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अपना दृष्टिकोण ठीक रखें हमारा दृष्टिकोण भी सुधरे

by Akhand Jyoti Magazine

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संसार की प्रत्येक वस्तु में भले-बुरे दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान हैं, ठीक उसी तरह जैसे काल के संदर्भ में रात और दिन। संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में अपूर्णता लिए हुए है। चेतन और जड़ के सहयोग से निर्मित यह विश्व विकारयुक्त है। निर्विकारी तो एकमात्र परमात्मसत्ता, ब्रह्म ही है, यह निर्विवाद सत्य है। किंतु मनुष्य का प्रतिगामी दृष्टिकोण केवल वस्तुओं, स्वयं के और संसार के कृष्ण पक्ष को ही देखता है।

जिस तरह हरा चश्मा चढ़ा लेने पर चारों ओर हरा ही हरा, लाल चढ़ा लेने पर लाल ही लाल दिखाई देता है वैसे ही संसार की विभिन्नता मनुष्य के दृष्टिकोण का ही परिणाम है। एक पेड़ को बढ़ई इस दृष्टि से देखेगा कि इसमें काम का सामान क्या-क्या बनेगा? एक दार्शनिक विश्वचेतना और जड़ के सम्मिलित सौंदर्य को देखकर खिल उठेगा। एक पशु उसे अपने भोजन की वस्तु समझेगा। एक साधारण व्यक्ति उसे कोई महत्त्व नहीं देगा। ___ हमारी मानसिक शक्ति ही बाह्य संसार के रूप में हमारे सामने आती है। दूसरों को भले रूप में देखना ही भले दृष्टिकोण, पुरोगामी मानसिक शक्ति का परिणाम है। दूसरों की बुराई, दोष-दर्शन, छिद्रान्वेषण अपने ही विकृत आंतरिक जीवन का दर्शन है, प्रतिगामी मानसिक शक्ति का परिणाम है।

मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, वह दूसरों के प्रति जैसा सोचता है; उसी के अनुसार उसके विचार होते हैं और इनके फलस्वरूप वैसा ही वातावरण, परिस्थितियाँ प्राप्त कर लेता है। दूसरों के दोष दर्शन, छिद्रान्वेषण करने वाले व्यक्ति जहाँ भी जाते हैं उन्हें अच्छाई नजर नहीं आती और लोगों से उनकी नहीं बनती। सबको अच्छी निगाह से देखने पर सरल सात्विक स्वभाव के लोगों को सब जगह अच्छाई ही नजर आती है। बुराई में भी वे ऊँचे आदर्श का दर्शन करते हैं। मरे हुए कुत्ते से लोग घृणा करते हैं किंतु करुणामूर्ति ईसा मसीह ने उसी में परमात्मा के सौंदर्य का दर्शन कर अपनी गोद में उठा लिया था।

सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं। इस तरह बाह्य वातावरण, परिस्थितियों के निर्माण में मनुष्य का स्वयं का अपना दृष्टिकोण और उससे प्रेरित भाव, विचार, आचरण ही प्रमुख होते हैं। मनुष्य के मित्र और शत्रु उसके भाव, विचार, दृष्टिकोण आदि ही हैं। बाह्य जगत तो मनुष्य के आंतरिक जीवन की छाया मात्र है। बाह्य परिस्थितियाँ, उलझनें, समस्याएँ एवं कठिनाइयाँ तो आंतरिक जीवन के फलस्वरूप ही हैं।

युधिष्ठिर और दुर्योधन एक ही सभा में बैठे हुए थे। दुर्योधन से पूछा गया-“आपको यहाँ कितने भले आदमी दिखाई पड़ते हैं ?” उसने कहा-“मुझे यहाँ कोई भला आदमी दिखाई नहीं पड़ता।”

यही प्रश्न जब युधिष्ठिर से पूछा गया, तब उन्होंने कहा-“यहाँ मुझे सब भले ही भले दिखाई देते हैं। बुरा तो कोई नजर नहीं आता।” मनुष्य अपने ही अच्छे-बुरे दृष्टिकोण को बाह्य परिस्थितियों पर आरोपित करके वैसा ही देखता है। जैसा मनुष्य स्वयं होगा वैसा ही बाहर देखेगा। ___ जो लोग अपने आप को बड़ी कठिनाइयों और शत्रुओं के बीच में घिरे हुए देखते हैं वस्तुत: उनकी विचार और भाषा की शक्ति प्रतिगामी होती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य अपने आप को विरोधियों, हानि पहुँचाने वालों से, काम बिगाड़ने वालों से घिरा हुआ मानकर परेशान होता है। वह यह नहीं समझता कि यह परेशानी मेरे स्वयं आंतरिक जीवन की बाह्य छायामात्र ही है। जिसकी मानसिक शक्तियाँ पुरोगामी होती हैं उसे चारों ओर अपने मित्र, सहायक दिखाई पड़ते हैं। वह कठिनाइयों से नहीं घबराता। दूसरों में अच्छाइयाँ ही नजर आती हैं। फलतः जीवन की भीषण विपरीत परिस्थितियों में भी वह सफलता प्राप्त कर लेता है। सब उसके सहायक बन जाते हैं।

वस्तुओं के काले पहलू का दर्शन करने, दूसरों के दोष, छिद्र आदि देखने, प्रतिगामी दृष्टिकोण के अभ्यास करते रहने पर थोड़े समय के बाद ऐसी स्थिति हो जाती है कि बाह्य कारण न पाकर मनुष्य अपने बुरे विचार, असद्भावों, दूषित दृष्टिकोण का केंद्र स्वयं को ही बना लेता है। यह बड़ी जटिल स्थिति हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप गंभीर शारीरिक या मानसिक रोग हो जाते हैं। इस तरह के लोग मेलेन्कोलिया जैसे रोगों से पीड़ित हो जाते हैं। दूसरों से लड़ने की

आधार नहीं पाता, तो वह अपने आप से लड़ने लगता है। जो व्यक्ति अपने शक्ति के दिनों में दूसरों को मारते-पीटते हैं, बालकों पर लात, घूसे, बेतें उड़ाते हैं; वे वृद्धावस्था में असमर्थ हो जाने पर अपना सिर फोड़ते हैं, शरीर को ताड़ना देते हैं और यहाँ तक कि कई व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेते हैं। आत्महत्या अपने प्रति घृणा, हीन-भाव, दोष-दर्शन की चरमावस्था है।

इसके विपरीत सद्भावनाशील उच्च विचारों वाला मनुष्य हर परिस्थिति में शांति, संतोष, प्रसन्नता अनुभव करता है। उसके विचारों

भला मनुष्य चारों ओर भलाई की सुगंध बिखेरता है और बुरा मनुष्य बुराई का गंदा कीचड़ ही उछालता है।

भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता आदि सब ईश्वर, प्रकृति, नैतिक विधान की धरती पर मिलती हैं; वे अनादि हैं, स्थिर हैं, अनंत हैं। सृष्टि की रचना में कहीं भी गंदगी, बुराई, अपवित्रता नहीं है। संसार के तत्त्व चिंतकों, दार्शनिकों, हमारे ऋषियों ने यह सब अनुभव किया और कहा-“मंगलमय भगवान की मंगलमय कृति यह सृष्टि है” फिर भला दूषित अपवित्र तत्त्व कहाँ से आए।

हम अपने भीतरी दृष्टिकोण को बदलें तो बाहर जो कुछ भी दिखाई पड़ता है वह सब कुछ बदला-बदला दिखाई देगा। आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहना होता है बाहर की वस्तुएँ उसी रंग की दिखाई पड़ती हैं। अनेक लोगों को इस संसार में केवल पाप और दुर्भाव ही दिखाई पड़ता है। सर्वत्र उन्हें गंदगी ही दीख पड़ती है। इसका प्रधान कारण अपनी आंतरिक मलिनता ही है। इस संसार में अच्छाइयों की कमी नहीं, श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति भी सर्वत्र भरे पड़े हैं। फिर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई तो होती है। छिद्रान्वेषण छोड़कर यदि हम गुण अन्वेषण करने का अपना स्वभाव बना लें तो घृणा और द्वेष के स्थान पर

जाएगा। बुराइयों के सुधारने के लिए भी हम घृणा का नहीं, सुधार और सेवा का दृष्टिकोण अपनाएँ तो वह कटुता और दुर्भावना उत्पन्न न होगी जो संघर्ष और विरोध के समय आमतौर से हुआ करती है।

दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने सुधार की बात सोचनी चाहिए। दूसरों से सज्जनता की आशा करने से पूर्व हमें अपने आप को सज्जन बनाना चाहिए। दूसरों की दुर्बलताओं के प्रति एक दम आगबबूला हो उठने से पहले हमें यह भी देखना उचित है कि अपने भीतर कितने दोष-दुर्गुण भरे पड़े हैं। बुराइयों को दूर करना एक प्रशंसनीय प्रवृत्ति है। अच्छे काम का प्रयोग अपने से ही आरंभ करना चाहिए। हम

सुधरें, हमारा दृष्टिकोण सुधरे तो दूसरों का सुधार होना कुछ भी कठिन न रह जाएगा।

अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित कीजिए

अधिकांश व्यक्ति इस संसार में ऐसे हैं जो अपने आप को बहुत दुखी, हैरान, परेशान, अभागा और संकटग्रस्त मानते हैं। इनकी मनोव्यथा सुनी जाए और ये जी खोलकर अपनी अंतर्वेदना सुनावें तो ऐसा लगता है, मानों भगवान ने संसार का सारा दुःख इन्हीं के मत्थे पटक दिया है। बेचारे रात-दिन दुखी दशा पर खिन्न रहते हैं, रात-रात भर रोते रहते हैं, नीद नहीं आती। चिंता और वेदना में घुलते रहते हैं। कई बार तो ऐसा होता देखा गया है कि दुखी होकर वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। कई घर छोड़कर चले जाते हैं। साधू, बाबाजी बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि शायद ऐसा करने से उनकी अंतर्व्यथा दूर हो जाएगी।

संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जिसे सब सुख हों, किसी बात का अभाव न हो, सारी परिस्थितियाँ मनोनुकूल ही हों, कोई कष्ट न हो, कभी असफलता न मिले, कोई जिसका विरोधी न हो, ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर ढूँढ़े न मिलेगा। जहाँ अनेक सुख-साधन मनुष्य को भगवान ने दिए हैं, वहाँ कुछ थोड़े अभाव भी रखे हैं। विवेकशील व्यक्ति जीवन में उपलब्ध सुख-सुविधाओं का अधिक चिंतन करते हैं

और उन उपलब्धियों पर संतोष प्रकट करते हुए प्रसन्न रहते हैं और उस कृपा के लिए ईश्वर को धन्यवाद देते रहते हैं। थोड़े से अभाव एवं कष्ट उन्हें वैसे ही कुतूहलवर्द्धक लगते हैं जैसे माता अपने सुंदर बालक के माथे पर काजल की बूंद लगाकर ‘डिठोरा’ बना देती है कि कहीं इसे ‘नजर’ न लग जाए।

इसके विपरीत अनेकों लोग उपलब्ध अनेक सुख-साधनों को तुच्छ मानते हैं और जो थोड़े से कष्ट एवं अभाव हैं; उन्हें ही पर्वततुल्य वज्रपात जैसी मानता है। सोचता है सारी दुनिया मुझे धिक्कारेगी, मूर्ख या आलसी समझेगी, मित्रों के सामने मेरी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी, अभिभावक कटु शब्द कहकर मेरा तिरस्कार करेंगे, यह कल्पना उसे असह्य लगती है, चित्त में भारी क्षोभ उत्पन्न होता है और रेल के आगे कटकर, नदी में कूदकर या और किसी प्रकार वह अपनी आत्महत्या कर लेता है। घरभर में कुहराम मच जाता है, वृद्ध माता-पिता रो-रोकर अंधे हो जाते हैं। एक उल्लासपूर्ण हँसते-खेलते घर का वातावरण शोक, क्षोभ और निराशा में परिणत हो जाता है। इस विपन्न स्थिति को उत्पन्न करने में सारा दोष उस गलत दृष्टिकोण का है जिसके अनुसार एक छोटी-सी असफलता को इतना बढ़ाचढ़ाकर आँका गया। __एक दूसरा विद्यार्थी भी उसी कक्षा में अनुत्तीर्ण होता है। उसे भी दुःख तो होता है, पर वह वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन कर लेता है

और सोचता है कि इस वर्ष बोर्ड का परीक्षाफल ४३ प्रतिशत ही तो रहा है। मेरे समान अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या ५७ प्रतिशत है। वर्तमान परिस्थितियों में अनुत्तीर्ण होना एक साधारण-सी बात है, इसमें सदा विद्यार्थी ही दोषी नहीं होता, वरन प्राय: शिक्षकों की उदासीनता, बिना पढ़े हुए विषयों के परचे आ जाना और नंबर देने वालों की लापरवाही भी उसका कारण होती है। इस वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए तो अगले वर्ष अधिक परिश्रम करने से अच्छी डिवीजन में उत्तीर्ण होने की आशा रहेगी, आदि बातों से अपने मन को समझा लेता है और अनुत्तीर्ण होने की खिन्नता को जल्दी ही अपने मन से हटाकर आगे के कार्यक्रम में लग जाता है। __ दोनों ही छात्र एक ही समय एक ही कक्षा में अनुत्तीर्ण हुए थे। एक ने आत्महत्या कर ली, दूसरे ने उस बात को मामूली मानकर अपना

साधारण क्रम जारी रखा। फेर केवल समझ का था, परिस्थिति का नहीं। यदि परिस्थिति का होता तो दोनों को समान दुःख होना चाहिए था और दोनों को आत्महत्या करनी चाहिए थी। पर ऐसा होता नहीं, इससे स्पष्ट है कि परिस्थितियों के मूल्यांकन में गड़बड़ी होने से मानसिक संतुलन बिगड़ा और उसी से दुर्घटना घटित हुई। ___हमें चाहिए कि अपनी कठिनाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर न देखें, वरन उनको दूसरे अधिक आपत्तिग्रस्त लोगों के साथ तुलना करके अपने आप को अपेक्षाकृत कम दुखी अनुभव करें। आपको आर्थिक कठिनाई रहती है, सभ्य सोसाइटी के लोगों जैसा जीवन-यापन करने में वर्तमान आर्थिक स्थिति कुछ दुर्बल मालूम पड़ती है। थोड़ा आर्थिक अभाव अनुभव होता है और चिंता रहती है। इस स्थिति से छुटकारा प्राप्त करने के कई उपाय हो सकते हैं। एक यह कि कुछ अधिक उपार्जन करने का प्रयत्न किया जाए। वर्तमान समय में जितना श्रम, समय और मनोयोग व्यवसाय में लगाया जाता है उससे अधिक लगाया जाए, कोई और सहायक धंधा ढूँढ़ा जाए या वर्तमान व्यवसाय में ही, जो आय बढ़ाने के उपाय संभव हों, उन्हें दौड़-धूप करके जुटाया जाए। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि अपने खरचे कम किए जाएँ। दुनिया में सभी तरह के गरीब-अमीर लोग रहते हैं, अपनी-अपनी आमदनी के अनुसार जीवन-यापन करने की योजना बनाते हैं। यदि अपनी आमदनी कम है, तो क्यों न कम खरच का बजट बनाकर काम चलाया जाए ? खरचा घटा लेने से कुछ सुविधाएँ कम हो सकती हैं पर उस कमी का दुःख उतना न होगा, जितना बढ़े हुए खरचे की पूर्ति न होने पर दिन-रात चिंतित रहने के कारण होता है।

यदि दोनों प्रकार के प्रयत्न करते हुए भी समस्या हल नहीं होती, तो किसी प्रकार काम चलाऊ रास्ता निकालकर उसी में प्रसन्न और संतुष्ट रहने की कोशिश करनी चाहिए। अपने से अधिक दुखी लोगों के साथ अपनी तुलना करने से मनुष्य यह अनुभव कर सकता है कि कुछ कष्ट होते हुए भी भगवान की उस पर बड़ी कृपा है कि उसने उतना दुखी नहीं बनाया, जितने अन्य लोग दुखी हैं। अस्पतालों में पड़े हुए बीमार, अंग-भंग, साधन-विहीन, संकट-जंजालों में फंसे हुए, पारिवारिक उलझनों में बुरी तरह उलझे हुए अनेकों व्यक्ति इस संसार में बहुत ही दयनीय स्थिति में जीवन-यापन करते हैं। उनसे अपनी तुलना की जाए तो प्रतीत होगा कि उनकी अपेक्षा अपनी स्थिति हजार गनी अच्छी है। यदि पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों से अपनी तुलना की जाए तब तो निश्चय ही प्रतीत होगा कि अपने को प्राप्त सुविधाएँ इतनी अधिक हैं कि इन थोड़ी-सी कठिनाइयों को नगण्य ही माना जा सकता है।

इसी प्रकार जो व्यक्ति अभी हमें बुरे और अपने शत्रु प्रतीत होते हैं, उनके कुछ अपकारों की बात सोचना छोड़कर यदि उनके उपकारों को उनके द्वारा किए हुए सद्व्यवहारों को स्मरण करें तो निश्चय ही वे हमें शत्रु नहीं मित्र दिखाई पड़ेंगे। माता-पिता ने हमें एम० ए० तक नहीं पढ़ाया, यदि वे उतनी शिक्षा दिला देते तो आज हम ऊँची सर्विस प्राप्त करते होते, यह विचार मन में आने पर माता-पिता शत्रु जैसे प्रतीत होते हैं; उनके प्रति अपना द्वेष एवं दुर्भाव उत्पन्न होता है। पर यदि हम अपनी विचारधारा बदल दे और जिन आर्थिक कठिनाइयों में रहते हुए, उतने बड़े कुटुंब का पालन करते हुए हमारा पालन-पोषण किया एवं जितनी संभव थी उतनी शिक्षा की व्यवस्था की, तो उनके उपकारों के प्रति मन श्रद्धा से झुक जाएगा और वे मित्र ही नहीं देवता के समान उपकारी प्रतीत होंगे।

दृष्टिकोण में थोड़ा अंतर कर देने से हम असंतुष्ट और खिन्न जीवन को संतोष में परिणत कर सकते हैं। ईश्वर ने सुर-दुर्लभ मानव

जीवन प्रदान करके इतनी बहुमूल्य संपदा हमें प्रदान की है कि उसका मूल्य लाखों-करोड़ों रुपयों में भी नहीं कूता जा सकता। जैसा शरीर, कुल, सम्मान, विद्या, परिवार आदि अपने को प्राप्त हैं, उसमें से प्रत्येक की विशेषता और सुविधा का चिंतन करें, साथ ही यह भी सोचें कि यदि वह बातें उपलब्ध न होती तो उनके अभाव में अपना जीवन कितना नीरस होता, तो इस चिंतन से हमें प्रतीत होगा कि हमारी वर्तमान परिस्थिति दुःख, दारिद्र्य से भरी नहीं, वरन सुख-सुविधाओं से संपन्न है।

दूसरों के द्वारा अपने प्रति जो उपकार हुए हैं, उनका यदि हम विचार करते रहें तो यही अनुभव होगा कि हमारे निकटवर्ती सभी लोग बड़े उपकारी, सेवाभावी और स्वर्गीय प्रकृति के हैं। इनके साथ रहने में अपने को सुख ही सुख अनुभव करना चाहिए। इसके विपरीत यदि उनके दोष ढूँढ़ने लगें और उन घटनाओं को स्मरण किया करें जिनमें उन्होंने कुछ अपकार किए तो हमें अपने सभी स्वजन संबंधी बड़े दुष्ट प्रकृति के, अपकारी, असुर एवं शत्रु प्रतीत होंगे और ऐसा लगेगा कि इन लोगों का संपर्क हमारे लिए नरक के समान दुःखदायी है।

