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धन का सदुपयोग भाग ३

by Akhand Jyoti Magazine

धन का अपव्यय बन्द कीजिए

ईमानदारी और सत्य व्यवहार के उपदेश सुनते हुए भी बहु-संख्यक व्यक्ति इनका पालन नहीं कर सकते, इसका मुख्य कारण है हमारी अपव्यय की आदत । जिन लोगों को दूसरों की देखा – देखी अपनी सामर्थ्य से अधिक शान-शौकत दिखलाने, तरह-तरह के बेकार खर्च करने की आदत पड़ जाती है, वे इच्छा करने पर भी ईमानदारी पर स्थिर नहीं रह सकते । ऐसे लोगों की आर्थिक अवस्था किन कारणों से नहीं सुधर पाती उसका एक चित्र यहाँ दिया जाता है ।

आप १००) रुपये मासिक कमाते हैं, पास-पड़ोस वाले आपको आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न समझते हैं, आपके हाथ में रुपये आतेजाते हैं, किन्तु आपको यह देखकर अत्यन्त दुःख होता है कि आपका वेतन महीने की बीस तारीख को ही समाप्त हो जाता है । अन्तिम दस दिन खींचतान, कर्ज, तंगी और कठिनाई से कटते हैं । आप बाजार से उधार लाते हैं, जीवन रक्षा के पदार्थ भी आप नहीं खरीद पाते । आपके नौकर, बच्चे, पत्नी आपसे पैसे माँगते हैं, बाजार वाले तगादे भेजते हैं, आप किसी प्रकार अपना मुँह छिपाये टालमटोल करते रहते हैं और बड़ी उत्सुकता से महीने की पहली तारीख की प्रतीक्षा करते हैं । वर्ष के बारहों महीने यह क्रम चलता है । कुछ बचत नहीं होती, वृद्धावस्था में दूसरों के आश्रित रहते हैं, बच्चों के विवाह तक नहीं कर पाते, पुत्रों को उच्च शिक्षा या अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूर्ण नहीं कर पाते, लेकिन क्यों ?

कभी आपने सोचा है कि आपका वैतन क्यों २० तारीख को समाप्त हो जाता है ? आप असंतुष्ट झुँझलाये से क्यों रहते हैं ?

अच्छा अपने घर के समीप वाली जो पान- सिगरेट की दुकान है, उसका बिल लीजिए । महीने में कितने रुपये आप पान-सिगरेट में व्यय करते हैं ? प्रतिदिन कम से कम ५-६ सिगरेट और दो-चार पान आप प्रयोग में लेते हैं । बढ़िया सिगरेट या बीड़ी-माचिस आपकी जेब में पड़ी रहती है । यदि चार-पाँच आने रोज भी आपने इसमें व्यय किये तो महीने के आठ-दस रुपये सिगरेट में फुँक गये । सिगरेट वाले का यह तो न्यूनतम व्यय है । बहुत से १५ से २० रुपये प्रतिमास तक खर्च कर डालते हैं ।

चाट-पकौड़ी, चाय वाला, काफी हाउस, रेस्तरां, चुसकी, शरबत, सोड़ा, आइसक्रीम, लाइट रिफ्रेशमेंट वालों से पूछिए कि वे आपकी कमाई का कितना हिस्सा ले लेते हैं ? यदि अकेले गये तो -५० पैसे या- ७५ पैसे का अन्यथा एक रुपया-सवा रुपया का बिल मित्रों के साथ जाने पर बन जाता है । एक प्याली चाय ( या प्रत्यक्ष विष) खरीद कर आप अपने पसीने की कमाई व्यर्थ गैंवाते हैं । चुस्की, शरबत, सोड़ा  क्षणभर की चटोरी आदतों की तृप्ति करती हैं । इच्छा फिर भी अतृप्त रहती है । मिठाई से न ताकत आती है, न कोई स्थाई लाभ होता है, उलटे पैट में भारी विकार उत्पन्न होते हैं ।

