, बाँधकर जिघर आवश्यकता हो उघर उनका पानी ले जाने से वही पानी जमीन को उपजाऊ और आस-पास की वायु को उत्तम बनाता है । इसी तरह धन का मनमाना व्यवहार होने से बुराई बढ़ती है, गरीबी बढ़ती है । सारांश यह है कि वह धन विष तुल्य हो जाता है, पर यदि उसी धन की गति निश्चित कर दी जाय, उसका नियमपूर्वक व्यवहार किया जाय, तो बाँधी हुई नदी की तरह वह सुखप्रद बन जाता है ।
अर्थशास्त्री घन की गति के नियंत्रण के नियम को एकदम भूल जाते हैं । उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है, परन्तु धन तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है । एक जमाना ऐसा था जब यूरोप में धनिकों को विष देकर लोग उनके घन से स्वयं घनी बन जाते थे । आजकल गरीब लोगों के लिए जो खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं, उनमें व्यापारी लोग मिलावट कर देते हैं । जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू, कहवे में ‘चीकरी’ मक्खन में चरबी इत्यादि । यह भी विष दे कर धनवान होने के समान ही है । क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं ?
परन्तु यह समझ लेना चाहिए कि अर्थशास्त्री निरी लूट से ही धनी होने की बात कहते हैं । उनकी ओर से कहना ठीक होगा कि उनका शास्त्र कानून-संगत और न्याय युक्त उपायों से धनवान होने का है, पर इस जमाने में यह भी होता है कि अनेक बातें जायज होते हुए भी न्याय बुद्धि से विपरीत होती हैं । इसलिए न्यायपूर्वक घन अर्जन करना ही सच्चा रास्ता कहा जा सकता है और यदि न्याय से ही पैसा कमाने की बात ठीक हो तो न्याय-अन्याय का विवेक उत्पन्न करना मनुष्य का पहला चाहिए । केवल लेन-देन के व्यावसायिक नियम से काम लेना या व्यापार करना काफी नहीं है । यह तो मछंलियाँ, भेड़ये और चुहे भी करते हैं । बड़ी मछली छोटी मछली को भी खा जाती है चूहा छोटे जीव – जन्तुओं को खा जाता है और भेड़िया आदमी को खा डालता है । उनका यही नियम है, उन्हें दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, परन्तु मनुष्य ने ईश्वर को समझ दी है, न्याय-बुद्धि दी है । उसके द्वारा दूसरों को भक्षण कर उन्हें ठगकर उन्हें भिखारी बनाकर उसे धनवान न बनना चाहिए ।
धन साधन मात्र है और उससे सुख तथा दुःख दोनों ही हो सकते हैं । यदि वह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती है और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है । खराब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उससे ( मान लीजिए कि ) गोले-बारूद बनते हैं और लोगों को सर्वनाश होता है । गोला-बारूद बनाने वाला राष्ट्र और जिस पर इनका प्रयोग होता है वे दोनों ही हानि उठाते और दुःख पाते हैं ।
इस तरह हम देखते हैं कि सच्चा आदमी ही धन है । जिस राष्ट्र में नीति है वह धन सम्पन्न है । यह जमाना भोग-विलास का नहीं है । हर एक आदमी को जितनी मेहनत-मजदूरी हो सके उतनी करनी चाहिए ।
सोना-चाँदी एकत्र हो जाने से कुछ राज्य मिल नहीं जाता । यह स्मरण रखना चाहिए कि पश्चिम में सुधार हुए अभी सौ ही वर्ष हुए हैं । बल्कि सच पूछिये तो कहा जाना चाहिए कि इतने ही दिनों में पश्चिम की जनता वर्णशंकर-सी होती दिखाई देने लगी है ।
व्यापारी का काम भी जनता के लिए जरूरी है, पर हमने मान लिया है कि उसका उद्देश्य केवल अपना घर भरना है । कानून भी इसी दृष्टि से बनाये जाते हैं कि व्यापारी झपाटे के साथ धन बटोर सके । चाल भी ऐसी ही पड़ गई है कि ग्राहक कम से कम दाम दे और व्यापारी जहाँ तक हो सके अधिक मँगे और ले । लोगों ने खुद ही व्यापार में ऐसी आदत ड़ाली और अब उसे उसकी बेईमानी के कारण नीची निगाह से देखते हैं । इस प्रथा को बदलने की आवश्यकता है । यह कोई नियम नहीं हो गया है कि व्यापारी को अपना स्वार्थ ही साधना-धन ही बटोरना चाहिए । इस तरह के व्यापार को हम व्यापार न कहकर चोरी कहेंगे । जिस तरह सिपाही राज्य के सुख के लिए जान देता है उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए घन गवा देना चाहिए, प्राण भी दे देना चाहिए । सिपाही का काम जनता की रक्षा करना है, धर्मोपदेशक का, उसको शिक्षा देना है । चिकित्सक का उसे स्वस्थ रखना है और व्यापारी का उसके लिए आवश्यक माल जुटाना है । इन सबका कर्तव्य समय पर अपने प्राण भी दे देना है ।
लेखक: श्रीराम शर्मा आचार्य