इस संसार का निर्माण सत् और तम, शुभ और अशुभ, भले और बुरे तत्त्वों से मिलकर हुआ है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो पूर्णतः बुरा या पूर्णतः भला हो। समय-समय पर यह भली-बुरी परिस्थितियाँ दबती और उभरती रहती हैं। धूप-छाँह की तरह प्रिय और अप्रिय अवसर आते-जाते रहते हैं। इनमें से किसे स्मरण रखा जाए और किसे भुलाया जाए यही विचार करना बुद्धिमत्ता का चिह्न है। यदि हम दुःखों को, अभावों को, असफलताओं को, दूसरे के अपकारों को ही स्मरण किया करें, तो यह जीवन नरकमय दुःखों से भर जाएगा। हर घड़ी खिन्नता, निराशा और असंतुष्टि चित्त में छाई रहेगी। पर यदि दष्टिकोण बदल लिया जाए और प्रिय प्रसंगों, सफलताओं, प्राप्त साधन-संपदा के लाभों और दूसरों के किए हुए उपकारों को स्मरण किया जाए तो प्रतीत होगा कि भले ही थोड़े अभाव आज हों, पर उनकी तुलना में सुखदायक वातावरण ही अधिक है, दुर्भाग्य की अपेक्षा सौभाग्य की ही स्थिति अपने को अधिक उपलब्ध है।

जीवन को सुख-शांतिमय बनाने के लिए सुविधा-सामग्रियों की आवश्यकता अनुभव की जाती है, सो ठीक है। इसके लिए भी प्रयत्न करना चाहिए। यह भी न भूल जाना चाहिए कि जो प्राप्त है उसका सदुपयोग किया जाए। उपलब्ध साधनों का सदुपयोग यदि हम सीख जाएँ, हर वस्तु का मितव्ययतापूर्वक उपयोग करें, उसका पूरा-पूरा लाभ लें, तो जो कुछ प्राप्त है वही हमारे आनंद को अनेकों गुना बढ़ा सकता है। अपनी धर्मपत्नी जैसी भी कुछ वह है यदि उसे अधिक शिक्षित, अधिक सुयोग्य बनाया जाए और उसके स्वभाव तथा गुणों का अपने कार्यक्रमों में ठीक प्रकार से उपयोग किया जाए, तो यही पत्नी जो आज व्यर्थ का बोझ जैसी मालूम पड़ती है, अत्यंत उपयोगी एवं लाभदायक प्रतीत होने लगेगी। जितनी आजीविका आज अपने को प्राप्त है यदि उसके खरच की ही विवेक और मितव्ययतापूर्वक ऐसी योजना बनाई जाए कि प्रत्येक पैसे से अधिकाधिक लाभ उठाया जा सके तो यह आज की थोड़ी आजीविका भी आनंद और सुविधाओं में अनेक गुनी वृद्धि कर सकती है। इसके विपरीत यदि अपना दृष्टिकोण अस्त-व्यस्त है, तो बड़ी मात्रा में सुख-साधन उपलब्ध होते हुए भी वे कुछ लाभ न पहुँचा सकेंगे, वरन ‘जी के जंजाल’ बनकर परेशानियाँ और उलझनें ही उत्पन्न करेंगे।

सुखी जीवन की आकांक्षा सभी को होती है। वह उचित और स्वाभाविक भी है, पर उसकी उपलब्धि तभी संभव है, जब हम अपने दृष्टिकोण की त्रुटियों को समझें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। सुधरा हुआ दृष्टिकोण स्वल्प-साधनों और कठिन परिस्थितियों में भी

शांति और संतोष को कायम रख सकता है। गरीबी में भी लोग स्वर्ग का आनंद उपलब्ध करते देखे जाते हैं। पर यदि दृष्टिकोण अनुपयुक्त है, तो संसार के समस्त सुख-साधन उपलब्ध होते हुए भी हमें सुखी न बना सकेंगे। अतएव सुखी जीवन की आकांक्षा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित बनाने के लिए निरंतर प्रयत्न करता रहे।

अपना दृष्टिकोण दूरदर्शितापूर्ण रहे दूसरे जीव-जंतुओं की अपेक्षा मनुष्य में विचार, कल्पना, विवेक और अध्ययन की जो विशेषताएँ दिखाई देती हैं, वह निस्संदेह किसी विशेष प्रयोजन के लिए हैं। इन विशेषताओं को धारण करने वाला पुरुष भी यदि अपना जीवन खाने, पहनने और काम-क्रीड़ा में बिताता है तो इसमें उसकी बुद्धिमत्ता न मानी जाएगी।

प्राप्त साधन ऐसे हैं जो उसको सही स्थिति का ज्ञान करा सकते हैं। ज्ञान के प्रकाश में मनुष्य आत्म-परिचय प्राप्त कर सकता है। पर यह बड़े खेद की बात है कि मनुष्य के क्रिया व व्यवसाय जंतुओं से कुछ ही परिमार्जित होते हैं । भिन्नता इतनी ही हो सकती है कि पासपास रहने वाले दो वन्यपशु स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकृति की प्रेरणा से बना लेते हैं, मनुष्य भी रास-उल्लास के साथ विवाह क्रिया पूरी करता है। ऐसे विवाह के पीछे जो सात्विक उद्देश्य निहित हैं, उसे यदि न समझा जाए तो पशुओं का ही प्रणय अधिक अच्छा माना जाएगा, क्योंकि उनमें किसी प्रकार के जंजाल-बखेड़े भी तो नहीं हैं।

मनुष्य की श्रेष्ठता उसकी दूरदर्शिता के कारण होती है। जीवन के जिस क्षेत्र में दूरदर्शिता से काम लेते हैं, उसी में सफलता की संभावनाएँ बढ़ने लगती हैं। गृहस्थ को ही लीजिए। तत्काल सुख के आकर्षण में जो लोग अपने लिए अधिक अच्छा भोगने की लालसा

रखते हैं उनके परिवार में सौहार्द्र नहीं रह पाता। गृहस्थी के सुख और उनकी समुन्नति इस बात पर निर्भर है कि परिजनों में दूरदर्शिता की पर्याप्त मात्रा हो। बच्चा आज पढ़ लेगा तो कल श्रेष्ठ नागरिक बनेगा।

आत्म-सम्मान बढ़ाएगा और वृद्धावस्था का पाथेय बनेगा। उसकी पढ़ाई में इतना धन इसी से लगाते हैं । यह उचित भी है। कल के निर्माण की नींव यदि आज नहीं मजबूत करते, तो यह इमारत तूफान और वर्षा के संघात कैसे सहन करेगी? माता-पिता की सेवा, स्त्रियों की शिक्षा और स्वावलंबन, भविष्य के लिए निधि संचय, इन्हीं से तो परिवार में सुखशांति और सुरक्षा रहती है। परिणाम दूरगामी भले ही हों, पर संतुष्ट जीवन का आधार यही है कि कर्म का आधार आज सुख और तात्कालिक सफलता ही न रहे वरन कल की सुंदर व्यवस्था को ध्यान में रखकर आज का काम करें।

लोग कहते हैं कि आप बड़े लोभी हैं। एक रुपया बचाने के लिए बिलकुल रूखा भोजन करते हैं। आप उनसे पूछिए कि कल यदि

आपके बच्चे को चोट लग जाए तो वे आपके लिए दवा का प्रबंध कर देंगे? बच्चे की फीस के जवाबदार आप ही हैं। आपको लोभी बताने वालों को क्या मतलब कि आपके बालक की फीस जमा कर दें। निर्जीव उपहास के लिए, भविष्य को अंधकारमय बनाना उचित नहीं होता, जो कल की बात सोचता है, वह अधिक बुद्धिमान माना जाता है। अभी की बात पर अधिक ध्यान देना असफलता का लक्षण है, इससे बचने का प्रयास कीजिए।

दूरदर्शिता का अर्थ है-संकीर्णता का परित्याग। जब तक मनुष्य के सोचने, करने का क्षेत्र संकुचित और स्वार्थपूर्ण रहता है तब तक वह असीम की अनुभूति से वंचित ही रहता है। छोटे दायरे में विचार करने का अर्थ यह होता है कि मनुष्य की चेतन प्रवृत्तियाँ विकसित नहीं हो रही

हैं। वह जड़ता के दुःखपूर्ण अंधकार में ही चक्कर लगाता रहता है। पारलौकिक ज्ञान से लोग वंचित रह जाते हैं । इसका कारण यह नहीं होता कि उन्हें साधन और परिस्थितियाँ नहीं मिली होती। प्राकृतिक उपहार

और दैवी अनुदान सभी को एक जैसे मिले हैं। दिन-रात सबके लिए निकलते हैं, उसी से हमें प्रकाश मिलता है। वायु, जल, आकाश आदि की नैसर्गिक सुविधाएँ सबके लिए एक जैसी ही होती हैं। पर एक मनुष्य इन्हें देखकर भी नहीं देखता। वह अपने छोटे-छोटे उद्योगों में ही लगा रहता है। सवेरे उठना, काम पर चले जाना, खाना, पहनना आदि बाह्य सुख और सुविधाओं तक ही सीमित रहने वालों को ये घटनाएँ सामान्यसी प्रतीत होती हैं, किंतु दूरदर्शी पुरुष इन विलक्षणताओं पर गंभीरता से विचार करते हैं। उनके मर्म-भेद जानने का प्रयत्न करते हैं। ऊपर से दोनों व्यक्तियों के कार्यों में भले ही समानता दिखाई दे, पर इसमें संदेह नहीं कि एक अपने संकुचित दृष्टिकोण के कारण क्षुद्र बनता जा रहा है और दूसरा जा रहा है अनंत की अनुभूति प्राप्त करने।

__ भारतीय संस्कृति के पतन का कारण यहाँ सशक्त लोगों की अदूरदर्शिता ही माना गया है। जयचंद ने व्यक्तिगत हितों के प्रवाह में इतना भी विचार नहीं किया कि बाह्य शक्ति और संस्कृति का हमारे धर्म

और समाज पर कैसा असर पड़ेगा? एक व्यक्ति की संकुचित वृत्ति से संपूर्ण भारत हजार वर्षों तक परतंत्र बना रहा। इस अवधि में उसका धन, धर्म, संस्कृति और गौरव सब कुछ नष्ट हो गया। अदूरदर्शिता के कारण व्यक्ति और समाज सभी को दुःखमय परिणाम भोगने पड़ते हैं इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हम देख चुके हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसी अनेक घटनाएँ आएदिन हुआ करती हैं। फिर भी लोग अपनी संकुचित वृत्तियों का परित्याग नहीं करते । दुःख, कलह और क्लेश का कारण मनुष्य की विचार-निर्णय की अक्षमता ही है।

