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शक्ति-उपासना की ऐतिहासिक पृष्टभूमि

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शक्ति के रूप में ईश्वर के नारीरूप की परिकल्पना भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। दूसरी सभ्यताओं में भी देवियों के रूप मिलते है, परंतु अधिकांशतः पुरुष की सहयोगिनी या आंशिक सत्ता के रूप में; जब कि भारत में शक्ति-उपासना के रूप में नारी शक्ति की पराकाष्ठा को चित्रित किया गया है, जिसमें समस्त देवों के सम्मिलित अंश के रूप में शक्ति के सर्वसमर्थ एवं समग्र रूप की कल्पना की गई है।इिहास के आईने में देखें तो पाषाणकाल से ही भारत में शक्ति-उपासना के चिह्न मिलते हैं, जब चुनौतियाँ प्राकृतिक रूप से अधिक थीं। इनसे परित्राण के लिए किसी अदृश्य शक्ति का आश्रय लेना स्वाभाविक था, जिसमें मातृदेवी प्रमुख रूप से पूजित थीं। उत्तर पाषाणकाल में भी मातृदेवी की प्रतिमाओं की भरमार मिलती है। कांस्यकाल में मानवीय सभ्यता के उदय के साथ शकि-उपासना को लोकप्रियता मिली। भारतीय देवीवाद एवं सामीजनों की अस्ताल, मित्रवासियों को आइसिस और फ्रीगियनों की साइबिल की कल्पना में भी बहुत भारी समानता है।

एशिया माइनर तथा भूमध्यसागरीय प्रदेशों में मातृदेवी की पूजा प्रायः पुरुष देवता के साथ मिलती है। वह सर्वत्र पुरुष देवता के साथ पूजी जाती थी।िंधु घाटी से प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियों से जात होता है कि उस समय इसका स्वरूप अत्यंत विकसित था। तृतीय सहसाब्दी ई.पू. के उत्तराद्धं को इसके चरमोत्कर्ष का काल माना जा सकता है। रेडियो कार्यन डेटिंग से भी इसका काल लगभग 2400 ई.पू. से 1650 ई.पू. निर्धारित हुआ है। मोहनजोदड़ो, हडप्पा, चन्दड़ो तथा अन्य स्थलों में भी मिट्टी की बनी हुई कुछ स्त्रियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिन्हें पुरातत्त्ववेता मातृदेवी की मूर्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार की मूर्तियाँ पश्चिमी एशिया, इजिबन सागर के आस-पास एलम, एशिया माइनर, मैसोपोटामिया, . सौरिया, क्रोट, मिस्र आदि में भी प्राप्त हुई हैं। सैंधवकालीन मातृदेवी मानव की पालिका, पोषिका एवं जननी मानी जाती थी।

सिंधु सभ्यता में लिंग एवं चक्र प्रतीक भी मिलते हैं.. जो सृष्टिकारिणी मानव की जननी मातृदेवी की साकार: उपासना को इंगित करते हैं। कालांतर में यही पार्वती, काली. तथा दुर्गा आदि रूपों में पूजी जाने लगी। धीरे-धीरे मातृदेवीने शक्ति-पूजा का रूप ले लिया और आज वह दुर्गा, काली, महिषासुरमर्दिनी तथा भवानी के रूप में पूजित है। ैदिककाल में शक्ति-उपासना का उद्भव ऋग्वेद अर्थात पूर्व वैदिककाल में खोजा जा सकता है। देवियों के रूप में इनकी चर्चा अधिक होती है। उषा, अदिति, सरस्वती, वाक्, आपः, पृथ्वी, राका, श्रद्धा, इंद्राणी, वरुणानी, रुद्राणी, आग्नेयों, शची, मही, भारती, उर्वशी आदि। स तरह शक्ति तत्व की स्वतंत्र उपासना का इस युग में अभाव दिखता है, किंतु शसहिता में शक्ति तत्त्व के बीज खोजे जा सकते हैं, जिनका देवीसूक्त में स्पष्ट वर्णन मिलता है। रात्रिसूक भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है।

वेदों के चरम विकास का काल उपनिषदों में आता है, जिसकी मुख्य वस्तु भी ब्रह्मविद्या-इस विधा में देवी के स्वरूप में नए दार्शनिक आयाम जुड़े हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में ब्रह्म का शक्ति के रूप में वर्णन होता है, जिनसे सृष्टि की रचना मानी गई है। केनोपनिषद में प्रज्ञा, बहावादिनी, -ब्रह्मशोभना, उमा, हेमवती के रूप में शक्तियों की उपासना – का वर्णन मिलता है। मुंडकोपनिषद् में काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, स्फुलिगिनी, धूपवर्णा तथा विश्वरूपा -के रूप में देवी का वर्णन मिलता है। इसके बाद सूत्रसाहित्य में उषा का वर्णन नहीं मिलता,लेकिन सरस्वती उल्लेखित होती हैं। काठक गृह्यसूत्र तथा – मानव गृहासूत्र में हों, श्री, लक्ष्मी, पुष्टि, काली, षष्ठी, भद्रकाली, भावनी तथा महोधिरा आदि देवियों का वर्णन मिलता है।

