गायत्री मंत्र का सोलवां अक्षर ‘हि’ अन्धानुकरण को त्याग कर विवेक द्वारा प्रत्येक विषय का निर्णय करने की शिक्षा देता है-
हितमत्वाज्ञान केन्द्र स्वातंत्र्येत विचारयेत् ।
नान्धानुसरणं कुर्यात कदाचित कोऽपि कस्याचित ||
अर्थात – “विवेक को ही कल्याण कारक समझकर हर बात पर स्वतंत्र रूप से विचार करे । अन्धानुकरण कभी, किसी दशा में न करे ।”
देश, काल, पात्र, अधिकार और परिस्थिति के अनुरूप मानव समाज के हित और सुविधा के लिए विविध प्रकार के शास्त्र, नियम, कानून और प्रथाओं का निर्माण और प्रचलन होता है । स्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ इन मान्यताओं एवं प्रथाओं में परिवर्तन होता रहता है । पिछले कुछ हजार वर्षों में ही अनेक प्रकार के धार्मिक विधान, रीति-रिवाज, प्रथा-परम्पराएँ तथा शासन पद्धतियाँ बदल चुकी हैं ।
शास्त्रों में अनेक स्थानों पर परस्पर विरोध दिखाई पड़ते हैं, इसका कारण यही है कि विभिन्न समयों में विभिन्न कारणों से जो परिवर्तन रीति-नीति में होते रहे हैं, उनका शास्त्रों में उल्लेख है । लोग समझते हैं कि ये सब शास्त्र और सब नियम एक ही समय में प्रचलित हुए, पर बात इसके विपरीत है । भारतीय शास्त्र सदा प्रगतिशील रहे हैं और देश, काल परिस्थिति के अनुसार व्यवस्थाओं में परिवर्तन करते रहे हैं । कोई प्रथा, मान्यता या विचारधारा समय से पिछड़ गई हो तो परम्परा के मोह से उसका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिए । वर्तमान स्थिति का ध्यान रखते हुए प्रथाओं में परिवर्तन अवश्य करना चाहिए । आज हमारे समाज में ऐसी अगणित प्रथायें हैं जिनको बदलने की बड़ी आवश्यकता है ।
हमको परमात्मा ने जो विवेक बुद्धि प्रदान की है उसका यही उद्देश्य है कि किसी भी पुस्तक, व्यक्ति या परम्परा की हम परीक्षा कर सकें । जो बात बुद्धि, विवेक, व्यवहार एवं औचित्य में खरी उतरे उसे ही ग्रहण करना चाहिए । बुद्धि के न्यायशील, निष्पक्ष, सतोगुणी, सहृदय, उदार एवं लोक हितैषी भाग को विवेक कहते हैं । इसी विवेक के आधार पर किया हुआ निर्णय कल्याणकारी होता है । इस आधार का अवलम्बन करने से यदि कोई भूलें भी होंगी तो उनका निवारण शीघ्र हो जायगा, क्योंकि विवेक में दुराग्रह नहीं होता ।
विवेक हमें हंस की तरह नीर-क्षीर को अलग करने की शिक्षा देता है । जहाँ बुराई और भलाई मिल रही हो, वहाँ बुराई को पृथक करके अच्छाई को ही ग्रहण करना चाहिए । बुरे व्यक्तियों की भी अच्छाई का आदर करना चाहिए और अच्छों की भी बुराई को छोड़ देना चाहिए ।
शास्त्रों का आदेश और विवेक