इन दुःखों से छुटकारे का मार्ग आध्यात्मिक विचारों में है। आध्यात्मिकता का पहला पाठ है-दूरदर्शिता। अर्थात हमारी बुद्धि इस प्रकार है कि हम जिस वस्तु को जिस रूप में देखने की इच्छा करते हैं, वैसा ही रूप हमारे सामने आ जाता है। अपने संस्कार, कल्पना और विचार के अनुसार जो वस्तु औरों की दृष्टि में अहितकर होती है, वह हमें प्रिय लगती है। इसका कारण सही विचार परंपरा या दूरदर्शिता का अभाव मानते हैं। जुआ, शराब, मांसाहार, चोरी, छल, निंदा आदि नैतिक अपराध हैं, पर इन्हें करने वाले भी पर्याप्त मात्रा में यहाँ मिल जाते हैं। इसका कारण यही है कि उन लोगों ने इन विषयों पर सम्यक विचार नहीं किया, इससे उन्हें इनकी हानियों दिखाई नहीं दी या दुष्परिणामों की उपेक्षा की गई। इन बुराइयों से उत्पन्न स्वास्थ्य की खराबी, धन का अपव्यय, सामाजिक बहिष्कार और भेद आदि बुराइयाँ मनुष्य को उस समय दिखाई नहीं देतीं, इसलिए उस समय तो उन्हें कर डालते हैं, किंतु बाद में उन्हें जब अनेक यातनाओं का सामना करना पड़ता है तब दुखी होते और सिर धुनते हैं।

भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण ___ मानव-जीवन के दो स्तर हैं-एक बाह्य, दूसरा आंतरिक; एक भौतिक दूसरा आत्मिक। इनमें से जिनकी प्रधानता होती है, उसी के अनुसार जीवन का स्वरूप बनता है। भौतिकवादी जीवन भौतिक, स्थूल दृष्टिकोण का फल है और आध्यात्मिक जीवन मनुष्य की सूक्ष्म विवेक बुद्धि की प्रेरणा पर अवलंबित है।

बाहर से देखने में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि शरीर के पोषण एवं निकटवर्ती स्वजनों के प्रति कर्तव्यपालन के लिए गही, विरक्त सभी को जीवनोपयोगी वस्तुओं का सृजन एवं संग्रह करना पड़ता है। उनकी

मात्रा में न्यूनाधिकता हो सकती है पर उस अनिवार्य प्रक्रिया से छुटकारा किसी को भी नहीं मिल सकता।

___ गृहस्थ को आजीविका उपार्जन के लिए कृषि, मजदूरी, शिल्प आदि कार्य अपनाने पड़ते हैं तो विरक्त को भिक्षा, कंद-मूल, फल संग्रह आदि के लिए उद्योग करना पड़ता है। सभी को वस्त्र चाहिए, सभी को निवास के लिए घर चाहिए। पात्र चाहे कमंडलु हो, चाहे धातु का बना हो आवश्यक ही रहता है। माला, पुस्तक, आसन, वस्त्र, कंबल, झाड़, जल-पात्र, दीपक, अग्नि-साधन कुटी, आश्रम, गुफा तो साधु को भी चाहिए। उनके टूटने-फूटने पर उन्हें बार-बार प्राप्त करना पड़ता है। भोजन और जल भी बार-बार चाहिए। इनके साधन जुटाने में काफी समय लगाना पड़ता है। गृहस्थों का जिस प्रकार अपना ४-६

आदमियों का परिवार होता है, साधुओं के भी उससे अधिक सहचर, शिष्य, स्नेही मनुष्य या पशु-पक्षी बन जाते हैं। पूर्ण एकाकी जीवन किसी के लिए भी संभव नहीं। मनुष्य की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि उसकी भावनाओं का विकास दूसरों के सहचरत्व में ही संभव है। पूर्ण एकाकीपन तो जड़ता की ओर ही ले जाता है। सहचरों के साथ जो कर्त्तव्य एवं भाव-कुभाव गृहस्थ को रहते हैं, लगभग वैसे ही साधु को भी बने रहते हैं।

__ वनवासी तपस्वी को सिंह का भय, व्याघ्र का आतंक, भोजन की इच्छा, साधन-सामग्री की चिंता, मुक्ति की अभिलाषा, बंधनों से घृणा, सज्जनों से राग, दुर्जनों से द्वेष एवं आंतरिक कुसंस्कारों से संघर्ष करते रहना पड़ता है। सुविधाओं को जुटाने एवं असुविधाओं को मिटाने के लिए उन्हें भी बहुत कुछ सोचना और करना पड़ता है। लगभग ऐसी ही प्रक्रिया गृहस्थ जीवन में भी बनी रहती है। इस प्रकार विचारपूर्वक देखने से दोनों ही प्रकार के, सभी प्रकार के जीवन भौतिकवादी दीखते

हैं। जीवित मनुष्य इनसे छुटकारा नहीं पा सकता है। क्योंकि उसका निर्माण ही कुछ इस ढंग से हुआ है कि प्रयत्न और पुरुषार्थ, साधन

और सुविधा के लिए उसे एक निश्चित ढर्रे पर चलना ही पड़ेगा। मात्रा का अंतर रहे तो भी वस्तुस्थिति में अंतर नहीं आता। बाह्य जीवन हर व्यक्ति का भौतिकवादी ही होता है।

प्रश्न भीतरी स्थिति का है। अंतर इतना ही रहता है कि एक श्रेणी के व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के प्रति भावनाएँ रखते हैं, उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं, उनकी प्राप्ति से सुखी और दुःखी होते हैं, वे अपना लक्ष्य इन भौतिक पदार्थों और परिस्थितियों को ही बनाए हैं। ऐसे लोगों को भौतिकवादी कहा जाता है। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति वे हैं जो भावना को महत्ता देते हैं, वस्तु को उसका उपकरण मानते हैं। वस्तुओं का निस्सारता, जड़ता, क्षणभंगुरता को समझते हुए केवल उनके सदुपयोग की बात सोचते रहते हैं। विश्वमानव की श्रेय-साधना ही उनका लक्ष्य होता है। जीवन की गतिविधियों का और अपनी कार्यपद्धति का निर्माण वे इसी आधार पर करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अध्यात्मवादी कह सकते हैं।

___ भौतिकवादी और अध्यात्मवादी का अंतर प्रत्येक पदार्थ और स्थिति में बिलकुल भिन्न होता है। यह भिन्नता ही उनके उत्थान और पतन का कारण बनती है। एक युवा लड़की को दो व्यक्ति ध्यानपूर्वक देख रहे हैं। इनमें से एक वासना की दृष्टि और एक आत्मा की सुरम्य आभा देखकर पुलकित होने के लिए देखे, तो बाह्य दृष्टि में दोनों की क्रिया एक होते हुए भी उनका प्रतिफल एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न होगा।

__मंदिर में दो व्यक्ति भगवान का दर्शन तन्मयतापूर्वक कर रहे हैं। एक भावनापूर्वक इस प्रतिमा में घट-घटवासी सर्वव्यापी भगवान की

झाँकी करता हुआ गद्गद् होता है। दूसरा मुकुट-शृंगार का, पत्थर आदि का मूल्य आंकता है और दूसरी प्रतिमाओं के बाह्य साधनों के साथ तुलना करता है, उसकी समग्र दृष्टि विलास तक सीमित है। ऐसी दशा में दोनों का देवदर्शन भिन्न परिणाम ही उत्पन्न करेगा। एक और तीसरा चोर व्यक्ति जो मूर्ति का कीमती श्रृंगार चुराने की घात लगाकर खड़ा है और उसके लिए अवसर खोजने में तत्पर है, उपर्युक्त दोनों व्यक्तियों से भिन्न प्रकार की परिणति का अधिकारी होगा। एक को भगवान के दर्शन का लाभ मिलेगा, दूसरा शृंगार एवं मंदिर की शोभा की आलोचना करके मनोरंजन करेगा, तीसरा पाप में प्रवृत्त होकर दुःख भोगेगा, पकड़ा गया तो जेल जाएगा। इस प्रकार एक ही प्रकार से देवदर्शन कर रहे तीन व्यक्ति तीन तरह की गति को प्राप्त होंगे।

एक व्यक्ति धन-संचय में अपना गौरव मानता है, स्त्री को रमणी एवं दासी के रूप में सुखोपभोग की सामग्री मानता है, अहंकार की तृप्ति में प्रसन्न होता है तो उसे स्थिति की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता के अनुसार सुख-दुःख मिलेगा। सच तो यह है कि उसे हर समय दुःख होगा। क्योंकि जो छोटी-मोटी सफलता मिलेगी वह तृष्णा की तुलना में कम ही होगी। इसलिए और अधिक की आकांक्षा में उपलब्ध साधन अपर्याप्त एवं असंतोषजनक ही मालूम पड़ेंगे और वह निरंतर खिन्न ही बना रहेगा। भौतिकवादी दृष्टिकोण में सदैव अतृप्ति, असंतुष्टि, कुढ़न एवं खिन्नता ही बनी रहेगी क्योंकि इस संसार की सब वस्तुएँ मिलकर भी एक व्यक्ति की तृष्णा को पूरा नहीं कर सकती।

दूसरा व्यक्ति जो धन को ईश्वर की अमानत एवं उच्च आदर्शी के लिए सदुपयोग की सामग्री मात्र मानता है, उसे धन के संबंध में अकुलाहट क्यों होगी? उचित साधनों से जितना कमाया जा सकता है, उतने का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर लेने की कला यदि हो तो थोड़े पैसे में

भी उतना आनंद एवं सत्परिणाम प्राप्त किया जाता है, जितना धनकुबेरों के लिए भी संभव नहीं हो सकता। संसार के इतिहास में जगमगाते हुए महापुरुषों में से अधिकांश निर्धन श्रेणी के थे। जो कुछ पास था उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हुए वे प्रगति के आशाजनक साधन एकत्रित कर सके। किंतु जिनके पास धन के अटूट भंडार भरे पड़े थे उन्होंने उससे अपना नाश ही किया। उन्होंने अगणित दोष खरीद लिए जो निर्धनों को कदाचित ही प्रभावित करते हैं। अविवेकी धनवान जितनी तेजी से अपना और समस्त संसार का नाश करते हैं, उतना अविवेकी निर्धन नहीं कर पाता। इन बातों पर विचार करते हुए अध्यात्मवादी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति जिस उचित मार्ग से काम कर सकता है उतने का सदुपयोग करते हुए सुखी रहता है। वह यह सोच भी नहीं पाता कि धन का जमा होना, न होना भी किसी के गौरव को घटाने-बढ़ाने का कारण बन सकता है।

