लोभ से जीवन नष्ट होता है
निरन्तर कृपणता, कंजूसी और जमा करने के विचार जब मस्तिष्क में आते रहते हैं तो वे कुछ समय बाद आदत का रूप धारण कर लेते हैं । बहुत जमा करने और खर्च के समय अनावश्यक कंजूसी को लोभ कहा जा असर करती है, तो उसका स्वास्थ्य पर अनिष्टकर प्रभाव पड़ता है । रुपया-पैसा यथार्थ में एक भोग-वस्तु है । ज्ञानवान मनुष्य इसे हाथ का मैल बताते हैं । धन का वास्तविक काम उसको सदुपयोग में लाना है । जैसे पानी पीने की वस्तु है, उसके पीने या प्रयोग करने में ही आनन्द है । पानी को जो अनावश्यक मात्रा में जोड़-जोड़ कर जमा करता है, वह अयोग्य कार्य करता है । जमा किया हुआ पानी कुछ दिन बाद सड़ने लगेगा और चारों ओर दुर्गन्ध पैदा करेगा ।
शरीर और मन कास्वाभाविक धर्म है कि वह जिसे लेता है, उसे त्यागता भी है । मन में विचारों का आवागमन लगा रहता है । एक प्रकार के विचार आते हैं तो दूसरी प्रकार के जाते हैं । मन में विभिन्न प्रकार के विचार हर घड़ी उठते रहने का विधान परमात्मा ने बहुत सोच समझकर बनाया है, इससे बढ़ती हुई नदी के जल की तरह मस्तिष्क निर्मल होता रहता है, यदि एक ही प्रकार के विचार किए जायें और ये निम्न श्रेणी के हों तो मनुष्य भयंकर विपत्ति में पड़ सकता है । आकर्षण के विश्वव्यापी नियम के अनुसार उसी प्रकार के विचार उस आदमी के पास इतनी अधिक मात्रा में इकट्ठे हो जायेंगे कि वह डर जायगा और बीमार हो जायेगा या मर जायगा । लोभी मनुष्य निरन्तर धन का ही चिन्तन करता रहता है । उसे पैसा अधिक जोड़ने की ही चिन्ता बनी रहती है, इस प्रकार वह ‘हाथ के मैल’ को छुड़ाने की अपेक्षा उसे जमा करने का प्रकृति विरुद्ध प्रयत्न करता है । इसका असर गुप्त मन पर होता है । पाठक यह तो जानते ही होंगे कि शरीर की श्वाँस-प्रश्वास क्रिया, खून का दौरा, रसों का पचना, मल-मूत्र का परित्याग आदि दैनिक जीवन की क्रियायें सुप्त मन के द्वारा होती रहती हैं ।हमारा चेतन मन इन क्रियाओं में दखल नहीं देता, किन्तु सुप्त मन की स्थिति के अनुसार क्षण भर में बड़ा भारी परिवर्तन हो सकता है । मनोविज्ञान वेत्ताओं ने शरीर की क्रियाओं पर सुप्त मन का पूरा-पूरा अधिकार देखते हुए उस मन पर प्रभाव डालकर समस्त बीमारियों को दुर करने में सफलता प्राप्त की है । हमारे स्वभाव के दोष और अन्य बुरी आदतें भी इस प्रकार के मानसिक उपचार से सुधर सकती हैं ।
आध्यात्मिक पवित्रता का मार्ग
शारीरिक और मानसिक पवित्रता के साथ ही आध्यात्मिक पवित्रता भी आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना अत्मोंन्न्ति, जो की मनुष्य का प्रधान लक्ष्य है, सम्भव नहीं होती । आध्यात्मिक पवित्रता द्वारा ही मनुष्य में सच्चे प्रेम, भक्ति, दया, उदारता, परोपकार आदि की उत्पत्ति हो सकती है और देवत्व का विकास हो सकता है ।
यह सृष्टि त्रिगुणमयी है । सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीन गुणों से संसार के समस्त जड़-चेतन ओत-प्रोत हो रहे हैं । तमोगुण में आलस्य ( अशान्ति युक्त मूढ़ता ) रजोगुण में क्रियाशीलता ( चंचलता ) सतोगुण में शान्ति युक्त क्रिया ( पवित्रता और अनासक्त व्यवहार ) होता है ।