सिनेमा हाउस का टिकिट बेचने वाला और गेट कीपर आपको पहिचानता है । आपको देखकर वह मुस्करा उठता है । हैँसकर दो बातें करता है । फिल्म अभिनेत्रियों की तारीफ के पुल बाँध देता है । आप यह फिल्म देखते हैं, साथ ही दूसरी का नमूना देखकर दूसरी को देखने का बीज मन में ले आते हैं । एक के पश्चात् दूसरी फिर तीसरी फिल्म को देखने की धुन सवार रहती है और रुपया व्यय कर, आप सिनेमा से लाते हैं वासनाओं का ताण्डव, कुत्सित कल्पना के वासनामय चित्र, गन्दे गीत, रोमाण्टिक भावनाएँ, शरारत से भरी आदतें । साथ ही अपनी नेत्र ज्योति भी बरबाद करते हैं । गुप्त रूप से वासना पुर्ति के नाना उपाय सोचते, दिमागी ऐय्याशी करते और रोग ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।

बीमारियों में आप मास में ८-१० रुपये व्यय करते हैं । किसी को बुखार है, तो किसी को खाँसी, जुकाम, सरदर्द या टॉन्सिल । पत्नी प्रदर या मासिक धर्म के रोगों से दुःखी है । आप स्वयं कब्ज या अन्य किसी गुप्त रोग के शिकार हैं, तब तो कहने की बात ही क्या है ? कभी इन्जेक्शन, तो कभी किसी को ताकत की दवाई चलती ही रहती है । कुछ बीमारियाँ ऐसी भी हैं जिन्हें आपने स्वयं पाल-पोस कर बड़ा किया है । आप दाँत साफ नहीं करते, फिर आये दिन नये दौत लगवाते या उन्हीं का इलाज कराया करते हैं । दंत डाक्टर आपकी लापरवाही और आलस्य पर पलते हैं । क्या आपने कभी सोचा है कि आपके शहर में दवाइयों की इतनी दुकानें क्यों बढ़ती चली जा रही हैं ? हम ही अपना पैसा रोगों के शिकार होकर इन्हें देते हैं और पालते हैं।

विवाह, झूठा दिखावा, धनी पड़ोसी की प्रतियोगिता, सैर -सपाटा, यात्राएँ, उत्सरवों, दान इत्यादि में आप प्रायः इतना व्यय कर डालते हैं कि साड़ी या किसी अन्य कीमती सामान की जिद की, तो आप अपनी जेब देखने के स्थान पर केवल उसे प्रसन्न करने मात्र के लिए तुरन्त कुछ भी शौक की चीज खरीद लेते हैं ।

आप दिन में एक रुपया कमाते हैं, पर भोजन, वस्त्र या मकान अच्छे से अच्छा रखना चाहते हैं । फैशन में भी अन्तर नहीं करते, आराम और विलासिता की वस्तुएँ-क्रीम, पाउडर, शेविंग, सिनेमा, रेशमी कपड़ा, सूट-बूट सुगन्धित तेल, सिगरेट भी कम करना नहीं चाहते । फिर बताइये कर्जदार क्यों कर न बनें ?

आपका धोबी महीने में १० रुपये आपसे कमा लेता है । आप दो दिन तक एक धुली हुई कमीज नहीं पहनते । पैण्ट की क्रीज, रंग, एक दिन में खराब कर डालते हैं, हर सप्ताह हेयर कटिंग के लिए जाते हैं, प्रतिदिन जूते पर पालिश करते हैं, बिजली के पंखे और रेडियो के बिना आपका काम नहीं चलता । पैसे पास नहीं, फिर भी आप अखबार खरीदते हैं, मित्रों को घर पर बुलाकर कुछ न कुछ चटाया करते हैं । रिक्शा, इक्के, ट्राम, साइकिल की सवारी में आपके काफी रुपये नष्ट होते है ।