__नारी के प्रति माता, बहन और पुत्री की पवित्र भावनाएँ रखने वाला व्यक्ति कितना शांत और संतुलित रहता है, इसकी कल्पना भी लंपट प्रकृति के दुष्ट दुराचारी एवं वासनाओं के कीड़ों के लिए कठिन होती है। वे सदा हाथ मलते और अपनी दुर्बुद्धि की आग में जलते रहते हैं। यदाकदा जो थोड़ी-सी सफलता प्राप्त कर लेते हैं, उतनी में भी अपनी प्रतिष्ठा को तो वे खो ही बैठते हैं। भले लोगों के बीच उन्हें घृणा, आशंका और तिरस्कार की ही दृष्टि से देखा जाता है। अपनी पत्नी में भी रूप, यौवन और अन्य आकर्षण को खोजने वाले और उसी आधार पर संतुष्टि-असंतुष्टि की बात सोचने वाले लोग दांपत्य जीवन का आनंद क्या उठा सकेंगे? उनमें से हर मनुष्य को असंतोष ही रहेगा क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है। दूर से कोई पूर्ण भले ही दीखे, पास से हर वस्तु अपूर्ण दिखाई पड़ती है। ऐसी दशा में पत्नी

भी किसे मनोवांछित मिलेगी? हाँ, जिसने पतिव्रत धर्म की तरह पत्नीव्रत को आदर्श मान लिया है और उस धर्म कर्त्तव्य को निभाते हुए जैसी भी कुछ सहधर्मिणी मिली है; उसे प्रेम प्रदान करते हुए, संतोष और स्नेह के साथ शिरोधार्य करते हुए क्षमा, उदारता और आत्मीयता की भावना से उसकी त्रुटियों को निभाते हुए; सुधारने का सौम्य प्रयत्न करते हुए; अपने गृहस्थ जीवन को स्वर्गीय बनाने का प्रयत्न किया है, उसे त्रुटिपूर्ण नारी प्राप्त होने पर भी सदा सुख-शांति का ही दर्शन होता रहेगा।

अहंकार की तृप्ति के लिए अनावश्यक अपव्यय, फैशन, ठाठबाट, पदवी, मान-सम्मान की आकांक्षा जिसे बनी रहेगी उसे दूसरों का गुलाम बनकर रहना होगा। दूसरे क्या पसंद करते हैं, दूसरों को प्रभावित कैसे किया जा सकता है, यही सोचने में उसे अपनी शक्ति और सामर्थ्य का बहुत बड़ा अंश खरच कर देना पड़ेगा। किंतु जिसने सादगी को ही सौंदर्य और सज्जनता का प्रतीक माना है वह मितव्ययता बरतते हुए सीधे-सादे ढंग का कम खरचीला जीवन बना लेगा और सदा सुखी रहेगा। सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम ठाठ-बाट को मानना वस्तुत: बहुत ही छिछोरापन है। यदि ऐसा रहा होता तो रंगमंच पर सजा-धजा राजा का अभिनय करने वाले नट को संसार में भारी मान मिलता। बनावट का खोखलापन और ओछापन दूर से ही दीखता है और हर समझदार आदमी उसे व्यंग्य, उपहास और बचकानेपन का ही प्रमाण मान सकता है। एक ओर ठाठ-बाट के नाम पर आवश्यक कार्यों से भी वंचित रहना और उस आडंबर पर बहुत धन एवं समय खरच करना, दूसरी ओर विचारशील लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना यह दोहरी मार ढोंगी, अहंकारग्रस्तों पर पड़ती है। सादगी का, सज्जनता का जो महत्त्व समझते हैं वे अपनी शक्तियों का सदुपयोग दूसरी बातों में करते हैं।

संसार की वस्तुओं में सौंदर्य और सुख की तलाश करते हुए उनके पीछे दौड़ने वाले लोग भौतिकवादी कहे जाते हैं। उनका यह दृष्टिकोण मृगतृष्णा की तरह आजीवन भटकते रहने पर भी कभी शांति और संतोष का दर्शन नहीं दे पाता। धनी-मानी व्यक्ति भी कितने अशांत, उद्विग्न और खिन्न रहते हैं ? उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कितना जर्जर बन चुका है, उसका अनुभव दूरवर्ती को नहीं, समीपवर्ती को ही हो सकता है। बाहर के लोग उनका ठाठ-बाट देखकर यह कल्पना करते हैं कि ये लोग सुखी होंगे, पर सच बात यह है कि जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं, उसमें जीवन का निरर्थक अपव्यय हो जाने के अतिरिक्त लाभ कुछ भी नहीं मिलता।

वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण, उनके प्रति अनावश्यक मोह, आत्मघात के समान ही हानिकारक है। नर-तनु जैसा सुरदुर्लभ अवसर इन्हीं बाल-क्रीड़ा में बिना ढंग खोना, जो कुछ कमाया-धमाया है, उसे कूड़े-करकट की तरह यों ही छोड़कर चलते बनना इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है। आशा और तृष्णा के झूले में झूलते हुए एक अतृप्ति की चमक भी जब नशेबाजों के व्यसन की तरह पीछे लग जाती है, तो छूटती ही नहीं और उसका परिणाम भी नशेबाजों के द्वारा पूर्ण बरबादी के बाद किए जाने वाले पश्चात्ताप जैसा ही होता है।

हमें भली प्रकार यह समझ लेना चाहिए कि सुख पदार्थों में नहीं, भावनाओं में सन्निहित है। भावनाओं को जितना ऊँचा उठाया जाएगा, जितना परिष्कत किया जाएगा, जितना आदर्शवाद का पुट दिया जाएगा उतनी ही आध्यात्मिकता बढ़ेगी और उस अध्यात्मवादी दृष्टिकोण के आधार पर हर वस्तु सुंदर, सुरम्य एवं आनंददायक दृष्टिगोचर होने लगेगी। सूर्य का प्रकाश पड़ने पर हर वस्तु चमकती है। इसी प्रकार अध्यात्मवादी दृष्टिकोण अपनाने वाले के पास जो साधारण वस्तु होगी;

जो सामान्य परिस्थितियाँ रहेंगी; जो सामान्य श्रेणी के मनुष्य रहेंगे, वे आनंददायक, संतोषजनक, उत्साहवर्द्धक एवं शांति प्रदान करने वाले परिलक्षित होने लगेंगे।

लौकिक सुखों का स्त्रोत खोजें अनेक गुत्थियों और समस्याओं के साथ मनुष्य का जीवन उलझा हुआ है। उन्हें यह सुलझाना चाहता और शांतिपूर्वक रहना चाहता है, पर वे सुलझ नहीं पातीं। कारण यह है कि समस्याओं का वास्तविक स्वरूप एवं उन्हें सुलझाने का सही तरीका मालूम न होने से इस प्रकार के प्रयत्न किए जाते रहते हैं, जो जड़ की उपेक्षा करके पत्तों को सींचने के समान हास्यास्पद सिद्ध होते हैं। परमात्मा सबका पिता है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं। वह सबका हित और कल्याण चाहता है और सभी के लिए समान स्नेह से सुख-साधन एवं सुविधाएँ प्रदान करता है। किंतु देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति दुखी और कितने ही सुखी हैं। इस भिन्नता का कारण कोई बाहरी व्यक्ति, परिस्थिति, ग्रह-नक्षत्र या देव-दानव नहीं वरन वह स्वयं ही है।

प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। प्रारब्ध और आकस्मिक हानि-लाभ जो कि दैवी अनुग्रह या कोप समझे जाते हैं वस्तुतः हमारी अपनी निज की कृति ही हैं। भूतकाल में हमने जो कुछ शुभ-अशुभ कर्म किए हैं वे ही आज प्रारब्ध बनकर सामने खड़े होते हैं। पूर्व कृत शुभ कर्मों का जब सुखद परिपाक सामने आता है, तब वह दैवी कृपा जैसा लगता है और जब अशुभ कर्मों का दुःखदायी परिणाम सामने आता है, तो वह ईश्वरीय कोप या भाग्यहीनता जैसा प्रतीत होता है। वस्तुतः अपनी प्रत्येक भली-बुरी परिस्थिति का उत्तरदायित्व स्वयं अपने ऊपर ही होता है। सुख और दुःख देने की शक्ति बाहर की अन्य किसी सत्ता में नहीं, यह तो व्यक्ति स्वयं ही है जो अपने लिए शुभ-अशुभ परिस्थितियों का निर्माण किया करता है।

मकड़ी अपना जाला स्वयं बनाती है और उसमें स्वयं ही उलझी रहती है। मनुष्य ने भी अपनी परिस्थितियों का जाला स्वयं ही बुना होता है और वह स्वयं ही उसमें फँसता-निकलता रहता है । इस तथ्य को हम जितना अधिक हृदयंगम करते हैं, उतना ही यह निश्चय होता जाता है कि अध्यात्म ही इस संसार का सबसे बड़ा, सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वज्ञान है। यही सबसे बड़ी शिक्षा और यही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है।

जिस आधार पर हमारे सुख-दुःख की, उत्थान-पतन की, संतोषसंताप की धुरी घूमती है, उस पर ही अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। जड़ को सींचने से ही जब पत्ते हरे होंगे, तो हर कुम्हलाए हुए पत्ते को अलग-अलग सींचने या उन पर हरा रंग पोतने का श्रम करने से क्या लाभ? अनेक प्रकार की गुत्थियाँ और परेशानियाँ हमारे सामने रहती हैं। यदि उनका उलझना और सुलझना हमारी आंतरिक स्थिति पर ही निर्भर है तो बाह्य उपचारों की अपेक्षा अपने आंतरिक स्तर का सुधार करने का ही प्रयत्न क्यों न किया जाए?