प्रायः तमोगुण और रजोगुण की ही लोगों में प्रधानता होती है । सतोगुण आजकल बहुत कम मात्रा में पाया जाता है । क्योंकि उच्च आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप ही सतोगुण का विकास होता है । सतोगुण की वृद्धि ही पवित्रता और कल्याण का हेतु है । सात्विकता जितनी बढ़ती जायगी उतना ही प्राणी अपने लक्षके निकट होता जायगा । इसके विपरीत रजोगुण की अधिकता से मनुष्य भोग और लोभ के कुचक्र में फँस जाता है और तमोगुणी तो तीव्र गति से पतन के गर्त में गिरने लगता है ।
तमोगुण प्रधान मनुष्य आलसी, अकर्मण्य, निराश और परमुखापेक्षी होता है । वह हर बात में दूसरों का सहारा टटोलता है । अपने ऊपर, अपनी शक्तियों के ऊपर उसे विश्वास नहीं होता । दूसरे लोग किसी कुपात्र को सहायता क्यों दें ? जब उसे किसी ओर से समुचित सहयोग नहीं मिलता तो खिन्न और क्रुद्ध हो कर दूसरों पर दोषारोपण करता है और लड़ता-झगड़ता है । लकवा मार जाने वाले रोगी की तरह उसकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं और जड़ता एवं मूढ़ता में मनोभूमि जकड़ जाती है । शरीर में स्थूल बल थोड़ा बहुत भले ही रहे पर प्राण-शक्ति, आत्मबल, शौर्य एवं तेज का नितान्त अभाव ही रहता है । ऐसे व्यक्ति बहुघा कायर, कुकर्मी, क्रूर, आलसी और अहंकारी होते हैं । उनके आचरण, विचार, आहार, कार्य और उद्देश्य सभी मलीन होते हैं ।
तमोगुण पशुता का चिन्ह है । चौरासी लाख योनियों में तमोगुण ही प्रधान रहता है । तमोगुणी संस्कार जिस मनुष्य के जीवन में प्रबल हैं उसे नर-पशु कहा जाता है । इस पशुता से जब जीव की कुछ प्रगति होती है, तब उसका रजोगुण बढ़ता है । तम की अपेक्षा उसके विचार और कार्यों में राजसिकता अधिक रहती है ।
रजोगुणी में उत्साह अधिक रहता है, फुर्ती, चतुराई, चालाकी,होशियारी, खुदगर्जी, दूसरों को उल्लू बनाकर अपना मतलब गाँठ लेने की योग्यता खूब होती है । ऐसे लोग बातून, प्रभावशाली, क्रियाशील, परिश्रमी, उद्योगी, साहसी, आशावादी और विलासी होते हैं । उनकी इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं । स्वादिष्ट भोजन, बढ़िया ठाठ – बाट, विषय वासना की इच्छा सदैव मन में लगी रहती है । कई बार तो वे भोग और परिश्रम में इतने निमग्न हो जाते हैं कि अपना स्वास्थ्य तक गैंवा बैठते हैं ।
यारबाशी, गप-शप, खेल-तमाशे, नृत्य-गायन, भोग-विलास, शान-शौकत, रौव-दाव, ऐश आराम, शाबासी वाहवाही, बड़प्पन और धन-दौलत में रजोगुणी लोगों का मन खुब लगता है । सत्य और शिव की और उनका ध्यान नहीं जाता, पर ‘सुन्दरम्’ को देखते ही लट्टू हो जाते हैं । ऐसे लोग बहिर्मुखी होते हैं, बाहर की बातें तो बहुत सोचते हैं पर अपनी आन्तरिक दुर्बलता पर विचार नहीं करते, अपनी बहुमूल्य योग्यताओं परिस्थितियों और शक्तियों को अनावश्यक रूप से हलकी,छछोरी और बेकार की बातों में बर्बाद करते रहते हैं ।
सतोगुण की वृद्धि जब किसी मनुष्य में होती है तो अन्तरात्मा में घर्म, कर्तव्य और पवित्रता की इच्छा उत्पन्न होती है । न्याय और अन्याय का,सत् और असत् का, कर्तव्य और अकर्तव्य का, ग्राह्य और त्याज्य काभेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है । तत्वज्ञान, घर्मविवेक, दूरदर्शिता, सरलता, नमता और सज्जनता से उसकी दृष्टि भरी रहती है । दूसरों के साथ करुणा, दया, मैत्री, उदारता, स्नेह, आत्मीयता और सद्भावना का व्यवहार करता है, कुच-कांचन की तुच्छता को समझकर वह तप, साधना, स्वाध्याय, सत्संग, सेवा, दान और प्रभु शरणागति की ओर अग्रसर होता है ।
