गायत्री मंत्र का बारहवाँ अक्षर ‘व’ मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है-
वसतां ना पवित्रः सन् बाह्यतोऽभ्यन्तरस्तथा ।
यतः पवित्रताया हि रिजतेऽति प्रसन्नता ।।
अर्थात्”मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है ।”
पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शान्ति, निश्चिन्तता, प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है । कूड़ा-करकट, मैल-विकार, पाप, गन्दगी, दुर्गन्य, सड़न, अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आन्तरिक निकृष्टता प्रकट होती है ।
आलस्य और दरिद्र, पाप और पतन जहाँ रहते हैं वहीं मलिनता या गन्दगी का निवास रहता है । जो ऐसी प्रकृति के हैं उनके वस्त्र घर, सामान, शरीर, मन, व्यवहार, वचन, लेन-देन सबमें गन्दगी और अव्यवस्था भरी रहती है । इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता, जागरूकता, सुरुचि, सात्विकता होगी वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जाएगा । सफाई, सादगी और सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है, इसी को पवित्रता कहते हैं ।
गन्दे खाद से गुलाब के सुन्दर फूल पैदा होते हैं, जिसे मलिनता को साफ करने में हिचक न होगी वही सौन्दर्य का सच्चा उपासक कहा जायगा । मलिनता से घृणा होनी चाहिए, पर उसे हटाने या दूर करने में तत्परता होनी चाहिए । आलसी अथवा गन्दगी की आदत वाले प्रायः फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर पर्दा डाला करते हैं ।
पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है । आत्मा स्वभावतः पवित्र और सुन्दर है, इसलिए आत्म परायण व्यक्ति के विचार, व्यवहार तथा वस्तुएँ भी सदा स्वच्छ एवं सुन्दर रहते हैं । गन्दगीं उसे किसी भी रूप में नहीं सुहाती, गन्दे वातावरण में उसकी साँस घुटती है, इसलिए वह सफाई के लिए दूसरों का आसरा नहीं टटोलता, अपनी समस्त वस्तुओं को स्वच्छ बनाने के लिए वह सब से पहले अवकाश निकालता है ।
पवित्रता के कई भेद हैं । सबसे पहले शारीरिक स्वच्छता का नम्बर आता है, जिसमें वस्त्रों और निवास स्थान की सफाई भी आवश्यक होती है । दूसरी स्वच्छता मानसिक विचारों और भावों की होती है । आर्थिक मामलों में भी, जैसे आजीविका, लेन-देन आदि में शुद्ध व्यवहार करना श्रेष्ठ गुण समझा जाता है । चौथी पवित्रता व्यावहारिक विषयों की है, जिसका आशय बातचीत और कार्यों के औचित्य से है । अन्तिम नम्बर आध्यात्मिक विषयों की पवित्रता का है, जिसके बिना हमारा घर्म-कर्म निरर्थक हो जाता है । इन सब में शारीरिक और मानसिक पवित्रता से लोगों का विशेष काम पड़ा करता है, क्योंकि इनके होने से अन्य विषयों में स्वयं ही पवित्र भावों का उदय होता है ।
स्वच्छता दैवी गुण है
स्वच्छता या सफाई वास्तव में एक दैवी गुण है । अग्रेजी में एक कहावत है जिसका तात्पर्य है कि सफाई से रहना देवत्व के समीप रहना है । जो साफ रहता है, अपने रहन-सहन द्वारा देवत्व प्रकट करता है । सफाई से सौन्दर्य की वृद्धि होती है । वस्तुओं का जीवन बढ़ जाता है । मशीनों की सफाई करने या समय- समय पर कराते रहने का तात्पर्य उसकी कार्य शक्तियों को बढ़ा लेना है ।