___ अध्यात्म वस्तुतः एक महान विज्ञान है। इसे जीवनविद्या या संजीवनी विद्या कह सकते हैं। जीवन जैसे महान कार्य का सही उपयोग करना इसी ज्ञान के आधार पर संभव होता है। किसी बड़ी जागीर, मिल, फैक्टरी, फर्म, संस्था-उद्योग या विशालकाय मशीन को चलाने, सुधारने और लाभदायक स्थिति में रखने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। यदि अनाड़ी के हाथों में ऐसे बड़े कार्य सौंप दिए जाएँ तो अनर्थ की ही संभावना रहेगी। मानवजीवन भी ऐसी ही एक बहत बड़ी जिम्मेदारी है। चौरासी लाख योनियों के बाद प्राप्त हुआ, सृष्टि का सर्वोत्तम उपहार, यह सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर है। इसको ठीक

प्रकार से जीने की भी एक सर्वांगपूर्ण विद्या है, उसे ही अध्यात्म कहत हैं। जिसने अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप जान लिया और अपना लिया उसके लिए यह मानव शरीर ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार है। सुख-शांति का रत्न कोश है। आनंद और उल्लास का खजाना है। ऐश्वर्य और वैभव का कल्पवृक्ष है। अध्यात्मयुक्त जीवन ही वह जीवन है जिसे प्राप्त कर मनुष्य अपने आप को देवता की स्थिति में पहुँचा हुआ अनुभव करता है।

लौकिक जीवन में जितने भी सुख-साधन एवं प्रसन्नतादायक अवसर हैं उनका मूल अध्यात्म ही है। यदि इस विचारधारा का प्रभाव मन पर न हो तो पुण्य-कर्म किस प्रकार बन पड़ेंगे? और उनके बिना सुख-साधनों से परिपूर्ण प्रारब्ध कैसे बनेगा? स्त्री-पुत्रों का, स्वजनोंपरिजनों का सज्जन और सद्भाव संपन्न होना एक बहुत बड़ा सुख है। पर यह सुख उसे ही मिलता है जिसने अपने स्वभाव और चरित्र को आदर्श बनाकर अपने निकटवर्ती लोगों को प्रभावित कर लिया है। दूसरों को सज्जन बनाने के लिए अपना सज्जन होना आवश्यक है।

क्रोधी बाप के बेटे अवज्ञाकारी ही हो सकते हैं। बालक के स्वभाव का बहुत कुछ निर्माण उसके जन्म से पूर्व हो जाता है। मातापिता के रज-वीर्य से बच्चे का शरीर बनता है और स्वभाव एवं चरित्र से उनका मन विनिर्मित होता है। अच्छी संतान पैदा करने के इच्छुक माता-पिता को इसके लिए वर्षों पूर्व आत्म-निर्माण की साधना करनी पड़ती है। अपना चेहरा कुरूप हो तो फोटो भी कुरूप ही खिचेगा। माता-पिता का स्वभाव अव्यवस्थित हो तो उनके बालक कैसे सज्जन और सद्भावी होंगे? बच्चों को पौष्टिक भोजन कराके उन्हें स्वस्थ और कपड़े-जेवर आदि से सजाकर सुंदर बनाया जा सकता है, पर

उसके स्वभाव में श्रेष्ठता तो तभी आवेगी जब माता-पिता अपनी श्रेष्ठता का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उन पर डालें। ___ यह कार्य आध्यात्मिक विचारधारा से ओत-प्रोत दंपत्ति ही कर सकते हैं। इसलिए उत्कृष्ट प्रकार की संतान प्राप्त करना भी उन्हीं के लिए संभव होता है। कभी-कभी सज्जनों के घर में भी कुसंस्कारी बालक जन्मने के अपवाद होते तो हैं, पर मोटा नियम यही है कि जैसे भावना-प्रवाह में बालक पलता है, वैसे ही संस्कार उसके बनते हैं और धीरे-धीरे वह उसी ढाँचे में ढल जाता है। उपदेशों से नहीं, बालक संस्कारों से ढलते हैं और श्रेष्ठ ढालने का साँचा एकमात्र अध्यात्म ही है।

यही बात परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर लागू होती है। पति-पत्नी में से एक भी उत्कृष्ट स्वभाव का हो तो दूसरे की अपूर्णता को बहुत हद तक दूर करके सभी को बहुत अंशों में अपने अनुकूल बना सकता है। व्यवहार की सज्जनता से परिवार के अन्य सदस्य भी अपने अनुकूल बन जाते हैं। मित्रों और संबंधित व्यक्तियों पर भी यह बात बहुत हद तक लागू होती है।

संबंधित व्यक्ति अपने अनुकूल स्वभाव और आचरण रखें, अपने प्रति सद्भाव रखें तो उनके सान्निध्य में रहने से स्वर्ग जैसा सुख मिल सकता है। जिसके निकटवर्ती परिजन विरोध-दुर्भाव रखते हैं उनके लिए प्रत्यक्ष नरक ही है। भौतिक जीवन के इस स्वर्ग को नरक में और नरक को स्वर्ग में बदल देना हमारे अपने दृष्टिकोण एवं स्वभाव की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता पर बहुत कुछ निर्भर है। अध्यात्म की ओर अभिमुख होकर यदि कोई व्यक्ति अपने परिजनों को स्नेही एवं सहयोगी बना लेता है तो क्या यह कुछ कम लाभ है ? धनी होना उतना सुखकर नहीं जितना स्नेही परिवार प्राप्त करना। ये दोनों ही सुख प्रदान करने की अनंत क्षमता अध्यात्मविद्या

में सन्निहित है। ऐसी महान विद्या की उपेक्षा करना निश्चित रूप से कोई समझदारी की बात नहीं है।

बहुत आमदनी होने पर तो कोई भी सुख-साधन इकट्ठे कर सकता है, पर अध्यात्मवादी के लिए कम आमदनी में बनियों की अपेक्षा अधिक सुखपूर्वक जीवनयापन करना संभव है। आमदनी की मर्यादा में ही अपना बजट चलाना, फजूलखरचियों को त्याग देना, मितव्ययता और विवेकपूर्ण एक-एक पाई का खरच करना, शौकीनी और विलासिता से घृणा करते हुए सादगी को अपनाना, खरच में दूसरों की होड़ न करके अपनी ही परिस्थितियों में संतोष रखना आदि अनेक सद्गुण आध्यात्मिकता की ही देन हैं, जो गरीबी में अमीरी का आनंद उपलब्ध करा सकते हैं। इन गुणों के होने पर गरीबी, गरीबी नहीं लगती और इनके अभाव में अमीरी भी रूखी, फीकी, असंतोषजनक एवं अपर्याप्त लगती है।

स्वास्थ्य की समस्या का संबंध लोग पौष्टिक आहार से जोड़ते रहते हैं। सोचते हैं कि बढ़िया खाना मिले तो तंदुरुस्ती बढ़े।वास्तविकता यह है कि मानसिक स्थिति पर ही आरोग्य निर्भर रहता है। हँसमुख, चिंतारहित, सरल स्वभाव, निष्कपट, सदाचारी व्यक्ति आमतौर से स्वस्थ रहते हैं, क्योंकि उनका अंत:करण उस आग में नहीं जलता रहता जो स्वास्थ्य को चौपट करने में सबसे बड़ा कारण सिद्ध होता है। असंयम भी स्वास्थ्य की बरबादी का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। जिह्वा का चटोरपन, अंट-शंट चीजें अनावश्यक मात्रा में पेट में लूंसते रहने के फलस्वरूप आतें खराब होती हैं, रक्त दूषित होता है और नाना प्रकार की बीमारियाँ जड़ जमाती हैं। ब्रह्मचर्य संबंधी असंयम शरीर को खोखला कर देता है और युवावस्था में ही बुढ़ापा लाकर अल्पायु में मरने के लिए विवश करता है। इससे शरीर का हर अंग दुर्बल होने लगता है और बीमारियाँ घेरती हैं।

लौकिक जीवन में आरोग्य धन, स्नेह, सौजन्य ये तीन ही सबसे बड़ी विभूतियाँ मानी गई हैं। इन्हीं से मनुष्य अपने को सुखी अनुभव करता है। ये तीनों ही विभूतियाँ अध्यात्म के छोटे से उपहार हैं, जिन्हें सच्चे अध्यात्मवाद का कोई भी उपासक निश्चित रूप से प्राप्त कर सकता है। आंतरिक जीवन की वह सुख-समृद्धि तो इन लाभों के अतिरिक्त ही है; जिन्हें प्राप्त करने वाला अपने को सब प्रकार से धन्य और कतकत्य अनभव करता है। अपना दोष स्वीकार कीजिए औरों के भुलाइए

सद्गुण मनुष्य जीवन की प्रमुख आवश्यकता है। इससे मनुष्य के सुखों में अभिवृद्धि होती है, समाज में व्यवस्था रहती है और सर्वत्र सुखद वातावरण विनिर्मित होता है। सद्गुणी मनुष्य के लिए इस संसार में कुछ भी अभाव नहीं है। उसे आंतरिक शांति होती है। संतोष मिलता है। सहज ही आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है।

किंतु मनुष्य जिन परिस्थितियों में जन्म लेता है; उनमें पूर्ण रूप से गुणयुक्त बने रहना प्रायः असंभव-सा है। दैनिक व्यवहार और लोकाचार में भूलें, त्रुटियाँ और अपराध होना भी संभव है। अच्छेबुरे का विवेक सदैव नहीं रहता। मनोविकार उठते हैं तो मनुष्य दुष्कर्मों की ओर प्रेरित होता है। कुछ न कुछ दोष-ऐब सभी में होते हैं। पूर्णरूप से सद्गुणी और सदाचारी व्यक्ति बहुत ही थोड़े मिलेंगे। अधिकांश व्यक्तियों के स्वभाव में कुछ न कुछ बुराइयाँ जरूर होती हैं । यह संसार गुण-दोषमय है, एकसी स्थिति यहाँ कहीं नहीं है।

दोष मनुष्य जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है, किंतु निन्यानवे प्रतिशत अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य अपने को दोषी नहीं ठहराता, चाहे उससे कितनी ही भारी भूल क्यों न हुई हो!