अनेक व्यक्ति प्रत्येक बात में शास्त्र का नाम ले देना ही बहुत बड़ी बात समझ बैठे हैं । कोई भी छोटी या बड़ी बात क्यों न हो वे उसके लिए शास्त्र का प्रमाण खोजते रहते हैं । यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय नहीं है । न तो आजकल की प्रत्येक बात का प्रमाण शास्त्रों में मिल सकता है और न वह उपयोगी हो सकता है। हमारे अधिकांश काम तो विवेक द्वारा निर्णय किए जाने से ही चल सकते हैं ।
सिद्धान्तों का परीक्षण करना आवश्यक है। क्योंकि परस्पर विरोधी सिद्धान्तों का सर्वत्र अस्तित्व प्राप्त होता है । एक ओर जहाँ हिंसा को, बलिदान या कुर्बानी को धर्मों में समर्थन प्राप्त है, वहाँ ऐसे भी धर्म हैं जो जीवों की हत्या तो दूर उन्हें कष्ट पहुँचाना भी पाप समझते हैं । इसी प्रकार ईश्वर, परलोक, पुनर्जन्म, अहिंसा, पवित्र पुस्तक, अवतार, पूजा विधि, कर्मकाण्ड, देवता आदि विषयों के मतभेदों से धार्मिक क्षेत्र पटे पड़े हैं । सामाजिक क्षेत्र में वर्णभेद, स्त्री अधिकार, शिक्षा, रोटी, बेटी आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी विचारों की प्रबलता है । राजनीति में प्रजातंत्र साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, अधिनायकवाद, समाजवाद आदि अनेकों प्रकार की परस्पर विरोधी विचारधाराएँ काम कर रही हैं । उपरोक्त सभी प्रकार की विचारधाराएँ आपस में खूब टकराती भी हैं । उनके समर्थक और विरोधी व्यक्तियों की संख्या भी कम नहीं है ।
जब सिद्धान्तों में इस प्रकार के घोर मतभेद विद्यमान हैं तो एक निष्पक्ष जिज्ञासु के लिए, सत्य शोधक के लिए उनका परीक्षण आवश्यक है । जब तक यह परख न लिया जाय कि किस पक्ष की बात सही है, किसकी गलत ? किसका कथन उचित है किसका अनुचित ? तब तक सत्य के समीप तक नहीं पहुँचा जा सकता । यदि परीक्षा और समीक्षा को आधार न बनाया जाय तो किसी प्रकार उपयोगी और अनुपयोगी की परख नहीं हो सकती ।
‘महाजनो येन गतो स पन्थाः’ के अनुसार महाजनों का बड़े आदमियों का अनुसरण करने की प्रणाली प्रचलित है । साधारणतः लोग सैद्धान्तिक बातों के सम्बन्ध में अधिक माथा-पच्ची करना पसन्द नहीं करते । दूसरे की नकल करना सुगम पड़ता है, निकटवर्ती बड़े आदमी जो कह दें उसे मान लेने में दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता,
अधिकांश जनता की मनोवृत्ति ऐसी ही होती है, परन्तु इस प्रणाली से सत्य-असत्य की समस्या सुलझती नहीं । क्योंकि जिन्हें हम महापुरुष-महाजन समझते हैं, संभव है वे भ्रांत रहे हों और दूसरे लोग जिन्हें महापुरुष समझते हैं सम्भव है उन्हीं की बात ठीक हो । जबकि अनेक व्यक्ति एक प्रकार के विचार वाले महाजन की बात ठीक मानते हैं और उसी प्रकार अनेक व्यक्ति दूसरे ‘महाजन’ की बातों को महत्व देते हैं और दूसरे प्रकार के विचारों को मान्यता देते हैं, तब यह निर्णय कठिन हो जाता है कि इन दोनों के कथनों में किसका कथन उचित है और किसका अनुचित ?