जब किसी मशीन को ओवरहाल ( आमूल नए ढंग से फिटिंग ) किया जाता है, तो न केवल सफाई हो जाती है, प्रत्युत सब पुजों को साफ कर नए सिरे से रखने के कारण उनमें नई स्फूर्ति का संचार होता है । जो पुर्जे चूँ-चूँ, चर्र- चर्र करते थे, वह थोड़े से तेल से सहज स्निग्ध होकर मजे में चलने लगते हैं । उनकी कार्य शक्ति बढ़ जाती है ।
इसी प्रकार मानव शरीर रूपी मशीन का हाल है । हंमारे शरीर में अनेक छोटे-बड़े सूक्ष्म पुर्जे हैं । हमारा शरीर, मस्तिष्क, हृदय, फेंफड़े, उदर अनेक ग्रन्थियों से मिलकर बना है । इन पुजों में निरन्तर भोजन को पचाकर रक्त बनाने की क्रिया के कारण मैल एकत्र हो जाता है । जीवन में पैसे के लिए हम शरीर को अधिक घिस डालते हैं । प्रायः नेत्रों की ज्योति श्वीण पड़ जाती है, गाल पिचक जाते हैं, दाँत गिर जाते हैं, पाचन विकार उत्पन्न हो जाते हैं । ये सब रोग शरीर की अधिक घिसावट के दुष्परिणाम हैं । यदि हम शरीर की आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार की सफाई का घ्यान रखें, तो शरीर, मन, प्राण में नई स्फूर्ति, नई शक्ति और प्रेरणा का संचार हो सकता है ।
भारत में जिस तत्व की बड़ी कमी मिलती है, वह सफाई है । सुव्यवस्था और सौन्दर्य इसके पुत्र पुत्री हैं । लोगों के पास मान, प्रतिष्ठा, उत्साह है, पर स्वच्छता और सुव्यवस्था का बड़ा अभाव है । दुकानें, गलियाँ, सार्वजनिक स्थान, भोजन तथा मिठाई के बाजारों में आप पत्तों के ढेर, जूठन, मैल, मक्खियाँ, नालियों में भरा हुआ कीचड़, मैला देखकर हमें हिन्दुस्तानियों की गन्दी आदतों पर लज्जा आती है । लोग बड़ी धर्मशालाएँ बनाते हैं, पर उनमें सफाई का ध्यान नहीं देते । टट्टियों तथा नालियों की सफाई पर व्यय नहीं करते । सार्वजनिक टट्टियों में सभ्य व्यक्ति को जाते हुए शर्म आती है । मेहतर अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते ।अधिकारी वर्ग देखरेख के मामले मैं शिथिलता दिखलाता है । टट्टी के घिनौने स्वरूप रेल के डिब्बों और रेल के स्टेशनों पर पाई जाने वाली टट्टियों में भी देखे जाते हैं । जितना बड़ा शहर, उसकी गलियों में उतना ही अन्धेरा, बदबू और गन्दगी पाई जाती है । जहाँ मवेशी बँधे जाते हैं, वहाँ का तो कहना ही क्या ?
सफाई एक सार्वजनिक आदत है । सार्वजनिक गन्दगी पर लाज आनी चाहिए । जहाँ दूसरे राष्ट्रों में सफाई की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, सरकार पर्याप्त व्यय करती है, म्यूनिसिपैलिटी बहुत ध्यान देती है, प्रत्येक नागरिक सार्वजनिक सफाई की ओर ध्यान देता है, वहाँ हमारे यहाँ कोई भी इस ओर ध्यान नहीं देता ।
नागरिक विशेष्तः ग्रामीण व्यक्ति और नारी समाज इतने पिछड़े हुए हैं कि जहाँ कहीं जाते हैं सार्वजनिक स्थानों को गन्दा छोड़ जाते हैं और कितने ही व्यक्ति उनसे फिसल कर घायल होते हैं । सिनेमा हालों में मूँगफली के ढेर सारे छिलके, बीड़ी-सिगरेट के टुकड़़े, पान की पीक यत्र-तत्र फैले हुए मिलते हैं । स्टेशनों को हर आधे घंटे पश्चात् साफ किया जाता है, पर वह गन्दा होता जाता है । ये बातें हमारी गन्दी आदत की सूचक हैं । हमें अपनी इन आदतों पर लज्जित होना चाहिए ।
