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प्राकृतिक जीवनचर्या

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जीवन पंचतत्त्वों से विनिर्मित है। पंचतत्व अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हमें अपने खान- पान में प्रतिदिन इन पाँचों तत्त्वों का भी सेवन करना चाहिए। ऐसा होने पर हम अधिकाधिक स्वस्थ व सक्रिय रह सकेंगे। साँस के माध्यम से हर प्राणी वायु ग्रहण करता है। बाकी तत्त्वों को कुछ समय या कुछ दिन के लिए छोड़ा जा सकता है, पर वायु को नहीं जो लोग उपवास करते हैं, वे भी अन्न, जल, सब्जी या जल आदि छोड़ देते हैं, पर वायु सेवन नहीं। एक समय आहार लेने वाले संन्यासी भी वायु सेवन तो प्रतिक्षण करते ही हैं अर्थात पंचतत्त्वों में से वायु प्राणियों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।

यह वायु व्यक्ति को शुद्ध एवं प्राकृतिक रूप में पर्याप्त मात्रा में मिले, यह भी आवश्यक है। जो लोग बड़े शहरों में या उद्योगों के पास रहते हैं, उन्हें शुद्ध वायु नहीं मिल पाती इसीलिए इन दिनों नए-नए रोग लगातार बढ़ रहे हैं। अब तो बड़े नगरों में शुद्ध ऑक्सीजन के बूध खुलने लगे हैं, जहाँ पैसे देकर व्यक्ति दस-पंद्रह मिनट शुद्ध प्राणवायु ले सकता है। जैसे आजकल हर व्यक्ति अपने साथ साफ पानी की बोतल रखने लगा है, लगता है कुछ समय बाद लोग प्राणवायु के छोटे सिलेंडर भी साथ लेकर चला करेंगे।

ताजी और शुद्ध प्राणवायु प्राप्त करने की निःशुल्क विधि प्रातः कालीन भ्रमण है। सूर्योदय होने पर पेड़ों द्वारा रात में उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में चली जाती है। ऐसे शीतल और शांत वातावरण में अकेले या सपरिवार घूमना शुद्ध वायु ग्रहण करने का सबसे सरल उपाय है।

केवल घूमना ही नहीं, इस समय कुछ आसन, व्यायाम और प्राणायाम करना भी बहुत लाभकारी है। इन दोनों समय पर दिन और रात का मिलन होता है। इस समय के सदुपयोग से हम अपने शरीर तथा मन को स्वस्थ रख सकते हैं। बच्चों और युवाओं को तो शाम के समय पढ़ने के बजाय खेलना ही चाहिए।

जहाँ तक वायुमंडल के प्रदूषण की बात है, कुछ सरकारी तथा सामाजिक संस्थाएँ इसकी वृद्धि तथा उससे हो रही हानि के बारे में बताती रहती हैं। महानगरों में अनेक चौराहों पर ऐसे यंत्र लगा दिए गए हैं, जो हर समय प्रदूषण मापते रहते हैं। पेट्रोल और डीजल वाले वाहन सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं, पर आधुनिक भाग-दौड़ वाले जीवन में इनके बिना काम भी नहीं चलता। जिसके पास जितनी अधिक और महँगी गाड़ियाँ, वह उतना ही बड़ा व्यक्ति माना जाता है।

अब सड़क पर साइकिल के बजाय मोटरसाइकिल या स्कूटर लिए युवा ही अधिक दिखाई देते हैं। चाहे कोई स्वयं वाहन न चलाता हो, पर प्रदूषित वायु सेवन करना तो उसकी भी मजबूरी ही है। इसलिए जहाँ सार्वजनिक यातायात व्यवस्था का बहुत अच्छा होना जरूरी है, वहाँ दस-बीस कदम जाने के लिए वाहन निकालने की आदत भी छोड़नी होगी। पेड़ों को कटने से बचाकर तथा परिवार के हर सदस्य के नाम पर एक पेड़ लगाकर हम प्रदूषण नियंत्रण में सहयोग दे सकते हैं।

वायु की ही तरह जल भी व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। किसी समय ‘बहता पानी निर्मला’ कहकर नदियों का जल सर्वाधिक शुद्ध माना जाता था, पर अब नगरों के सीवर, कारखानों के अपशिष्ट, समय-समय उसमें विसर्जित किए जाने वाले रासायनिक रंगों से पुती मूर्तियों तथा कूड़े-करकट के कारण नदियाँ आचमन योग्य भी नहीं रह गई हैं। अब तो सब जगह कुछ घंटों के लिए -सरकारी पानी मिलता है। वह कितना शुद्ध होता है, कहना कठिन है। पानी साफ और भरपूर मिले, इसके लिए निजी बोरिंग कराने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जिनके लिए यह संभव नहीं है, उन्होंने भी घरों में फिल्टर लगा लिए हैं। इनसे एक लीटर पानी साफ होने के चक्कर में चार लीटर पानी नाली में बह जाता है। शहरीकरण का अर्थ ही है, बिजली और पानी का अत्यधिक प्रयोग अतः जल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है।