महापुरुष दो प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करते हैं । (१) लेखनी द्वारा ( २ ) वाणी द्वारा । वाणी द्वारा प्रकट किए हुए विचार क्षणस्थाई होते हैं इसलिए उन्हें चिरस्थाई करने के लिए लेखनीबद्ध किया जाता है । विचारों के व्यवस्थित रूप को लेखन- बही, ग्रन्था या पुस्तक कहते हैं । जिन ग्रन्थों में धार्मिक या आध्यात्मिक विचार लिपिबद्ध होते हैं, उन्हें शास्त्र कहते हैं । शास्त्रों को लोग एक स्वतंत्र सत्ता का रूप देने लगे हैं । जैसे देवता की अपनी एक स्वतंत्र सत्ता समझी जाती है, वैसे ही शास्त्र भी स्वतंत्र सत्ता बनने लगे हैं। परन्तु बात ऐसी नहीं है । वे महाजनों के विचार ही तो हैं । जैसे ‘महाजन’ भ्रांत हो सकते हैं, होते हैं, वैसे ही शास्त्र भी हो सकते हैं। एक शास्त्र द्वारा दूसरे शास्त्र के अभिमत का खण्डन करना यही प्रकट करता है कि एक समान श्रेणी के ‘महाजनों में प्राचीन काल में भी इसी प्रकार मतभेद रहता था जैसा कि आजकल अनेक समस्याओं के संबंध में हमारे नेता आपसी मतभेद रखते हैं ।
आज नेताओं के मतभेद में से छानकर हम वही बात ग्रहण करते हैं जो हमारी बुद्धि को अधिक उचित और आवश्यक जंचती है। किसी नेता के मत से सम्मति न रखते हुए भी उसके प्रति आदर भाव रहता है । इसी प्रकार स्वर्गीय महाजनों, महापुरुषों की लेखबद्ध विचार प्रणाली के सम्बन्ध में भी होना चाहिए । शास्त्र का अन्धानुकरण नहीं होना चाहिए वरन् उनके प्रकाश में सत्य को खोजना चाहिए । अन्धानुकरण कोई किया भी नहीं जा सकता । क्योंकि कभी -कभी एक ही शास्त्र में दो विरोधी आदर्श मिलते । हमारे शास्त्रों में जीवित प्राणियों को मारकर अग्नि में होम देने का भी विधान है और जीवात्मा पर दया करने का भी। दोनों ही आदेश पवित्र धर्मग्रन्थों में मौजूद है। वे शास्त्र हमारे परम आदरणीय और मान्य हैं तो भी इनके आदेशों में से हम वही बात आचरण में लाते हैं जो बुद्धि’ संगत, उचित और समयानुकूल दिखाई पड़ती है ।
हिन्दू धर्म किसी व्यक्ति या उसके लेखबद्ध विचारों को अत्यधिक महत्व नहीं देता । चाहे वह व्यक्ति कितना ही बड़ा महापुरुष, ऋषि, महात्मा या ईश्वर ही क्यों न रहा हो । हिन्दू धर्म में सिद्धान्तों की समीक्षा और उसके बुद्धि संगत अंश को ही ग्रहण करने की परिपाटी का समर्थन किया गया है । किसी बड़े से बड़े व्यक्ति या ग्रन्थ से मतभेद रखने और उसके मन्तव्यों को स्वीकार करने न करने की उसमें पूर्ण सुविधा है । हाँ किसी की महानता को कम करने की आज्ञा नहीं है । महापुरुषों और पवित्र ग्रन्थों का समुचित आदर करते हुए भी उनकी सम्मति में से बुद्धि संगत अंश को ही ग्रहण करने का आदेश है । इसी आदेश के आधार पर प्राचीन समय में सच्चे जिज्ञासुओं ने सत्य की शोध की है और अब भी वही मार्ग अपनाना होता है ।
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध को ईश्वर का अवतार माना गया है । दश अवतारों में उनकी गणना है। इससे अधिक ऊँचा आदर, श्रद्धा, महत्व और क्या हो सकता है ? भगवान बुद्ध भी हिन्दुओं के लिए वैसे ही पूज्य हैं जैसे अन्य अवतार । उनके महान् व्यक्तित्व, त्याग, तप, संयम, ज्ञान एवं साधन के आगे सहज ही हर व्यक्ति का मस्तक नत हो जाता है । उनके चरणों पर हृदय के अन्तःस्थल से निकली हुई गहरी श्रद्धा के फूल चढ़ा कर हम लोग अपने को धन्य मानते हैं। इतने पर भी भगवान् बुद्ध के विचारों का हिन्दू धर्म में प्रबल विरोध है । श्रीशंकराचार्य ने उनके मत का खण्डन करने का प्राण-प्रण प्रयत्न किया है । बौद्ध विचारों को, उनके सम्प्रदाय को स्वीकार करने के लिए कोई हिन्दू तैयार नहीं है, तो भी उनके व्यक्तित्व में भगवान का दर्शन करता है ।