शारीरिक स्वच्छता के दो अंग हैं-बाह्म तथा आन्तरिक सफाई । नित्य प्रति मालिश और व्यायाम के पश्चात् स्नान करने से और खुरदरे तौलिए से पोंछने से शरीर स्वच्छ होता है । प्रायः लोग बार-बार स्नान करने का क्रम करते हैं, जल में पड़े रहते हैं, असंख्य गोते लगाते हैं, बाल्टी पर बाल्टी पानी डालते हैं लेकिन सच्चे अर्थों में यह स्नान नहीं है । जब तक शरीर के रोमकूप स्वच्छ नहीं होते और त्वचा का संचित मल दूर नहीं होता, तब तक शरीर की स्वच्छता नहीं हो सकती । खुरदरे तौलिए के पानी में भिगोकर त्वचा के पोंछने से त्वचा साफ होती है । नाखूनों को काटना, नासिका द्वार को स्वच्छ रखना, जिह्वा की स्वच्छता से हमारे बहुसंख्यक भाई प्रायः उपेक्षित रहते हैं । इन पर बड़ा ध्यान देने की आवश्यकता है ।
आन्तरिक स्वच्छता का साधन उपवास है । उपवास करने से संचिप्त भोजन पच जाता है, मल पदार्थ निकल जाते हैं और पेट की बीमारियाँ दूर होती हैं । हमारे देश में उपवास धर्म के अन्तर्गत इसीलिए रखा गया है कि सब इससे लाभ उठा सकें । यथासाध्य ठण्डे जल से स्नान करें l मूत्र-त्याग और मल त्याग के पश्चात इन्द्रियों को शीतल जल से धो डालें ।
आपका घर वह स्थान है, जिसके वातावरण में आप पलते, वायु पाते, संसर्ग से प्रभावित होते हैं । प्रतिदिन हमारा १४-१५ घण्टे का जीवन घर में ही व्यतीत होता है । धर की चहारदीवारी, कमरों, फर्नीचर, वस्त्रों तथा विभिन्न स्थानों पर जो समय हम व्यतीत करते हैं, उनसे हमारी आदतों और स्वास्थ्य का निर्माण होता है । घर जितना ही स्वच्छ और सुव्यवस्थित होगा, उससे उतनी ही स्वच्छ वायु तथा आनन्द प्राप्त हो सकेगा । यदि आप दुकानदार हैं या आफिस में आठ घण्टे व्यतीत करते हैं, तो दुकान और आफिस के वातावरण का प्रभाव गुप्त रूप से पड़ता रहता है । मान लीजिए आप तम्बाकू, शराब, गांजा, भांग, चरस अथवा जूते की दुकान करते हैं । इन वस्तुओं की बदबू निरन्तर आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती रहती है । अतः हमें चाहिए कि हम अपने घर, दूकान या आफिसों को खिलौनों की तरह साफ स्वच्छ रखें ।
स्वच्छ घर में रहने वाले की आत्मा प्रसन्न रहती है । आप स्वच्छ घुले हुए वस्त्र पहन कर देखें, मन कितना खिला रहता है । उसी प्रकार सफेद पुता हुआ कमरा, स्वच्छ फर्नींचर, स्क्च्छ वस्त्र, स्नान से स्वच्छ शरीर आत्मा को प्रसन्न करने वाले हैं ।
स्वच्छ रख कर हम अपने घर के सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं और चीजों के जीवन को बढ़ा लेते हैं । हमें आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है । सफाई प्रकृति का अंग बन जाने से सर्वत्र सौंन्दर्य की सृष्टि करती है ।
आफिस, घर और दुकान में छोटी-बड़ी अंसख्य वस्तुएँ होती हैं । इनमें कुछ ऐसी होती हैं जिनका नित्य प्रयोग होता है, तो कुछ ऐसी होती हैं जो देर से निकलती हैं और काम में आती हैं । कुशल व्यक्ति अपने घर, दुकान या आफिस की वस्तुओं की व्यवस्था इस प्रकार करते हैं किआवश्यकता पड़ते ही, तुरन्त जरूरत की चीज मिल जाती है । ग्राहक आकर जिस छोटी वस्तु की माँग करता है, चतुर दुकानदार एक क्षण में उसे प्रस्तुत कर देता है । घर में दवाई से लेकर सुई, डोरा,आलपिन तक एक क्षण में मिल जानी चाहिए । आफिस की फाइल का कोई भी कागज जरा-सी देर में अफसर के सन्मुख आना चाहिए l पुस्तकालय में जो पुस्तक माँगी जाय, तुरन्त पाठक को प्राप्त होनी चाहिए ।
