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बोलने से पहले सोचे

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अरबी कहावत है कि जीभ को इतना मत दौड़ने दो कि वह मन से आगे निकल जाए। मन को यह समझने-सोचने का अवसर मिलना चाहिए कि क्या कहना चाहिए, क्या नहीं। अपनी मनमरजी से जो चाहे सो बोलते रहना तभी क्षम्य कहा जा सकता है, जब उसे एकांत में अपने आप से ही कहते रहना हो, किंतु जो दूसरों के सामने या दूसरों के लिए कहा जा रहा है, उसके संबंध में यह भी विचार करना चाहिए कि इसकी प्रतिक्रिया क्या हुई? दि किसी कारण से उद्देश्य पूरा न हुआ और अच्छे संबंध बिगड़ गए तो बोलने का श्रम ही निरर्थक नहीं गया, वरन उलटा परिणाम भी सामने आया। यही कारण है कि परिणाम, अवसर एवं प्रयोजन पर विचार करने के उपरांत ही बोलना चाहिए।

कबीर ने सच ही कहा था जो बिना विचार बोलते हैं-सो पीछे पछताते हैं। काम अपना बिगाडते । हैं और जग हँसाई की भर्त्सना ओढ़ते हैं। वे यह भी कहते थे कि ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जिससे मन का आपा खुले, अहंकार घटे। दूसरों को शीतल करे और अपने लिए भी शांति शीतलता अर्जित करे।संत तिरुवल्लुवर ने कहा है-“कुमार्ग पर चलने से जिन्हें रोक सको, जरूर रोको पर इतना न बन पड़े तो जीभ पर लगाम लगाकर रखो ही। ह जब कडुआ बोलती है तो अनेक अनर्थ खड़े करती है और जब ठगी या शेखीखोरी में सर्प की तरह सरपट दौड़ती है, तब तो सब कुछ चौपट करके ही रख देती है।” जापानी कहावत है-“जीभ की लंबाई तो तीन इंच ही होती है; पर छह-छह फुट के दो आदमी मार सकती है। दो में से एक खुद, दूसरा वह जिससे बोला गया था।”

वार्तालाप के साथ-साथ जीभ का संबंध चटोरेपन से भी है। पेटू का जल्दी मरना निश्चित है स्वाद के लोभ में अधिक खाने वाले पेट को बिगाडते हैं, बीमार पड़ते हैं और बिना कारण असमय से ही मौत के मुँह में घुस पड़ते हैं। यह लंबी जीभ की ही करामात है। लंबी अर्थात अनियंत्रित । जीभ मुँह से निकलवाकर वैद्य यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि किसे क्या रोग है? यही बात समुदाय के बीच भी होती रहती है। वचन निकलने पर पता चलता है कि व्यक्ति का स्तर क्या है ? ार्ता में न केवल विचारों का प्रकटीकरण होता है, वरन यह भी समझा जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा, रुचि, जानकारी तथा सुसंस्कारिता की स्थिति कितनी नीची या ऊँची है?

शेखसादी अपने शिष्यों को सिखाया करते थे”यदि बुद्धिमानी की दूसरी बातें समझ में न आएँ तो इतना तो गिरह बाँध ही लेना चाहिए कि कटु वचनों से मनुष्य को केवल हानि-ही-हानि होती है। किसी को समझाना या सुधारना हो तो उसके लिए मधुर वचनों का प्रयोग करने से कम में काम चलता नहीं है। तिरस्कृत होकर तो आदमी उलटा फुफकारता है और सही परामर्श को मानने से भी इनकार कर देता है। इसलिए समझदारी इसी में है कि जो भी बोला जाए, वह सभ्यता की मर्यादा से आगे न बढ़े।”

चिंग चंद्र कहते थे- “यदि आत्मश्लाघा और परनिंदा के तत्त्व हटा दिए जाएँ तो आम लोगों की तीन-चौथाई बकवास सहज ही बंद हो जाए। काम की बातें बहुत कम हैं। जो हैं, उन्हें तर्क और तथ्य प्रस्तुत करते हुए संक्षेप में सरल शब्दों के माध्यम से कहा जा सकता है। उसके लिए बतंगड़ बनाने और अपना तथा दूसरों का समय खराब करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। ऐसी वार्ता में प्रभावशाली भी होती है।”असंस्कृत वाक्य मित्रों की संख्या घटाते और शत्रुओं की बढ़ाते जाते हैं। हानि उठाने या आक्रमण सहने पर जितना आक्रोश उठता है, उससे भी अधिक कटु वचन सुनकर होता है; स तथ्य को समझा जा सके तो सम्मानपूर्वक जीने की इच्छा रखने वालों में से एक भी कटु वचनों का प्रयोग न करे।

-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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फ़रवरी 2021

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