जीवन में सच्चे सुख,शांति व आनंद की खोज में व्यक्ति जाने-अनजाने अध्यात्म मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है। कभी अपनी इच्छा से, तो कई बार देखा-देखी और कभीकभी परिस्थितियों के प्रहार से चोटिल होकर। यदि इस मार्ग में सही दिशाबोध कराने वाला मार्गदर्शक मिल जाए तो फिर अस्तित्व के रहस्य परत-दर-परत अनावृत होते जाते हैं। ऐसे में आदि शंकराचार्य के बताए जीवन के तीन सौभाग्य चरितार्थ होने लगते हैं। पहला-मानव जीवन, जिसे प्राप्त करना सबके लिए सुलभ नहीं होता। दूसरा-मुक होने की अभीष्मा और तीसरा-महापुरुषों का संसर्ग।
सौभाग्यशाली हैं गायत्री परिवार से जुड़े साधकगण, जिन्हें युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी के रूप में ऐसा समर्थ संरक्षण एवं मार्गदर्शन उपलब्ध है, लेकिन गुरु के मिल जाने भर से आत्मोन्नति का काम पूरा नहीं हो जाता। साधक को अपनी साधना की मौजल तक पहुँचने से पहले इसके उतार-चढ़ाव के बीच से होकर गुजरना ही पड़ता है। साधक जब निर्दिष्ट मार्ग पर सजगता से आगे बढ़ता है और दीर्घकालीन प्रयास-पुरुषार्थ के बाद भी स्वयं को यथास्थिति में पाता है अथवा साधना में ठोस प्रगति होते हुए नहीं देख पाता तो ऐसी स्थिति में उसका हताश-निराश होना स्वाभाविक है।
ऐसे में कई तो अपनी साधना छोड़ देते हैं और अपने पूर्वकालिक सांसारिक जीवन में संलिप्त हो जाते हैं या फिर धर्म-अध्यात्म के नाम पर अपनी छल-छा की दुकान शुरू कर देते हैं, लेकिन साधना के मार्ग एवं विधान से इस सबका कुछ लेना-देना नहीं होता।
वस्तुतः साधना में गुरु की सहायता सदा साथ ही होतो है, बाधा व्यक्ति स्वयं ही होता है, जिसे वह पूरी तरह समझ नहीं पाता। भूल प्रायः साधना को कर्मकांड और व्रत-अनुष्ठान तक सीमित मानकर चलने से होती है, जिसमें अपने सुधार की अधिक जहमत नहीं उठाई जाती। ज्ञात हो कि अध्यात्म
का मार्ग बहुत सरल भी है और अत्यंत कतिन भी। सरल – उनके लिए, जिनका चित्त शुद्ध है और जिनके आंतरिक -अवरोध न्यूनतम हैं। कठिन उनके लिए, जिनका चित्त शुद्ध
नहीं है और जन्म-जन्मांतर के कुसंस्कार हर कदम पर रोड़ा: बनकर उनके सामने खड़े हो जाते हैं और उन्हें साधना-पथपर एक भी कदम आगे बढ़ने नहीं देते। . ऐसे में संस्कार की चट्टानें पीठ पर सादे शिखर का: -आरोहण भला कैसे संभव हो सकता है? नाव में भरी भारीचट्टानों के साथ संसार-सागर कैसे पार किया जा सकता. है? संस्कारों के क्षय की, चित के हलके होने की प्रक्रिया – समयसाध्य होने के साथ ही कष्टसाध्य होती है, जिसमें वर्षों – लग सकते हैं। पूरा जन्म खप सकता है। यहाँ तक कि कई: जन्म भी लग सकते हैं, लेकिन इसमें हताश होने की. आवश्यकता नहीं है। क्योंकि अपने यथार्थ से परिचय कल्याणकारी सिद्ध होता है। निम्न प्रकृति का रूपांतरण, स्वभाव में बदलाव अपनी कीमत मांगता है, जिसे सुरतफुरत, शॉर्टकट में, जल्दी में नहीं किया जा सकता। आत्ममूल्यांकन के आधार पर प्रत्येक साधक अपनी वस्तुस्थिति का बोध कर सकता है और तदनुरूप अपनी जीवन-साधना के पथ पर आगे बढ़ सकता है।