अव्यवस्थित दुकानदार, अफसर या परिवार का मुखिया उस व्यक्ति की तरह है, जो उर्द, मँग, मसूर, गेहू, जौ इत्यादि भिन्न-भिन्न अनाजो को एक साथ मिश्रित कर लेता है और आवश्यकता पृथक-पृथक करने में व्यर्थ शक्ति का क्षय करता है । वह न गेहूँ निकाल सकता है, न उर्द, न मूंग और यदि निकालता भी है तो उस समय जब उसके हाथ से अवसर निकल जाता है । यदि प्रारम्भ से ही वह व्यवस्था से इन अनाजों को अलग-अलग रखता तो क्यों इतना श्रम और समय नष्ट होता ।
प्रायः अफसर लोग चिल्लाया करते हैं और क्लर्क फाइलों को, भिन्न-भिन्न पत्रों को, रेफरेन्सों को तलाश करते हुए थक जाते हैं । दुकानदार वस्तुओं को गलत स्थान पर रखकर झींकते रहते हैं । घर में दियासलाई, चाकू, साबुन, तौलिया, रूमाल, हाथ का यैला, पेन्सिल, कलम इत्यादि प्रायः अव्यवस्थित होने से बड़ा हल्ला मचता रहता है । जो डाक्टर अपने यहाँ विभिन्न दवाइयों को क्रम व्यवस्था से नहीं रखते, वे पछताते रहते हैं । सर्वत्र व्यवस्था की आवश्यकता है ।
आप चाहे जिस स्थिति, वर्ग या स्तर के व्यक्ति हों, क्रम व्यवस्था की आपको सबसे अधिक आवश्यकता है । व्यवस्था से आपका कार्य सरल होगा, समय की बचत होगी और आप जल्दी काम कर सकेंगे । मन में किसी प्रकार की उलझन उपस्थित न होगी । काम करने को तबियत करेगी ।
जिस व्यक्ति में अपनी वस्तुओं को एक निश्चित क्रम और व्यवस्था से रखने की आदत होती है, वह उनको उचित स्थान पर रखकर सौन्दर्य की सृष्टि करता है । पं. जवाहलाल नेहरू जब जेल में थे, तो उनके पास कुछ गिनी-चुनी वस्तुएँ थीं-हजामत का सामान, कंघा, कलम, दवात, कागज इत्यादि । लेकिन वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उन्होंने उन्हीं को क्रम और व्यवस्था से रखकर सौन्दर्य की सृष्टि की और अपनी आत्मा को आनन्दित किया था । आपके पास जो भी वस्तुएँ हों, उन्हीं को किसी निश्चित क्रम-व्यवस्था से रखकर सौन्दर्य और उपयोगिता में वृद्धि कर सकते हैं ।
अपने घर में पृथक-पृथक कमरों को लेकर यह निश्चित कीजिए कि आप उस कमरे को किस कार्य के लिए रखना चाहते हैं-बैठक, स्टोर, प्राइवेट कमरा, औरतों के बैठने-उठने का कमरा, भोजन करने का कमरा इत्यादि । प्रत्येक कमरे को उसी कार्य के लिए क्रमवार सुव्यवस्थित कीजिए ।
मान लीजिए बाहर वाले एक कमरे को आप बैठक बनाना चाहते हैं । इसमें एक मेज, एक कुर्सी, सोफासैट रखिए, पाँव पोंछने के लिए पायदान, दीवारों पर कुछ कलेण्डर और एक-दो अच्छे चित्र, डूँटी और जूता रखने का स्थान । इस कमरे में व्यर्थ की चीजें, खूँटियों पर कपड़े या फालतू वस्तुएँ नहीं रहनी चाहिए । मेन्टलपीस पर कलात्मक रूप से सजे हुए फूलदान और एक दो फोटो । अधिक सजावट भी असभ्यता की निशानी है ।
