परिवार-व्यवस्था भारतभूमि की एक ऐसी विशेषता रही है, जिसे गृहस्थ आश्रम के रूप में ऋषियों ने स्थापित – किया था। घर में बड़े बुजुर्गों का सान्निध्य, संरक्षण एवं – मार्गदर्शन इसकी सहज उपलब्धि रही है। समय के साथ यह व्यवस्था थोड़ा डगमगा भले ही गई हो लेकिन विकसित देशों की तुलना में जहाँ परिवार-व्यवस्था पूरी तरह से -छिन्न-भिन्न हो चुकी है, यहाँ स्थिति अब भी बेहतर है। विपन्न हैं।
परिवार टूट चुके हैं, नई पीढ़ी के लिए बुजगों से भरे-पूरे परिवार के दर्शन दुर्लभ हो चले हैं। साथ ही बुजुर्ग अकेले रहने के लिए अभिशप्त हैं, जिनकी देख-भाल करने वाला कोई परिवारजन नहीं होता और वे किसी तरह रोते-कलपते अपने अंतिम दिन बिताते देखे जाते हैं। ऐसे में घर पर बच्चों को वह छत्रछाया नहीं मिल पाती, जिसकी गोद में उनका सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो सके। ऐसे में उनके भावनात्मक विकास का एक कोना रीता रह जाता है, जिसकी भरपाई फिर किसी भी रूप में ताउम्र नहीं हो पाती; जबकि बुजुर्गों की गोद में खेलता-कूदता विकसित होता बचपन न जाने कितनी सारी बातें खेल-खेल में नाना-नानी, दादा-दादी की कथा-कहानियों के सहारे सीख जाता था। माता-पिता भी बुजुर्गों के घर में होने पर निश्चित भाव से अपने काम में लग जाया करते थे। इसके अभाव में कितने एकल परिवारों में शिशुओं को नौकरनौकरानियों के हवाले छोड़ना पड़ता है, जिनसे उस भावनात्मक आपूर्ति की आशा नहीं की जा सकती, जो परिवार के बुजुर्ग: अभिभावकों के सान्निध्य में सहज रूप में हो जाती थी।वस्तुत: संयुक्त परिवार-व्यवस्था सगुणों के अभ्यास एवं विकास की प्राथमिक पाठशाला भी है। बच्चे ही नहीं, बड़ों को भी इसमें मानवीय प्रकृति को समझने, आपसी तालमेल बिठाने और जीवन जीने का आवश्यक प्रशिक्षण मिलता है और व्यक्ति के आंतरिक परिष्कार के साथ सर्वागीण विकास का प्रयोजन इस प्रयोगशाला में पूर्ण हो जाता है।
ऋषियों ने इसीलिए गृहस्थ आश्रम के रूप में इसे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना है। परमपून्य गुरुदेव ने इस तपोवन की संज्ञा दी। गृहस्थ में प्रवेश वास्तव में स्वयं में एक बड़ा प्रयोग है, जो व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य-दोनों विकासों को सुनिश्चित करता है। आवश्यकता बस, समझदारी व धर्य के साथ इसके महत्व को समझने व इसकी तपन को सहन’ करने की है। समय के साथ यह तपन अजस्त्र रूपों में. फलित होती है। यदि परिवार में बड़े-बुजुर्गों का सान्निध्य: हो तो फिर यह परिष्कार अधिक बेहतर तथा समग्र रूप में: हो पाता है।
बिना परिवार के इक्कड़व्यक्ति का भावनात्मक विकास, अधूरा रह जाता है व साथ ही उसके व्यक्तित्व का परिष्कार उस गहराई में नहीं हो पाता क्योंकि वहाँ व्यक्ति अपनी – मनमरजी से जीवन जीने के लिए स्वतंत्र होता है। उसके पास सत्य से बचने और भागने के तमाम विकल्प होते हैं. लेकिन परिवाररूपी गृहस्थ तपोवन में ऐसा कोई विकल्प शेष नहीं बचता।