भूल को स्वीकार कर लेने में हानि कुछ भी नहीं है। अपना मन निर्मल हो जाता है और आगे के जीवन के लिए स्वस्थ-वित्त एवं जागरूक हो जाते हैं। किंतु दोष को जब दोष मानकर स्वीकार नहीं किया जाता, तो मनुष्य का दुस्साहस उद्दीप्त होता है और उसे अपराध करने में ही आनंद आने लगता है। छिपाई हुई भूल भी अनेकों दूसरे प्रकार के अनर्थों को जन्म देती है। इस तरह पाप और दोष-दुष्कर्मों से प्रत्यक्ष में उतना विषैला वातावरण नहीं बनता जितना उसे छिपाने से होता है। __छिपाए हुए अस्वीकृत दोष की जड़ें मनुष्य के मस्तिष्क में गहराई तक प्रवेश करके मजबूत स्थिति बना लेती हैं, जो एक बार क्या बारबार दंड देने से भी दूर नहीं होती। बाँध लगाकर रोके गए पानी की तरह उसे जिधर से असावधानी और कमजोरी दिखाई पड़ती है उधर ही बारबार फूट पड़ता है। इससे मनुष्य की अशांति बढ़ती है। सारी शक्तिअपव्यय की चौकसी में ही खरच होती रहती है और रचनात्मक या गुणात्मक जीवन के सारे सुख और आनंद तिरोहित हो जाते हैं। आत्मकल्याण के इच्छुक को मनोगत दोषों को सुधारने में बहुत परेशान होना पड़ता है, किंतु यदि इन दोषों को प्रकट कर दिया जाए तो मस्तिष्क का बहुत-सा बोझ हलका हो जाता है और आत्म-विकास का नैतिक पथ प्रशस्त होने लगता है।

अपने दोष स्वीकार कर लेने का अर्थ है सचाई के प्रति प्रेम। सचाई मनुष्य के बाह्य-आंतरिक विकास में परमोपयोगी गुण है। अगर सचाई न हो तो मनुष्य एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता। सचाई प्रथम आवश्यक वस्तु है। इसका परित्याग कर देने से विश्वात्मा की अनुभूति संभव नहीं हो सकती है। मनुष्य डरा-डरा-सा रहेगा। झूठ से हृदय काँपता है। चारों ओर से कोई न कोई अपनी ओर उँगली ही उठाता 

जान पड़ता है। हर संकेत पर, प्रत्येक इशारे पर यही संशय होता है कि वहाँ अपनी कोई बुराई कर रहा है; चाहे वहाँ बात किसी अन्य पुरुष की ही चल रही हो। निर्भीकता सचाई में होती है। जिसे सच बोलने का अभ्यास होगा, वह भला किसी की निंदा से क्यों घबराएगा? सच्चे आदमी सदैव साहसी होते हैं। संत सुकरात कहा करते थे कि ‘जो अपने आप को व्यक्त कर सकता है उसे मैं सर्वोपरि साहसी मानता हूँ। मझे विश्वास हो जाता है कि वह एक दिन जरूर अपना जीवनलक्ष्य प्राप्त कर लेगा क्योंकि अब उसका हृदय साफ हो गया है और परमात्मा को धारण करने की स्थिति बन गई होती है।’

पाप जब तक मनुष्य के मन में ही चक्कर काटते रहते हैं, वह उन्हें प्रकट नहीं कर पाता तो उसकी दशा बहुत गिरी-गिरी-सी, दबैल और दिग्भ्रांत बनी रहती है। किसी सही निष्कर्ष पर पहुँच सकने की उसकी शक्ति नहीं होती। विचार नहीं उठते, जो उठते भी हैं, वह टूटेफूटे बिखरे। ऐसा गतिशील विचार-प्रवाह उसमें नहीं आता, जो कुछ विशेष कार्य कर सके।

__ इसलिए मनुष्य के मन में जब तक दोषों की विचार तरंगें उठती रहती हैं, तब तक अपने ही सीमा क्षेत्र में घूमता रहता है। उसकी दृष्टि अंतर्मुखी नहीं हो पाती। बाह्य जीवन सुखोपभोग की चाह पर ही वह टकराया करता है। इस स्थिति के रहते मनुष्य का सामान्य जीवनक्रम भी व्यस्त और विश्रृंखलित ही बना रहता है। उसके जीवन में सच्चा आनंद नहीं उमड़ पाता है। अतः अपनी बात को भी प्रकट होने देने का अवसर मिलना चाहिए। अपने दोषों को भी कबूल कर लेना चाहिए, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि सचाई के प्रति आपमें साहस है और दुर्गुणों को आप अच्छी दृष्टि से नहीं देखते, चाहे वह अपने ही क्यों न हों! बुराइयों के लिए लज्जा का अनुभव होना ही चाहिए।

अपनी ही बातों को ठीक मानने का अर्थ तो यही होता है कि दूसरे सब झूठे हैं, गलत हैं। इस प्रकार का अहंकार अज्ञान का द्योतक है। इस असहिष्णुता से घृणा और विरोध बढ़ता है, सत्य की प्राप्ति नहीं होती। सत्य की प्राप्ति होनी तभी संभव है, जब हम अपनी भूलों, त्रुटियों और कमियों को निष्पक्ष भाव से देखें। अपने विश्वासों का निरीक्षण और परीक्षण भी करना चाहिए। मनुष्य का मन ऐसा हो जैसा किसी बाग का रखवाला-माली होता है। माली का काम केवल पौधे लगाना ही नहीं वरन फूलों के पौधे के आस-पास उगने वाले अनावश्यक झाड़-झंखाड़ को भी उखाड़ कर बाहर फेंकना है। गुणों की पौध भी तभी अंकुरित एवं पल्लवित हो सकती है, जब मानसिक-विद्वेषों को समय-समय पर मस्तिष्क से निकाला जाता रहे। इससे चित्त स्वस्थ, मन प्रसन्न और मस्तिष्क विकासशील बना रहता है।

___ मनुष्य जीवन की पवित्रता के लिए शारीरिक स्वच्छता ही काफी नहीं है, आंतरिक सफाई भी चाहिए। शास्त्र मर्यादा में इसे यों कहा है

वसतां ना पवित्रः सन् बाह्यतोऽभ्यन्तस्तथा। यतः पवित्रायां हि रंजतेऽति प्रसन्नता।

मनुष्य को भीतर और बाहर सभी ओर से पवित्र होना चाहिए। पवित्रता में ही प्रसन्नता समाविष्ट है।।

बाह्य पवित्रता का अर्थ व्यावहारिक जीवन की शुद्धि है और आंतरिक स्वच्छता विचार और भावनाएँ स्वच्छ रखने से आती हैं। विचारों का शुद्धिकरण मन के मैल धोने, बुराइयों को मन से निकाल देने से ही संभव है। कूड़ा-करकट, मैल, विकार, पाप, गंदगी, दुर्गंध, सड़न, अव्यवस्था और घिच-पिच से मनुष्य की आंतरिक निकृष्टता प्रकट होती है। पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शांति,

को दुःख का नाम दे लेता है। यदि अभाव और प्रतिकूलताएँ ही दुःख का कारण होती तो इनकी अनुपस्थिति में मनुष्य को सुखी ही रहना चाहिए। धन-दौलत, स्वास्थ्य, सौंदर्य, संतान, भोग-विलास, साधनसंपन्नता जिन्हें सुख का विशेष आधार कहा जाता है, अपनी उपस्थिति से मनुष्य का सारा दुःख दूर कर देते पर क्या ऐसा हो पाता है ?

उदाहरण के लिए इनमें से धन को ले लीजिए। धन का न होना अभाव माना जाता है और अभाव को दुःख का कारण! पर क्या धन का अभाव संसार में सबको दुखी रख पाता है ? नहीं ऐसा नहीं होता। अभाव के प्रति भी मनुष्यों का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है और अपनी-अपनी अनुभूति के आधार पर दुखी अथवा सुखी होते हैं। किसी व्यक्ति के लिए अभाव का मतलब होता है-जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं का पूरा न होना। और उनकी पूर्ति हो जाना ही वह अनाभाव अथवा प्रकामता मानता है और उस सामान्यतम स्थिति में भी संतुष्ट तथा सुखी रहता है।

जबकि ठीक इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं, जो सब कुछ पाकर भी सुखी नहीं होते, आवश्यकता से हजारों गुना साधन होने पर भी दुःखी रहते हैं। उनके लिए संपन्नता का अर्थ न जाने पदार्थों की कौन सी मात्रा होती है? लाभ के बाद लाभ पाते हुए भी, थैली पर थैली भरते हुए भी और सुख-साधनों से भरी कोठियाँ पाते रहने पर भी हाय कमी-हाय कमी चिल्लाते रहते हैं।

संसार में ऐसे आदमियों का अभाव नहीं है जो अस्वस्थ अवस्था में भी काम करते हैं। अपना दुःख-दरद भूलकर दूसरों की सेवा में संलग्न रहते हैं। कभी खाट पर पड़कर अथवा घर में बैठकर रोग की आराधना नहीं करते। साथ ही ऐसे लोग भी इसी संसार में पाए जाते हैं जो थोड़ा जुकाम हो जाने या जरा-सा ज्वर आ जाने पर चारपाई पर पड़े और

अपनी नब्ज पकड़े रहते हैं। इस डर से बाहर नहीं निकलते कि हवा लग जाएगी और उनका ज्वर निमोनिया में बदल जाएगा। इसी भय से कपड़ों में लिपटे लेटे रहते हैं कि काम करने से बीमारी बढ़ जाएगी, शरीर टूट जाएगा। इस प्रकार देख सकते हैं कि दुःख, तकलीफ अभाव अथवा परिस्थिति पर निर्भर नहीं हैं । बल्कि अपनी समझ अथवा दृष्टि पर निर्भर होता है।

___ अशांति और असंतोष का बहुत कुछ आधार मनुष्य का अपना मन भी है। जिस प्रकार बिना सधा हुआ घोड़ा सवार को दु:खदायी स्थिति में डाल देता है उसी प्रकार बिना सधा, अनियंत्रित अथवा असंस्कृत मन भी दुःखों का कारण बनता रहता है। अनियंत्रित कामनाएँ बिना सधे घोड़े की तरह ही मनुष्य को विषम परिस्थितियों में ही खींचे रहती हैं। ऐसी ऊहापोह में उलझाए रहती हैं, ऐसी अनर्गल दिशाओं में लिए-लिए भागती रहती हैं, जहाँ पर कष्ट और क्लेशों के ही झाड़झंखाड़ उगे रहते हैं।