आपके स्टोर में अनाज, दालें, महीने भर के कुटे हुए मसाले, तेल, घी, गुड़ चीनी, एक ओर वस्त्रों के सन्दुक तथा अन्य घर की वस्तुएँ रहनी चाहिए । यदि मकान छोटा हो तो क्रम से रखी हुई लकड़ियाँ और उपले भी रह सकते हैं । मिट्टी का तेल और लालटेन भी रखी जा सकती है । सोने के कमरे में भी वस्तुएँ कम ही रहें क्योंकि फालतू वस्तुओं से मच्छर होते हैं । रसोई में भी भिन्न-भिन्न बर्तन क्रम से सजे रहें । सीने, काढ़ने, बुनने और कातने का सब सामान एक स्थान पर सजा रहे । मशीन हो तो स्वच्छ तेल लगी हुई रहे । पुस्तकालय हो तो उसकी सब पुस्तकें विषयवार सजी रहें, जिससे जिस समय आवश्यकता हो निकाली जा सकें । संक्षेप में आपके पास जो भी स्थान हो, जो-जो वस्तुएँ हों, वे स्वच्छ से स्वच्छ और सबसे आकर्षक रूप में मौजूद रहे, जिन्हें देखकर आपको भी प्रसन्नता हो और देखने वाले भी प्रसन्न रहें ।
हमारे घरों में वस्त्रों की जो दुरावस्था है, उसे देखकर क्षोभ होता है । प्रायः स्त्रियाँ मैंहगे से मैँहगे रेशमी वस्त्र खरीदती हैं, पर उनके साथ अकथनीय अत्याचार होता है । इघर-उघर फेंका जाता है, आले या कौने में मैले पड़े रहते हैं, धोबी २०-२० दिन में धोकर वापस नहीं लाता । यदि हम वस्त्रों की उचित व्यवस्था रखें, मैला होने पर स्वयं उसे धो लिया करें,, तो हम आधे वस्त्रों में मजे से काम चला सकते हैं, रुपया बचा सकते हैं और स्वच्छ भी रह सकते हैं । मैहगे कपड़े बना लेना आसान है, पर उनकी सेवा करना, उनसे अधिकतम लाभ उठाना कुशलता और चतुराई का काम है ।
वस्त्रों के सन्दुक या आलमारी में वस्त्रों को करीने से रखना चाहिए । इससे वस्त्रों के कौने सिकुड़ने या मुड़ने नहीं पाते और इस्तरी नहीं टूटती । रेशमी साड़ियों को कागज में लपेट कर पृथक रखना चाहिए । फिनायल की गोलियाँ रखने से वस्त्र, विशेषतः साड़ियाँ कीड़ों से बची रहती हैं ।
वस्तुओं की सम्हाल और व्यवस्था और भी आवश्यक है । सम्हाल रखने से मशीन का जीवन कई गुना बढ़ जाता है, जबकि तनिक-सी लापरवाही से कीमती चीजें भी जल्दी ही नष्ट हो जाती हैं । यदि प्रत्येक वस्तु को उचित देख-रेख से रखा जाय, तो कह कई गुना अधिक काम देती है । क्या आप जानते हैं कि आपका फाउण्टेनपेन घिस कर नहीं खोकर नष्ट होता है । पेंसिलें कभी पूरी काम तरह काम में नहीं आतीं, कोई माँग लेता है अथवा खो जाती हैं । चाकू और रूमाल भी प्रायः खोते हैं । कीमती साड़ियाँ पहनी नहीं जाती, सन्दूकों में रखी रहती हैं और कीड़ों का भोजन बनकर नष्ट होती हैं । जिस साड़ी पर सबसे अधिक व्यय होता है, वह उतनी ही कम पहनी जाती है । आभूषणों पर औरतें प्राण देती हैं, किन्तु वे खोकर नष्ट होते हैं, इनके कारण चोरियाँ होती हैं, औरतें तक चुराली जाती हैं और अपमानित होती हैं ।
यदि आप अपनी थोड़ी-सी वस्तुओं को क्रम व्यवस्था से सजाके रखें, तो इन्हीं की सहायता से हम घर की शोभा में वृद्धि कर सकते हैं । सौन्दर्य के लिए अधिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है । जो थोड़ी – सी चीजें हैं, उन्हीं की सहायता से आप सौन्दर्य की उत्पत्ति कर सकते हैं । बस आपकी दृष्टि में कलात्मकता अपेक्षित है । कलात्मक दृष्टि से हर वस्तु का एक नियत स्थान है, जहाँ वह सुन्दरतम लग सकती है । घर की शोभा इस बात में है कि आप उस स्थान को खाज निकालें । प्रत्येक वस्तु को उठा कर नियत स्थान पर रखें । आपके कमरे में एक चित्र हो या कलैण्डर लेकिन यदि वही स्वच्छ हो, मैल का निशान न हो तो वही आकर्षक प्रतीत होता है ।