ज्यों-ज्यों आपकी आवश्यकता बढ़ेंगी, त्यों-स्यों आपको खर्च की तंगी का अनुभव होगा । आजकल कृत्रिम आवश्यकताएँ वृद्धि पर हैं । ऐश, आराम, दिखावट, मिध्या गर्व प्रदर्शन, विलासिता, शौक, मेले, तमाशे, फैशन, मादक द्रव्यों पर फिजूलखर्ची खूब की जा रही है । ये सब क्षणिक आनन्द की वस्तुएँ हैं । कृत्रिम आवश्यकताएँ हमें गुलाम बनाती हैं । इन्हीं के कारण हम मैंहगाई और तंगी अनुभव करते हैं । चूँकि कृत्रिम आवश्यकताओं में हम अधिकांश आमदनी व्यय कर देते हैं, हमें जीवन रक्षक ओर आवश्यक पदार्थ खरीदते हुए मैंहगाई प्रतीत होती है । साधारण, सरल और स्वस्थ जीवन के लिए निपुणतादायक पदार्थ अपेक्षाकृत अब भी सस्ते हैं । जीवन रक्षा के पदार्थ-अन्न, वस्त्र, मकान इत्यादि साधारण दर्जे के भी हो सकते हैं । मजे में आप निर्वाह कर सकते हैं । अतः जैसे- जैसे जीवन रक्षक पदार्थो का मूल्य बढ़ता जावे, वैसे-वैसे आपको विलासिता और ऐशोआराम की वस्तुएँ त्यागते रहना चाहिए । आप केवल आवश्यक पदार्थों पर दृष्टि रखिए, वे चाहे जिस मुल्य पर मिलें खरीदिए किन्तु विलासिता और फिजूलखर्ची से बचिए । बनावटी, अस्वाभाविक रूप से दूसरों को भ्रम में डालने के लिए या आकर्षण में फँसाने के लिए जो मायाचार चल रहा है, उसे त्याग दीजिए । भड़कीली पोशाक के दंभ से मुक्ति पाकर आप सज्जन कहलायेंगे ।

आप पूछेंगे कि आवश्यकताओं, आराम की वस्तुओं और विलासिता की चीजों में क्या अन्तर है ? मनुष्य के लिए सबसे मूल्यवान उसका शरीर है । शरीर में उसका सम्पूर्ण कुटुम्ब भी सम्मिलित है । वह अपना और अपने परिवार का शरीर (स्वास्थ्य और अधिकतम सुख ) बनाये रखने की फिक्र में है । उपभोग के आवश्यक पदार्थ वे हैं, जो शरीर और स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं । ये ही मनुष्य के लिए महत्व के हैं ।

जीवन रक्षक पदार्थों के अन्तर्गत तीन चीजें प्रमुख हैं । ( १) भोजन (२) वस्त्र (३) मकान । भोजन मिले, शरीर ढकने के लिए वस्त्र हों और सर्दी-गर्मी-बरसात से रक्षा के निमित्त मकान हो । यह वस्तुएँ ठीक है, जीवन रक्षा और निर्वाह चलता रहता है । जीवन की रक्षा के लिए ये वस्तुएँ अनिवार्य हैं ।

यदि इन्हीं पदार्थों की किस्म अच्छी है तो शरीर रक्षा के साथ-साथ निपुणता भी प्राप्त होगी । कार्य शक्ति, स्फूर्ति बल और उत्साह में वृद्धि होगी, शरीर निरोग रहेगा और मनुष्य दीर्घ जीवी रहेगा । ये निपुणतादायक पदार्थ क्या है ? अच्छा पौष्टिक भोजन, जिसमें अन्न, फल, दूध, तरकारियाँ, घृत इत्यादि प्रचुर मात्रा में हों, टिकाऊ वस्त्र, जो सर्दी से रक्षा कर सकें, हवादार स्वस्थ वातावरण में खड़ा हुआ मकान जो शरीर को धूप, हवा, जल इत्यादि प्रदान कर सके ।

यदि आपकी आमदनी इतनी है कि निपुणतादायक चीज ( अच्छा अन्न, घी, दूध, फल, हवादार मकान, स्वच्छ कस्त्र, कुछ मनोरंजन ) खरीद सकते हैं, तो आराम की चीजों को अवश्य लीजिए । इनसे आपकी कार्य कुशलता तो बढ़ेगी, पर उस अनुपास में नहीं जिस अनुपात में आप खर्च करते हैं ।