बौधायन गृहासूत्र एवं मनुसंहिता में दुर्गा और -ज्येष्ठा का उल्लेख मिलता है। इसके साथ श्रद्धा, मेधा, भूति आदि नाम भी मिलते हैं।इसके उपरांत रामायण में स्वतंत्र उपास्य के रूप में -देवी का वर्णन नहीं मिलता पर हाँ, रुद्र-शिव पत्नी के रूप में उमा, गिरिजा, भवानी और पार्वती नाम से अनेक स्थानों पर चर्चा अवश्य मिलती है। हाभारत में देवी को शिव की सहचरी एवं शिव की शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। भीष्म पर्व के प्रारंभ में दुर्गा पूजा का उल्लेख है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर योद्धा अर्जुन द्वारा बुद्ध में विजय के लिए माँ दुर्गा की आराधना होती हैं यहाँ माँ दुर्गा को सिद्धों की सेनानायिका, कालशक्ति, कपालधारिणी, कुमारी, काली, कपिला, कृष्णपिंगला, भद्रकाली, महाकाली, चंडी, समीरणी, कात्यायनी, कराली, विजया, जया आदि नामों से पुकारा गया है एवं उनकी पूजा की गई है।

इस तरह इस काल में देवी के स्वतंत्र शक्तिसंपन्न स्वरूप का उभार हो चुका था। विराट पर्व में युधिष्ठिर द्वारा की गई स्तुति में देवी को महिषासुरमर्दिनी, यशोदा के गर्भ से जन्म लेने वाली विंध्याचलवासिनी तथा नारायण की परमप्रिया बताया गया है। इसके अतिरिक्त कालरात्रि के रूप में भी देवी की उपासना करने का वर्णन आता है। स तरह महाभारत में शक्ति-उपासना का उद्भव हो चुका था और उसे भकसंरक्षिका एवं असुरसंहारिणी बताया गया है।पुराणकाल में शक्ति-उपासना का स्वरूप महाकाव्य काल जैसा ही प्रचलित रहता है बस, उसका फलक अधिक व्यापक हो जाता है। अधिकांश पुराणों में न्यूनाधिक रूप में देवी का वर्णन मिलता है, लेकिन शक्ति-उपासना की दृष्टि से श्रीमद्देवीभागवत, कालिका पुराण तथा मार्कंडेय पुराण में देवी माहात्म्य और ब्रह्मांड पुराण के ललितासहस्र प्रकरणों का विशेष महत्व है। स तरह पौराणिक युग में शकिउपासना अपने चरम रूप में प्रकट होती है।

एक ओर जहाँ सौम्य रूप में देवी की उपासना उमा, गौरी, पार्वती, अन्नपूर्णा आदि रूप में होती है तो वहीं दूसरी ओर उग्र रूप में चंडिका, काली और दुर्गा के रूप में उसकी उपासना होती है। सिंह पर आरूढ़ दुर्गा शक्ति अपनी भुजाओं में अस्त्र-शस्त्र धारण किए हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवता उनकी आराधना करते हैं। वे शिव की ही नहीं अपितु सभी देवताओं की भी शक्ति हैं। उनका प्रमुख कार्य असुरों का संहार करना है। दुर्गा के हाथों महिषासुर के वध की कथा अनेक पुराणों में दी गई। है। इसके अतिरिक वे शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ और रक्तबीज का भी वध करती हैं।

शक्ति-उपासना के संदर्भ में मार्कडेय पुराण का देवी माहात्म्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसकी रचना गुप्तकालीन मानी जाती है। इस ग्रंथ का शाक्त मत में कुछ वैसा ही स्थान है, जैसा कि वैष्णव मत में श्रीमद्भगवत् गीता का। गीता के समान इसमें भी सात सौ श्लोक हैं, जिस आधार पर इसे दुर्गासप्तशती कहा जाता है। इसमें भी अर्जुन की तरह मोहग्रस्त राजा सुरथ और समाधि वैश्य को उबारने के लिए ऋषि मेधा-शक्ति तत्त्व का वर्णन करते हैं। समें देवी के लोला प्रसंगों के द्वारा अवतारवाद का स्मरण दिलाते हैं कि विभिन्न युगों में देवताओं के शत्रु दानवों तथा असुरों का वध करने के लिए वह विभिन्न रूपों में अवतरित होंगी।

इस तरह भगवती धर्म की स्थापना, देवत्व की रक्षाव असुरों का संहार करने के लिए युगशक्ति के रूप में प्रकट होती हैं। हालाँकि भक्तों के भावलोक में तो भवानी नित्य विद्यमान रहती है, किंतु धरा पर उनका लीला अवतरण समय-समय पर होता रहता है। युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव ने युगशक्ति गायत्री के रूप में उस शक्ति का प्रादुर्भाव माना और इसके आधार पर युग निर्माण आंदोलन का वृहद् स्वरूप खड़ा किया। अब हम सब शिष्यवृंद का कर्त्तव्य बनता है कि राबुद्धि एवं आत्मवत की अधिचत्रो आदिशक्ति कामाध्यम बनकर अपने स्तर पर गुरुसत्ता के कार्य के अकिंचन ही सही, किंतु प्रमाणिक अंग बनकर युग निर्माण के महायज्ञ में अपनी भावभरी नैष्ठिक आहुति अर्पित करते रहें।


जनवरी, 2021 : अखण्ड ज्योति

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