विद्वानों का मत है कि अगला विश्वयुद्ध जल के कारण होगा। इसका सत्य तो भविष्य बताएगा, पर नलों पर हर दिन डिब्बे और कनस्तर लिए लोगों को झगड़ते हुए कोई भी देख सकता है। जो कार दो बालटी पानी में धोई जा सकती है, उसे दो हजार लीटर साफ पानी से धोते हुए लोग प्रायः मिल जाते हैं। हम वर्षा जल का संरक्षण कर तथा पानी को व्यर्थ न जाने देकर भी इस दिशा में अपना व्यक्तिगत सहयोग दे सकते हैं। हम साफ पानी पिएँ, यह तो आवश्यक है ही, पर कितना पिएँ, इस बारे में अलग-अलग मत हैं। फिर भी एक वयस्क व्यक्ति को दिन भर में आठ-दस गिलास पानी तो पीना ही चाहिए।

सुबह उठकर कुल्ला मंजन के बाद ताँबे के साफ पात्र में रखा पानी भरपेट पीना बहुत लाभ देता है। ताँबा जल की अधिकांश अशुद्धियाँ दूर कर देता है। सरदियों में पानी को गुनगुना करके पीना चाहिए। भोजन के साथ पानी नहीं पीना चाहिए। इस बारे में भी मतभिन्नता है, पर अधिकांश का कहना है कि भोजन के बीच में पानी पीने के बजाय आधे-पौने घंटे बाद पानी पीना अच्छा रहता है। गरम भोजन के साथ फ्रिज का ठंढा पानी बहुत ही घातक है। गरमियों में घड़े और सुराही का जल आज भी सर्वश्रेष्ठ ही है। पानी सदा बैठकर ही पीना चाहिए, ऐसा भी बुजुर्गों का कहना है।

आकाश की पहचान खालीपन या शून्यता है।घटाकाश और मठाकाश जैसी कल्पनाएँ इसी से आई हैं। आकाश में कोई भी चीज फेंकें, खाली होने के कारण वह मना नहीं करता। किसी पात्र के खाली होने का अर्थ है कि इसमें आकाश तत्त्व विद्यमान है, पर जब उसमें कोई वस्तु डालते हैं, तो वह हट जाता है। ऐसी शून्यता हम अपने पेट को बिलकुल खाली रखकर प्राप्त कर सकते हैं। अतः प्रातः शौचादि से निवृत्त होने के बाद लगभग दो घंटे तक पेट को अवकाश देना चाहिए। इससे जहाँ भोजन पचाने वाली इंद्रियों को आराम तथा अपनी टूट-फूट ठीक करने का समय मिलेगा, वहाँ हमें आकाश तत्त्व भी प्राप्त होगा। व्रत और उपवास आकाश तत्त्व की प्राप्ति का अवसर कुछ अधिक समय तक प्रदान करते हैं। इनका उपयोग करना चाहिए।

पृथ्वी हमें अन्न, दाल, सब्जियाँ आदि देती है। अतः इनके सेवन से हमें पृथ्वी तत्त्व की प्राप्ति होती है, पर हम इन्हें कच्चा नहीं खा सकते। इन्हें आग पर पकाकर तथा आवश्यकतानुसार कुछ अन्य मिर्च-मसाले डालकर प्रयोग किया जा सकता है। इनका सेवन कितना और कितनी बार करें, इसका कोई मापदंड नहीं है शारीरिक परिश्रम करने वाले किसान या मजदूर तथा कार्यालय में बैठकर काम करने वाले की आवश्यकता अलग-अलग होगी | उसी अनुसार इनका सेवन करना चाहिए।

अग्नि का स्रोत सूर्य है। सर्दियों में तो सीधे धूप में लेटना या बैठकर काम करना अच्छा लगता है। गरमियों में भी अपने काम के सिलसिले में घूमते-फिरते धूप लगती रहती है। इससे अग्नि तत्त्व अपने आप ही मिल जाता है। जो लोग दिन भर वातानुकूलित वातावरण अर्थात ए०सी० वाले घर, कार्यालय और कार में रहते हैं, उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। इसलिए थोड़े से परिश्रम या मौसम बदलने मात्र से ही ये लोग बीमार होकर बिस्तर पकड़ लेते हैं। भीषण गरमियों में जहाँ लू से बचना आवश्यक है, वहाँ धूप से डरना भी अनुचित है। जहाँ तक खान-पान की बात है, तो सूर्य की ऊर्जा से पके हुए फल और सलाद आदि के सेवन से अग्नि तत्त्व भरपूर मात्रा में प्राप्त होता है, पर इनका सेवन दिन में ही करना चाहिए अर्थात सूर्यास्त के बाद इन्हें खाना ठीक नहीं है।

सूर्यास्त के बाद शरीर की पाचन क्रिया मंद हो जाती है। अतः उस समय भारी भोजन ग्रहण करना ठीक नहीं है। यद्यपि आज की भाग-दौड़ वाले जीवन में सब नियमों का पालन संभव नहीं होता; फिर भी जितना हो सके, उतना पालन करना चाहिए। यदि लाभ हो, तो दूसरों को बताना चाहिए, जिससे अधिकाधिक लोगों का कल्याण हो इस प्रकार पंचतत्त्व से विनिर्मित इस देह के लिए प्राकृतिक ढंग से आहार-विहार ही उपयुक्त है।

-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

दिसंबर, 2021 अखण्ड ज्योति

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