जहाँ खड़े हैं, वहीं से आगे बढ़ना स्वर्णिम रोति है। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। यदि असीम धैर्य के साथ साधना-पथ पर डटे रहें तो एक दिन मंजिल अवश्य मिलकर रहती है। साधना-पच की बारीकियों को समझने के लिए योगी, महापुरुषों के साधनात्मक जीवन की पुस्तके बहुत प्रेरक साबित होती हैं, जिनके द्वारा आध्यात्मिक जीवन के अवरोधों को किस तरह से पार किया गया-इसका स्वाध्याय आवश्यक संबल प्रदान करता है। जिसके प्रकाश में साधक अपनी यथास्थिति का अवलोकन करते हुए तदनुरूप हृदय की पुकार को और तीव्र कर अपने नैष्ठिक प्रयास की त्वरा को तीव्र करके आगे बढ़ सकता है। मार्ग की यथार्थवादी समझ व्यक्ति को सदैव सजग एवं प्रतिबद्ध रखती है कि कार्य इतना सरल भी नहीं कि कुछ मिनट व घंटे की पूजा, अनुष्ठान से काम चल जाए।
साधना तो अहर्निश चलने वाली प्रक्रिया है। जीवनपर्यंत निभाई जाने वाली जागरूकता है। तब तक चलने वाली
जीवनव्यवस्था है, जब तक कि आध्यात्मिक लक्ष्य न मिल जाए। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि ईश्वर अनुभूति से पहले कोई भी सुरक्षित नहीं है। ऐसे में इस देह के चिता पर चढ़ने से पहले कोई सोचे कि वासना से बच जाएगा, वह गलतफहमी में है। भगवान बुद्ध का भार अर्थात पापपुरुष से युद्ध अंतिम समय तक चलता रहा और उस पापपुरुष की मायावी चालों को निरस्त करते हुए गौतम अंततः बुद्धत्व को प्राप्त हुए।
इस तरह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर रूपी परिपुओं की अनगिनत अग्नि परीक्षाएँ साधक की राह में पग-पग पर खड़ी रहती हैं। महान तपस्वी विश्वामित्र साधना के चरम पर बार-बार स्खलित होते हैं, पतित होते हैं, लेकिन हर गलती से सबक लेते हुए अंततः ऋषित्व को प्राप्त होते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण का स्पष्ट निर्देश है कि ईश्वरखापि से पूर्व, ईश्वरीय स्पर्श को पाए बिना कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। जो प्रभु का शरणागत है, वही सुरक्षित है, अन्य सभी को उनकी माया का ग्रास बनना पड़ता है। वस्तुतः साधना-पथ तन्मयता, अनवरत प्रयास-पुरुषार्थ और समर्पण का मार्ग है। जब साधक को गुरु का दिव्य स्पर्श मिलता है, जो साधना की पराकाष्ठा पर उपलब्ध होता है: तय ही साधक आत्मबोध, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरप्राप्ति जैसी स्थिति को प्राप्त होकर अध्यात्म की पहली मंजिल पर पहुंचता है।
इसके बाद असली कार्य आरंभ होता है और उसकी निम्न प्रकृति का रूपांतरण पटित होता है। तब संस्कारों का क्षय होता है, जो फिर अपनी कीमत मांगता है। यदि साधक अभी इस अवस्था से दूर है या साधनात्मक प्रयास के वांछित परिणाम प्राप्त नहीं कर पा रहा है तो मानकर चले कि जो अब तक किया जा रहा था, वह पर्याप्त नहीं था।
ऐसे में अपने प्रयास में नई त्वरा लाने की, पुरुषार्थ को प्रचंड करने की व राह में मिले सबक के अनुरूप नई रणनीति के साथ आगे बढ़ने तथा अपने प्रयास में एकाग्रता और निष्ठा लाने की आवश्यकता है।
बुद्धि के निणंवों पर साहसिक अमल की दरकार एवं गुरुसत्ता द्वारा बताई गई सरल एवं प्रभावशाली साधनाओं को समझने व अपनाने की आवश्यकता है। सुबह उठने से लेकर शयन तक के कालखंड को आत्मबोध से लेकर तत्त्वबोध के दायरे में समेटने की आवश्यकता है।
अपनी उपासना, साधना और आराधना को समग्र रूप में लागू करने का समय है। संयम, स्वाध्याय, सेवा, साधना के व्यावहारिक अध्यात्म को अपनाने की जरूरत है। सदबुद्धि एवं आत्मबल की अधिष्ठात्री आदिशक्ति माँगायत्री तथा त्यागपूर्ण श्रेष्ठतम कर्मयज्ञ के मर्म को जीवन में धारण करने की आवश्यकता है। युग निर्माण सत्संकल्प, जिसमें व्यक्ति से लेकर युग का पूरा विधान, संपूर्ण संविधान बीज रूप में भरा पड़ा है. इसको हृदयंगम करने की आवश्यकता है। यही साधना-पथ का समर है।
जनवरी, 2021 : अखण्ड ज्योति