विलासिता में धन व्यय करना नाशकारी है

इनसे खर्च की अपेक्षा निपुणता और कार्य कुशलता कम प्राप्त होती है । कभी-कभी कार्य कुशलता का हास तक हो जाता है । मनुष्य आलसी और विलासी बन जाता है, काम नहीं करना चाहता । रुपया बहुत खर्च होता है, लाभ न्यून मिलता है ।

इस श्रेणी में ये वस्तुएँ हँ-आलीशान कोठियाँ, रेशम या जरी के बढ़िया कीमती भड़कीले वस्त्र, मिष्ठान्न, मेवे, चाट-पकौड़ी, शराब, चाय तरह –तरह के अचार-मुरब्बे, माँस भक्षण, फैशनेबिल चीजें, मोटर, तम्बाकू, पान, गहने, जन्मोत्सव, और विवाह में अनाप-शनाप व्यय, रोज दिन में दो बार बदले जाने वाले कपड़े, साड़ियाँ, अत्यधिक सजावट, नौकर-चाकर, मनोरंजन के कीमती सामान, घोड़ा गाड़ी, रेस्टरां में खाना, सिनेमा, सिगरेट, पान, वेश्यागमन, नाच – रंग, व्यभिचार, श्रृंगारिक पुस्तकें, कीमती सिनेमा की पत्र- पत्रिकायें, तसवीरें, अपनी हैसियत से अधिक दान, हवाखोरी, सफर, यात्रायें, बढ़िया रेडियो, भड़कीली पोशाक, क्रीम, पाउडर, इत्र आदि । उपरोक्त वस्तुएँ जीवन रक्षा या कार्य कुशलता के लिए आवश्यक नहीं हैं किन्तु रुपये की अधिकता से आदत पड़ जाने से आदमी अनाप-शनाप व्यय करता है और इनकी भी जरूरत अनुभव करने लगता है । इन्हीं वस्तुओं पर सब से अधिक टैक्स लगते हैं, कीमत बढ़ती है । ये कृत्रिम आवश्यकताओं से पनपते हैं । इनसे सावधान रहिए ।

हम देखते हैं कि लोग विवाह, शादी, त्यौहार, उत्सव प्रीतिभोज आदि के अवसर पर दूसरे लोगों के सामने अपनी हैसियत प्रकट करने के लिए अन्याघुन्ध व्यय करते हैं । भूखों मरने वाले लोग भी कर्ज लेकर अपना प्रदर्शन इस धूमधाम से करते हैं मानो कोई बड़े भारी अमीर हों । इस धूमधाम में उन्हें अपनी नाक उठती हुई और न करने में कटती हुई दिखाई पड़ती है ।

भारत में गरीबी है, पर गरीबी से कहीं अधिक मूढ़ता, अन्य-विश्वास, रूढ़िवादिता, मिथ्या प्रदर्शन, घमण्ड, धर्म का तोड़ – मरोड़़ दिखावा और अशिक्षा है । हमारे देशवासियों की औसत आय तीन-चार आने, प्रतिदिन से अधिक नहीं । इसी में हमें भोजन, वस्त्र, मकान तथा क्वाह-शादियों के लिए क्चत करनी होती है । पैसे की कमी के कारण हमारे देशवासी मुश्किल से दूघ, घी, फल इत्यादि खा सकते हैं । अधिक संख्या में तो वे स्वच्छ मकानों में भी नहीं रह पाते, अच्छे वस्त्र प्राप्त नहीं कर पाते, बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाते, बीमारी में उच्च प्रकार की चिकित्सा नहीं करा सकते, यात्रा, अध्ययन, मनोरंजन के साधनों से वंचित रह जाते हैं ।

फिर भी शोक का विषय है कि वे विवाह के अवसर पर सब कुछ भूल जाते हैं, मृतक भोज कर्ज लेकर करते हैं, मुकदमेबाजी में हजारों रुपया पूँक देते हैं । इस उपक्रम के लिए उन्हें वर्षों  पेट काटकर एक-एक कौड़ी जोड़नी पड़ती है, कर्ज लेना पड़ता है, या और कोई अनीति मूलक पेशा करना पड़ता है ।