सौन्दर्य व्यवस्था पर निर्भर है । जूते कैसे नगए्य हैं, किन्तु यदि आप उन्हीं को पालिश कर सजाकर क्रमानुसार रखें, अपने सन्दूकों को स्वच्छ कर, उन पर स्वच्छ वस्त्र बिछा लिया करें, चारपाइयों की चादरों को गन्दा न होने दें, कुर्सियों, मेजों, पुस्तकों की धूल झाड़ते रहें, तो निश्चय जानिए कि घर की चीजों में ही सौन्दर्य प्रस्फुटित होगा और आपको अपने साधारण घर में ही आनन्द प्राप्त होगा । आत्मा प्रसन्न रहेगी और मन में यह साहस रहेगा कि आप अच्छे तरीके से रहते हैं ।
जीवन में अधिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जो थोड़ी-सी वस्तुएँ हों उन्हीं से सबसे अधिक, सबसे सुन्दर क्रम- व्यवस्था से काम लेने में आनन्द है । उनमें से आधी ही काम में आती हैं, बेकार पड़ी रहती हैं । आप अधिक वस्तुओं के संचय के मोह में न पड़ें वरन् अपनी अपनी थोड़ी – सी वस्तुओं को सम्हाल कर प्रयोग में लायें ।
सार्वजनिक स्थानों की सफाई, सुव्यवस्था एवं सौन्दर्य का उत्तरदायित्व आप पर है । आप एक श्रेष्ठ नागरिक हैं । समाज की उन्नति में आपका महत्वपूर्ण स्थान है । आपकी आदतों से समाज बनता, बिगड़ता, समुन्नत-अवनत होता है । अतः आप सार्वजनिक स्थानों को कार्य में लेते समय उनकी सफाई और सुव्यवस्था के सम्बन्ध में बड़े सावधान रहें ।
यदि आप घर्मशाला में टिके हैं, तो उसके कमरे या इर्द-गिर्द की सफाई का ध्यान रखें, कमरे को वैसा ही सुन्दर छोड़कर जायें, जैसा वह आपको मिला था । पब्लिक पाखानों का ठीक स्तेमाल करें । पेशाबघरों में सर्वत्र घ्यान रखें । पब्लिक पार्क, मन्दिर, सार्वजनिक बिल्डिंगों को बिगड़ने न दें । रेल के डिब्बे हम सबके काम आते हैं, किन्तु हम सफर के पश्चात् उन्हें छिलकों, पत्तों, पानी, धूल-मिट्टी से सना हुआ, जूठन से परिपूर्ण छोड़कर उठते हैं । यह हमारी गन्दी आदतों की परिचायक, गन्दी वृत्ति की द्योतक है । हर सार्वजनिक स्थान सबके बैठने-उठने के कार्य के लिए बना होता है । यदि हम में से प्रत्येक उसे अच्छी तरह प्रयोग में लाये तो वह अधिक दिन चल सकता है और सबको आकर्षक लग सकता है । सार्वजनिक स्थान हमारे हैं । जैसे हम अपनी वस्तु की सफाई और सुरक्षा का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार हमें सार्वजनिक वस्तुओं तथा स्थानों का ध्यान रखना चाहिए ।
जो समर्थ हैं, अपनी शक्ति या रुपये का दान दे सकते हैं, उन्हें सार्वजनिक स्थानों, पार्कों, पुल, धर्मशालाओं, पब्लिक स्कूलों, टहलने के स्थानों, मन्दिरों, स्नान के घाटों, रेल के डिब्बों, टट्टयों, प्लेटफार्मों की स्वच्छता और व्यवस्था का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए । अपने रुपये से मरम्मत या नई वस्तुएँ बनवाने में पीछे नहीं रहना चाहिए । रुपया दान देने के स्थान पर मरम्मत या पुताई करा देना अधिक श्रेयस्कर है ।
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य