बात यह है कि व्यक्तित्व और सिद्धान्त दो भिन्न वस्तुएँ हैं । कोई सिद्धान्त इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि उसे अमुक महापुरुष ने या अमुक ग्रन्थ ने प्रकाशित किया है । इसी प्रकार किसी घृणित व्यक्ति द्वारा कहे जाने या प्रतिपादन किए जाने से कोई सिद्धान्त अमान्य नहीं ठहरता । यदि कोई चोर यह कहे कि ‘सत्य बोलना उचित है ।” तो उसे इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह बात चोर ने कहीं है । चोर का घृणित व्यक्तित्व भिन्न बात है और ‘सत्य बोलने’ का सिद्धान्त अलग चीज है। दोनों को मिला देने से तो बड़ा अनर्थ हो जायगा । चूँकि चोर ने सत्य बोलने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है इसलिए यह सिद्धान्त अमान्य नहीं ठहराया जा सकता । इसी प्रकार कोई बड़ा महात्मा किसी अनुपयोगी बात का उपदेश करे तो उसे मान्य भी नहीं ठहराया जा सकता । कई अघोरी साधु अभक्ष- भक्षण करते हैं, यद्यपि उनकी तपश्चर्या ऊँची होती है तो भी उनके आचरण का कोई अनुकरण नहीं करता । निश्चय ही व्यक्तित्व अलग चीज है और सिद्धान्त अलग चीज है । महात्मा कार्लमार्क्स, ऐंजिल, लेनिन आदि का चरित्र बड़ा ऊँचा था, वे अपने विषय के उत्कट विद्वान भी थे J उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के लिए दुनियाँ सिर नवाती है, पर उनका अनीश्वरवादी मत मान्य नहीं किया जाता ।
प्राचीन समय में आज की भाँति ही परस्पर विरोधी मत प्रचलित थे । जैसे आज अनेकानेक विचारधाराओं के मतभेदों पर बारीक दृष्टि डाल कर उनमें से उपयोगी तत्व ग्रहण करने को विवश होना पड़ता है वही बात प्राचीन समय के सम्बन्ध में लागू होती है । आधुनिक महापुरुषों के विचारों से जीवन निर्माण कार्य में हमें मदद मिलती है, उसी प्रकार प्राचीन काल के स्वर्गीय महापुरुषों के लेखबद्ध विचारों से धर्मग्रन्थों से लाभ उठाना चाहिए । परन्तु अन्ध भक्त किसी का भी नहीं होना चाहिए । यह हो सकता है कि प्राचीन काल की और आज की स्थिति में अन्तर पड़ गया हो जिससे सब के सब विचार आज के लिए उपयोगी न रहे हों, यह भी हो सकता है कि उनने किसी बात को अन्य दृष्टिकोण से देखा हो और आज उसे किसी अन्य दृष्टि से देखा जा रहा हो । एक समय समझा जाता था कि चातक स्वांति नक्षत्र का ही पानी पीता है, पर अब प्राणिशास्त्र के अन्वेषकों ने देखा है कि चातक रोज पानी पीता है । हंसों का मोती चुगना, या दूध पानी को अलग कर देना भी अव अविश्वस्त ठहरा दिया गया है । इसी प्रकार अन्य अनेक बातों में भी प्राचीनकाल के सिद्धान्तों में हमें परीक्षक बुद्धि से कोई मत निर्धारित करना पड़ता है । आधुनिक या प्राचीन होने से ही कोई सिद्धान्त मान्य या अमान्य नहीं ठहरता । शास्त्रकारों का भी यही मत है कि- “बालक के भी युक्तियुक्त वचनों को मानलें, परन्तु यदि युक्ति विरुद्ध हो तो ब्रह्मा की बात को तृण के समान त्याग दे ।”
विवेक का निर्णय सर्वोपरि है
इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे प्रधान शास्त्र आप्त- पुरुषों ने रचे थे और इसलिए उनके उपदेश और नियम अभी तक अधिकांश में उपयोगी और लाभदायक बने हुए हैं, पर एक तो समय के परिवर्तनों के कारण और दूसरे शास्त्रकारों में अनेक विषयों पर मतभेद होने के कारण यह आवश्यक हो जाता है कि हम शास्त्रों का आदेश समझने के साथ ही उनकी जाँच अपने विवेक से भी कर लें। ऐसा किए बिना अनेक बार धोखा हो जाने की संभावना रहती है ।
बड़े-बड़े धर्म वक्ता आपने देखे होंगे और उनके व्याख्यान सुने होंगे ! सोचना चाहिए कि उनके शब्दों का अनुकरण उनका हृदय कहाँ तक करता है ? वे अपने अन्तःकरण के भावों को यदि स्पष्टतया प्रकट करने लगें तो आप निश्चय समझिए कि उनमें से अधिकांश लोगों को ‘नास्तिक’ कहना पड़ेगा । वे अपनी बुद्धि को चाहे जितनी भगतिन बनावें,
वह उनसे यही कहेगी कि “किसी पुस्तक में लिखा है या किसी महापुरुष ने कहा है इसलिए मैं उस पर बिना विचार किए विश्वास क्यों कर करूँ ? दूसरे भले ही अन्यश्रद्धा के अधीन हो जायें, मैं कभी फैंसने वाली नहीं ।” इघर जाते हैं तो खाई और उघर जाते हैं तो अथाह समुद्र है । यदि धर्मोपदेशक या धर्मग्रन्थों का कहना मानें तो विवेचक बुद्धि बाधा डालती है और न मानो तो लोग उपहास करते हैं, ऐसी अवस्था में लोग उदासीनता की शरण लेते हैं । जिन्हें आप धार्मिक कहते हैं, उनमें से अधिकांश लोग उदासीन अथवा तटस्थ हैं और इसका कारण धर्म पर यथार्थ विचार न करना ही है । धर्म की उदासीनता यदि ऐसी बढ़ती ही जायगी और धर्माचरण के लाभों से लोग अनभिज्ञ ही बने रहेंगे तो धर्म की पुरानी इमारत भौतिक शास्त्रों के एक ही आघात से हवाई किले की तरह नष्ट भ्रष्ट हो जायगी । भौतिक शास्त्र जिस प्रकार विवेक बुद्धि की भट्टी से निकल कर अपनी सत्यता सिद्ध करते हैं । उसी प्रकार धर्मशास्त्रों को भी अपनी सत्यता सप्रमाण सिद्ध कर देनी चाहिए, ऐसा करने पर बुद्धि के तीव्र ताप से यदि धर्म तत्व गल-पच भी जाएँगें तो भी हमारी कोई हानि नहीं है । जिसे आज तक हम रत्न समझे हुए थे, वह पत्थर निकला। उसके नष्ट होने पर हमें दुःख क्या ? अन्ध परम्परा से उसे सिर पर लादे रहना ही मूर्खता है। ऐसे सन्दिग्ध पत्थरों की जहाँ तक हो सके शीघ्र हो, परीक्षा कर व्यवस्था से लगा देना ही अच्छा है । यदि धर्मतत्व सत्य होंगे तो वे भट्टी में कभी न जलेंगे, उल्टे वे ही असत्य पदार्थ भस्म हो जायेंगे, जिनके मिश्रण से सत्य धर्म में सन्देह होने लगा है । आग में तपाने से सोना मलीन नहीं किन्तु अधिक उज्ज्वल हो जाता है । विवेक बुद्धि की भट्टी में सत्य धर्म को डालने से उसके नष्ट होने का कोई भय नहीं है किन्तु ऐसा करने से उसकी योग्यता और भी बढ़ जायगी तथा उसका उच्च स्थान सर्वदा बना रहेगा । पदार्थ विज्ञान और रसायन शास्त्रों की तरह धर्मशास्त्र भी प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध करना चाहिए। यदि कर्मेन्द्रियों की अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियों की योग्यता अधिक है तो जड़ ( भौतिक ) शास्त्र पर ज्ञान प्रधान धर्मशास्त्र की विजय क्योंकर न होगी ? भौतिक शास्त्रों की सिद्धि तो इन्द्रियों के भरोसे है और धर्मशास्त्रों की सिद्धि अन्तरात्मा से सम्बन्ध रखती है, फिर क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम इसी आवश्यक और प्रधान शास्त्र की सिद्धि’ का पहले यत्न करें ?