आर्थिक सफलता की कुञ्जी आत्मविश्वास

अगर आपने घन के वास्तविक रूप को समझ लिया है और आप उसका दुरुपयोग करने से बच कर रहते हैं, तो कोई कारण नहीं कि उचित प्रयत्न करने पर आप आर्थिक सफलता प्राप्त न करें ।

आप आर्थिक रूप से सफल होना चाहते हैं तो समृद्धि के विचारों को बहुतायत से मनोमन्दिर में प्रविष्ट होने दीजिए यह मत समझिए कि आपका सरोकार दरिद्रता, क्षुद्रता, नीचता से है । संसार में यदि कोई चीज सबसे निकृष्ट है तो वह विचार दारिद्र्य ही है । जिस मनुष्य के विचारों में दरिद्रता प्रविष्ट हो जाती है, वह रुपया पैसा होते हुए भी सदैव भाग्य का रोना रोया करता है । दरिद्रता के अनिष्टकारी विचार हमें समृद्धशाली होने से रोकते हैं, दरिद्री ही बनाये रखते हैं ।

आप दरिद्री, गरीब या अनाथ हीन अवस्था में रहने के हेतु पृथ्वी पर नहीं जन्मै हैं । आप केवल मुट्ठी भर अनाज या वस्त्र के लिए दास वृत्ति करते रहने को उत्पन्न नहीं हुए हैं ।

गरीब क्यों सदैव दीनावस्था में रहता है । इसका प्रधान कारण यह है कि वह उच्च आकांक्षा, उत्तम कल्पनाओं, स्वास्थदायक स्फूर्तिमय विचारों को नष्ट कर देता है, आलस्य और अविवेक में डूब जाता है, हृदय को संकुचित, क्षुद्र प्रेम विहीन और निराश बना लेता है । सीमाक्रान्त दरिद्रता आने पर जीवन ठहर भी जाता है, प्रगति अवरुद्ध हो जाती है, मनुष्य ऋण से दबकर निष्प्रभ हो जाता है, उसे अपने गौरव, स्वाभिमान को भी सुरक्षित रखना दुष्कर प्रतीत होता है । दरिद्री विचार वाले असमय में ही वृद्ध होते देखे गये हैं । जो बच्चे दरिद्री घरों में जन्म लेते हैं, उनके गुप्त मन में दरिद्रता की गुप्त मानसिक ग्रन्थियौँ इतनी जटिल हो जाती हैं, कि वे जीवन मैं कुछ भी उच्चता या श्रेष्ठता प्राप्त नहीं कर सकते । दरिद्वता कमल के समान तरोताजा चेहरों को मुर्झा देती है । सर्वोत्कृष्ट इच्छाओं का नाश हो जाता है । यह दुस्सह मानसिक दरिद्रता मनुष्य को पीस देने वाली है । सैकड़ों मनुष्य इसी क्षुद्रता के गर्त में डूबे हुए हैं ।

आर्थिक सफलता के लिए भी एक मानसिक परिस्थिति, योग्यता एवं प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है । लक्ष्मी का आवाहन करने के हेतु भी मानसिक दृष्टि से आपको कुछ पूजा का सामान एकत्रित करना होता है ।

दीपावली के लक्ष्मी पूजन के अवसर पर आप घर झाड़ते, लीपते, पोतते, सजाते हैं । नई-नई तस्वीरें कलात्मक वस्तुओं से घर को चित्रित करते हैं, अपने शरीर पर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषण धारण करते हैं । इसी भाँति मानसिक पूजा भी किया कीजिए । अर्थात् मन के कोने-कोने से दरिद्रता, गरीबी, परवशता, क्द्रता, संकुचितता, ऋण के जाले विवेक की झाडू से साफ कर दीजिए, मानसिक पटल को आशावादिता की सफेदी से पोत लीजिए । मानसिक घर में आनन्द, आशा, उत्साह, प्रसन्नता, हास्य-उत्फुल्लता, खुशमिजाजी, के मनोरम चित्र लगा लीजिए । फिर श्रम और मितव्ययता के नियमों के अनुसार लक्ष्मीदेवी की साधना कीजिए । आर्थिक सफलता आपकी होगी । सब विद्याओं में शिरोमणि वह विद्या है जो हमें पवित्रता और निकृष्ट विचारों से मन को साफ करना सिखाती है ।