यों देने को लोग दुःखों का दोष किन्हीं व्यक्तियों, वस्तुओं, भाग्य अथवा ग्रह-नक्षत्रों और परिस्थितियों पर ही मढ़ते रहते हैं। किंतु वास्तविकता यह है कि उनके अधिकांश दुःखों का कारण उनका असंतुलित एवं असंस्कृत मन ही होता है। जो व्यक्ति अपने मन साधने में प्रमाद करता है, उसे दृढ़, निश्चयी और सत्य-संकल्पशील न बनाकर पराधीन, परावलंबी और परमुखापेक्षी बनाए रखता है। वह दुःखों से बचे रहने की आशा नहीं कर सकता।

दुःखों का कोई ठोस, सुनिश्चित और सर्वमान्य आधार नहीं है। जिससे यह निर्णय किया जा सके कि अमुक स्थिति, परिस्थिति अथवा अवस्था ही दुःख का हेतु है। यदि उसे दूर कर दिया जाए तो दुःख से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। दुःख का अपना कोई स्वतंत्र

आधार, कोई अस्तित्व नहीं, वह मनुष्य की अपनी अनुभूतियों का ही परिणाम है। अपनी कल्पना, मान्यता, धारणा अथवा अनुभूतियों के अनुरूप ही किसी एक ही स्थिति में कोई दुखी दीखता है तो कोई सुखी।

उदाहरण के लिए संतान सुख को ले लीजिए। लोगों की मान्यता है कि संतान की प्राप्ति सुख का कारण है और उसका न होना दुःख का। जिसके संतान नहीं होती, वह उसके लिए बड़ा दुखी, व्यग्र और बेचैन रहता है। उसकी दृष्टि में पुत्रप्राप्ति का सुख संसार में सबसे बड़ा होता है जबकि बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो केवल संतानों के कारण ही दुखी रहते हैं। वे सोचते हैं कि यदि उनके बच्चे न होते तो अधिक स्वस्थ, अधिक संतुष्ट, अधिक निश्चित और अधिक सुखी रह सकते थे। इन बच्चों ने ही उनकी शांति और सारा संतोष छीन लिया है। इस विपरीत भाव का कारण क्या है? वही मनुष्य की अपनी मान्यता और अनुभूति । यदि बच्चों के प्रति उनकी अनुभूति भिन्न-भिन्न न होती तो वे एक समान या तो सुखी होते अथवा दुखी।

संसार के किसी पदार्थ में न सुख है और न दुःख। उसकी उत्पत्ति का स्थान मनुष्य का अपना भाव और अपनी अनुभूति ही होती है। जैसा मनुष्य का भावना-स्तर होता है, उसी के अनुरूप सुख-दुःख का अनुभव होता है। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहेगा, वे हर समय प्रसन्न, सुखी और आनंदित ही बने रहेंगे। इन्हीं सद्भावनाओं और आत्मिक उदारताओं से जंगली-एकाकी, अभावपूर्ण जीवन बिताने वाले महात्माओं को सुख के सिवा और कोई अनुभूति ही नहीं होती। उन्हें जड़-चेतनमय यह सारा संसार प्रभु का आनंदमय उपवन ही आभासित होता रहता है। उन्हें न तो कोई प्रतिकलता दीखती है और न ही कठिनाइयाँ। वे सदा हँसते और प्रसन्न रहते हैं।

वहीं पर ऐसे दुष्ट, स्वार्थी और संकीर्णमना व्यक्तियों की भी कमी नहीं है, जो हीन स्वभाव से मोहित और राग-द्वेष से प्रेरित होते और इस संसार को दु:खों का आगार अनुभव करते रहते हैं। भूलकर भी कभी उनके मुँह से यह नहीं निकलता कि वे सुखी हैं, वे अपनी भावना के कारण दुःख में ही जीते और दुःख में ही मरते रहते हैं। दुर्भावनाएँ ही दुःख की जननी होती हैं। अपनी दुर्भावनाओं को दोष न देकर दुःख का कारण किन्हीं बाहरी व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों पर लगाना मनुष्य की अपनी मूढ़ता के सिवाय और कुछ भी नहीं है। दूसरों के द्वारा दुखी किए जाने की घटनाएँ बहुत थोड़ी होती हैं। अधिकांश में वह व्यक्ति स्वयं भी संलग्न होता अवश्य है।

___ यदि वास्तव में दुःख से छूटना और सुख को प्राप्त करना है, तो किन्हीं बाह्य वस्तुओं अथवा परिस्थितियों को उसका हेतु मानने का अज्ञान छोड़ना होगा। दूसरों को दुःखों का दोष देने का स्वभाव बदलना होगा। अपने मन, रुचि, मान्यता, धारणा और विश्वास का परिमार्जन करना होगा। अपने दृष्टिकोण को विस्तृत तथा सौंदर्य प्रधान कर संसार को देखना होगा। तभी दुःख से छूटना और सुख पा सकना संभव होगा। अपने संकीर्ण अथवा हीन दृष्टिकोण को सदाशयता में बदल देने पर संसार में सभी ओर सुख और सौंदर्य दृष्टिगोचर होने लगेगा। अपनी अभिरुचि के अनुसार ही तो किसी वस्तु में आनंद अथवा घृणा का समावेश होता है। नदी, वन, पर्वतों के प्राकृतिक दृश्य अपने आप में न सुंदर होते हैं और न आनंददायक। पर परिमार्जित मनोभावों और उन्नत दृष्टिकोण वाले सौंदर्यदर्शी उन बीहड़ स्थलों में भी सुंदरता और रमणीयता का दर्शन पाकर मंत्रमुग्ध से हो जाते हैं।

यह अपनी भावना और दृष्टिकोण ही का तो अंतर है कि जहाँ एक कवि और कलाकर को जंगलों में, वनों में और उपवनों में एक

दिव्य सौंदर्य के दर्शन होते हैं और वह अपने उस आनंद को कविता एवं चित्रों में उतारते हैं। वहाँ किसी लकड़हारे को उसमें लकड़ी के सिवा

और कुछ भी नहीं दीखता। वह उन्हें काटता और थोड़ा-सा लाभ उठा लेता है। जहाँ नदी, तालाब भावुक व्यक्ति को आनंद और सुंदरता के स्थल अनुभूत होते हैं, वहाँ मछुए को उसमें मछली पकड़ने के सिवा और कोई भी उपयोगिता नहीं दीखती!

सख का निवास अपने ही आत्मीय भाव में होता है। किसी के पास एक सुंदर-सा भवन है । वह उसे देखकर बड़ा प्रसन्न होता है। प्रसंग चलने पर उसकी बात करता, उसकी सुविधाओं के विषय में बतलाता है। किंत किन्हीं कारणों से उसका वह मकान बिक जाता है अथवा पराया हो जाता है। तब वह उसके लिए उदासीन हो जाता है। उसे देखकर किसी प्रकार का आनंद नहीं आता। उसकी टूट-फूट से न कोई कष्ट होता है और न ही चिंता।

इसी प्रकार बच्चों के उदाहरण से भी यह बात समझी जा सकती है। दूसरे के बच्चे कितने ही सुंदर, शिष्ट और शालीन क्यों न हो, लेकिन उनको देखकर वह आनंद नहीं आता जो आनंद और सुख अपने बच्चों को देखकर मिलता है, फिर अपने बच्चे चाहे असुंदर और शरारती क्यों न हों! यह अंतर इसलिए होता है कि अपने बच्चों के साथ आत्मभाव जुड़ा रहता है और दूसरे के बच्चों के साथ नहीं। आनंद का वास आत्मभाव में है, व्यक्ति अथवा वस्तु में नहीं।

इसी प्रकार और भी बहुत से उदाहरणों से इस तथ्य को समझा जा सकता है।मानिए एक स्त्री बड़ी सुंदर है। उसका पति उसे प्राणों की तरह प्यार करता है। जब भी देखता है आनंद से सराबोर हो जाता है, हृदय प्रसन्नता से खिल उठता है। सामान्यतः इसका अर्थ यही समझा जा सकता है कि, चूँकि स्त्री रूपवती है, उसका रूप पति को मोहित कर आनंद

देता रहता है। वह सब आकर्षण और आनंद-सौंदर्य के कारण ही है। किंतु वास्तविकता यह नहीं, वह दूसरी ही है। ऐसा दिन आ सकता है कि वह नारी धीरे-धीरे अपना स्वभाव बिगाड़ ले, धृष्ट और अनाचारी हो जाए। बात-बात पर लड़ाई-झगड़ा करने लग जाए तो सारा रूपरंग यथावत बना रहने पर भी अब उसे देखकर पति को वह आनंद नहीं आएगा, वह प्रसन्नता होनी खत्म हो जाएगी, जो पहले उसके संपर्क में होती थी।

सुख और आनंद की खोज में यही गलती तो होती है कि लोग उसे बाहर वस्तु में या व्यक्ति में खोजते हैं। वहाँ नहीं मिलता क्योंकि उसका निवास वहाँ होता ही नहीं। वह तो आत्मा में निवास करता है, जो किसी माध्यम का अवलंबन पाकर आत्मभाव के रूप में अनुभूत होता है। आध्यात्मिक मनीषियों ने इस तथ्य को भली प्रकार समझा था। अत: उन्होंने जीवन में स्थायी आनंद पाने के लिए आध्यात्मिकता का अवलंबन लेने का निर्देश किया। उनका कहना है कि समस्त जड़चेतनमय सृष्टि के प्रति आत्मीय भाव का विकास कर अणु-अणु को अपना, अपनी आत्मा का अंश समझना चाहिए। और हर वस्तु में आत्मभाव का समावेश हो जाने पर जिधर भी दृष्टि जाएगी, जिधर भी भावों का मोड़ हो जाएगा, सृष्टि में आनंद ही आनंद की तरंगें उठती अनुभव होने लगेंगी। इसी आत्मभाव का विकास कर देने पर ऋषिमुनि जो जंगलों में अभावपूर्ण जीवन पद्धति से रहने में विश्वास करते थे; सदा-सर्वदा आनंद में ओत-प्रोत रहा करते थे। जिस पशु-पक्षी, फूल-पत्ती पर उनकी दृष्टि पड़ती थी वहीं उन्हें आत्मीयता अनुभव होती थी, जिससे वे क्षण-क्षण पर आनंदित रहा करते थे। बल्कि यों कहना चाहिए कि आत्म-विस्तार के कारण वे हर समय आनंद का रसास्वादन किया करते थे।

Author: Pandit Sriram Sharma Acharya

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