उसे उसी दायरे में स्वयं को समायोजित करते हुए जीवन के हर सत्य का सामना करना पड़ता है। यदि वह संयम, सहिष्णुता व समझ के साथ जीवन का सामना करता – है, अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता है तो वह आत्मपरिष्कार : की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरता है, जिसे जीवन की बड़ीउपलब्धि माना जा सकता है। उसे प्राप्त करने के बाद फिर उसे बाहर कहीं समायोजित होने में अधिक कठिनाई नहीं होती। परिवाररूपी प्रयोगशाला में काम, क्रोध, लोभ, मोह.. अहंकार, राग, द्वेष जैसे सूक्ष्म विकारों का समूल परिष्कार कर पाना संभव होता है और चित्त के विकार धुल जाने से जीवन कलुपरहित होने लगता है। आपसी सद्भाव विकसित होते-होते आत्मवत् सर्वभूतेषु का सूत्र परिवार की प्रयोगशाला में सघने लगता है। ऐसे में गृहस्थ जीवन के पड़ाव को वे फलाहुतियाँ समझ में आती हैं, जिन्हें हमारे ऋषियों ने आश्रम व्यवस्था की आधारभूत कड़ी के रूप में स्थापित किया था।
महर्षि व्यास के शब्दों में-गृहस्थ्येव हि धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते। अर्थात गृहस्थाश्रम ही सभी धर्मों का आधार है। निस्संदेह परिवार-व्यवस्था में व्यक्ति और परिवार निर्माण की वह प्रक्रिया सहज रूप में संपन होती है, जो अपनी परिणति में समाज निर्माण के अगले चरण की नींव बनती है। सही ढंग से गृहस्थ जीवन को निभाने पर व्यक्ति अपने आंतरिक परिष्कार के साथ एक परिपक्व व्यक्तित्व के रूप में निखरकर सामने आता है और वह जीवन के अगले पड़ाव वानप्रस्थ के लिए तैयार हो जाता है। साथ ही वह अपने अनुभवों के साथ समाजसेवा के गुरूतर कार्य को निभाने की पात्रता विकसित करता है, जो आगे चलकर जीवन के अंतिम पड़ाव संन्यास की पूर्णतया ईश्वरान्मुखी अवस्था के लिए मानसिक रूप से तैयार करती है।
यह सब परिवार-व्यवस्था की ही फलश्रुति है जिसे ऋषियों ने बहुत सोच-समझकर तैयार किया था। इसीलिए कहा गया है कि धन्यो गृहस्थाश्रमः अर्थात चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम धन्य है। जिस प्रकार समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित है। निस्संदेह रूप में गृहस्थाश्रम नररत्नों को गढ़ने की प्रयोगशाला है और समाज को अच्छे नागरिक देने की खान है। भक, आनी, मंत, महान्मा, महापुरुष विद्वान, पौडत गृहस्थाश्रम में ही निकलकर आते रहे है। उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, ज्ञानवर्धन-सभी कुछ गृहस्थाश्रम के बीच ही होता है।
परिवार के बीच ही मनुष्य की सर्वोपरि शिक्षा होती. रही है। इसे संस्कारों की पूरी श्रृंखला के साथ आवद्ध करना ऋषियों का एक महान प्रयोग था जिसे युगप परमपूज्य गुरुदेव ने नए सिरे से सरल किंतु प्रभावशाली इंग में प्रस्तुत किया तथा जिसे गायत्री परिवार में हर घर आज नैष्ठिक ढंग से संपन्न कर रहा है। इस तरह परिवार के महत्व को देखते हुए गृहस्थाश्रमरूपी पूर्वजों की विरासत को सहेजने की आवश्यकता है, जिसके महत्त्व को कोविड संक्रमण के दौर ने अधिक गहराई से अनुभव कराया है।
घर में एक साथ बैठना, एकदूसरे का मुख-दुःख बाँटना और मिल-जुलकर रहना कितना संतोषजनक और तृप्तिदायक अनुभव हो सकता है. इसको लोगों ने गहराई से समझा है। इसकी उपयोगिता व इसके महत्त्व को देखते हुए इसे संस्कारशाला के रूप में विकसित करना हमारा मुख्य दायित्व है, जिसमें नई पीढ़ियाँ उच्च जीवनमूल्यों के साथविकसित हो सकें, श्रेष्ठ चरित्र के साथ निखरकर सामने आ: सकें और बड़े बुजुर्ग गरिमापूर्वक रोति से इसमें रहते हुए अपने अनुभवों से सबको लाभान्वित कर सकें।
जनवरी, 2021 : अखण्ड ज्योति