परमपिता परमात्मा की कभी यह इच्छा नहीं कि हम आर्थिक दृष्टि से भी दूसरों के गुलाम बने रहें । हमें उन्होंने विवेक दिया है, जिसे धारण कर हम उचित-अनुचित खर्चो का अन्तर समझ सकते हैं, विषय वासना और नशीली वस्तुओं से मुक्त हो सकते हैं, अपने अनुचित खर्चे, विलासिता और फैशन में कमी कर सकते हैं, घर में होने वाले नाना प्रकार के अपव्यय को रोक सकते हैं । अपनी आय वृद्धि करना हमारे हाथ की बात है । जितना हम परिश्रम करेंगे, योग्यताओं को बढ़ायेंगे, अपनी विद्या में सर्वोत्कृष्टता, मान्यता, निपुणता प्राप्त करेंगे, उसी अनुपात में हमारी आय भी बढ़ती चली जावेगी । सबको अपनी-अपनी योग्यता और निपुणता के अनुसार घन प्राप्त होता है । फिर क्यों न हम अपनी योग्यता बढ़ायें और अपने आपको हर प्रकार से योग्य प्रमाणित करें ।

श्री ओरसिन मार्डन ने अपनी पुस्तक ‘शान्ति, शक्ति और समृद्धि’ में कई आवश्यक तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए लिखा है-

“विश्व के अनेक दरिद्री लोगों के कारण को खोजो तो पता लगेगा कि उनमें आत्म विश्वास नहीं था, उन्हें यह विश्वास नहीं है कि वे दरिद्रता से छुटकारा पा सकते हैं । कठोर स्थिति में भी अपने आप को उन्नत बना सकते हैं । सैकड़ों नहीं प्रत्युत हजारों ऐसी स्थिति में उन्नत-घनवान् बने हैं और इसलिए हम कहते हैं कि इन गरीबों के लिए भी आशा है । वे दुर्घर्ष परिस्थिति को बदल सकते हैं । संसार में आत्म-विश्वास ही ऐसी कुञ्जी है कि जो सफलता का द्वार खोल सकती है ।”

संसार में जितनी प्रकार की श्रेष्ठ-शक्तियाँ हैं वे भगवान की प्रदान की हुई हैं । धन की शक्ति भी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न की गई है और उन्होंने ‘लक्ष्मी’ के रूप में उसे संसार के कल्याणार्थ प्रेरित किया है । मनुष्य का कर्तव्य है कि इसे भगवान् की पवित्र धरोहर समझकर ही व्यवहार करे । इतना ही नहीं उसे इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह शक्ति ऐसे लोगों के पास न जा सके जो इसका दुरुपयोग करके दूसरों का अनिष्ट करने वाले हों ।

हम सदा से धन की प्रशंसा और बुराई दौनों तरह की बातें सुनते आये हैं । सन्तजनों ने ‘कामिनी और कंचन’ को आत्मिक पतन का कारण माना है । दूसरी ओर सांसारिक कवि ‘सर्वे गुणः कंचनमाश्रयन्ति’ का सिद्धान्त सुनाया करते हैं । ये दोनों ही बातें सत्य है । अगर हम धन में आसक्त होकर उसी को ‘सार-वस्तु’ समझ लें और उसकी प्राप्ति के लिए पाप पुण्य का ध्यान भी छोड़ दें अथवा उसका दुरुपयोग करें, तो निश्चय ही वह नर्क का मार्ग है । पर यदि उसे केवल सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन मान कर उचित कामों में उसका उपयोग करें तो वही कल्याणकारी बन सकता है । इसलिए आत्म-कल्याण के इच्छुकों को सदैव धन की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए उसका सदुपयोग ही करना चाहिए ।

लेखक : पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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