जो यह कहते हैं कि धर्म को विवेक बुद्धि की तराजू पर तोलना मूर्खता है, वे निश्चय अदूरदर्शी है। मान लीजिए, एक ईसाई किसी मुसलमान इस प्रकार झगड़ रहा है- “मेरा धर्म प्रत्यक्ष ईश्वर ने ईसा से कहा है ।” मुसलमान कहता है- “मेरा भी धर्म ईश्वर-प्रणीत है ।” इस पर ईसाई जोर देकर बोला- तेरी धर्म पुस्तक में बहुत सी झूठी बात लिखी हैं,
तेरा धर्म कहता है कि हर एक मनुष्य को सीधे से नहीं तो जबरदस्ती मुसलमान बनाओ । यदि ऐसा करने में किसी की हत्या भी करनी पड़े तो पाप नहीं है । मुहम्मद के धर्म प्रचारक को स्वर्ग मिलेगा ।” मुसलमान ने कहा- “मेरे धर्म में जो कुछ लिखा है सो सब ठीक लिखा है ।” ईसाई ने उत्तर दिया- “ऐसी बातें मेरी धर्म पुस्तक में नहीं लिखी हैं, इससे वे झूठी हैं ।” इस प्रकार के प्रश्नोत्तर से दोनों को लाभ नहीं पहुँचता । एक-दूसरे की धर्म पुस्तक को बुरी दृष्टि से देखते हैं। इससे वे निर्णय नहीं कर सकते कि किस पुस्तक के नीति तत्व श्रेष्ठ हैं। यदि विवेचक बुद्धि को दोनों काम में लाएँ तो सत्य वस्तु का निर्णय करना कठिन न होगा । किसी धर्म पुस्तक पर विश्वास न होने पर भी उसमें लिखी हुई किसी खास बात को यदि विवेचक बुद्धि स्वीकार कर लें तो तुरन्त समाधान हो जाता है। हम जिसे विश्वास कहते हैं वह भी विवेचक बुद्धि से ही उत्पन्न हुआ है । परन्तु यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि दो महात्माओं के कहे हुए जुदे – जुदे या परस्पर विरुद्ध विधानों की परीक्षा करने की शक्ति हमारी विवेचक बुद्धि में है या नहीं ? यदि धर्मशास्त्र इन्द्रियातीत हो और उसकी मीमांसा करना हमारी शक्ति के बाहर का काम हो तो समझ लेना चाहिए कि पागलों की व्यर्थ बकबक या झूठी किस्सा कहानियों की पुस्तकों से धर्मशास्त्र का अधिक महत्व नहीं है । ही मानवी अन्तःकरण के विकास का फल है । अन्तःकरण के विकास के साथ-साथ धर्म मार्ग चल निकले हैं । धर्म का अस्तित्व पुस्तकों पर नहीं किन्तु मानवी अन्तःकरण पर अवलम्बित है । पुस्तकें तो मनुष्यों की मनोवृत्ति के द्रश्यरूप मात्र हैं । पुस्तकों से मनुष्यों के अन्तःकरण नहीं बने हैं किन्तु मनुष्यों के अन्तःकरणों से पुस्तकों का आविर्भाव हुआ है । मानवी अन्तःकरणों का विकास ‘कारण’ है और ग्रन्थ रचना उसका ‘कार्य’ है । विवेचक बुद्धि की कसौटी पर रख कर यदि हम किसी कार्य को करेंगे तो उसमें धोखा नहीं उठाना पड़ेगा । धर्म को भी उस कसौटी पर परख लें तो उसमें हमारी हानि ही क्या है ?
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य