सात्विकता की अभिवृद्धि होने से आत्मा में असाधारण शान्ति, सन्तोष, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं आनन्द रहता है । उसका प्रत्येक विचार और कार्य पुण्यमय होता है, जिससे निकटवर्ती लोगों को भी ज्ञात और अज्ञात रूप से बड़ी शान्ति एवं प्रेरणा प्राप्त होती है ।
तमोगुण सबसे निकृष्ट अवस्था है । रजोगुण उससे कुछ ऊँचा तो है, पर मनुष्यता से नीचा है । मनुष्य का वास्तविक परिघान सतोगुण है । मनुष्यता का निवास सात्विकता में है । आत्मा को तब तक शान्ति नहीं मिलती जब तक कि उसे सात्विकता की परिस्थिति प्राप्त न हो । जो मनुष्य जितना सतोगुणी है वह परमात्मा के उतना ही समीप है । इस दैवी तत्व को प्राप्त करके जीव घन्य होता है, क्योंकि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का एक मात्र साधन सतोगुण ही है । प्रत्येक पवित्र – जीवन के प्रेमी को अपनी सात्विकता की अभिवृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
वास्तव में सतोगुणी जीवन सब प्रकार की पवित्रता की जड़ है । इससे मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का प्रादुर्भाव होता है और वह हर तरह के मलिन आचरणों से दूर रहकर शुद्ध और पवित्र बन सकता है । सतोगुणी मनुष्य दैनिक रहन-सहन, खान-पान, आहार-विहार सब बातों में शुद्धता का विचार रखता है और इसके परिणाम स्वरूप उसके मन, वचन और कर्म में अशुचि भावनाओं का प्रवेश नहीं हो पाता । वह सब के लिए हितकारी विचार करता है, दूसरों को अच्छी लगने वाली बातें मुँह से निकालता है और दूसरों-सबकी भलाई के काम करता है । ऐसा व्यक्ति केवल आत्मिक और मानसिक पवित्रता का ही विचार नहीं रखता, वरन् उसके चारों और का वातावरण पवित्र रहता है, प्रत्येक वस्तु में शुद्धता का विचार रखा जाता है और कोई भी गन्दा काम नहीं किया जा सकता । जैसा हम अन्यत्र लिख चुके हैं कि शरीर का राजा मन है और मन पर आत्मा द्वारा शासन किया जा सकता है । इसलिए पवित्र जीवन का वास्तविक उद्गम स्थान आत्मा ही है । अगर हम आत्मा की शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रखेंगे तो हमारा शेष समस्त जीवन स्वयं ही पवित्रता की ओर प्रेरित होगा और आत्मा उसी अवस्था में जागृत और उच्च भाव सम्पन्न होती है, जब उसकी प्रवृत्ति सतोगुण की ओर हो । गीता में भी कहा है-
सर्व द्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवद्धं सत्त्वमित्युत ।।
अर्थात्-“जिस काल में देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और बोध शक्ति उत्पन्न होती है उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है ।” और भी कहा है –
सत्वात्संजायने ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमाद मोहौ तमसो भवतोऽज्ञान मेव च ।।
अर्थात्-सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निस्सन्देह लोभ उत्पन्न होता है तथा तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान की उत्पत्ति होती है ।
पवित्रता में ही जीवन की सार्थकता है
पवित्रता मानव-जीवन की सार्थकता के लिए अनिवार्य है । मनुष्य का विकास और उत्थान केवल ज्ञान अथवा भक्ति की बातों से ही नहीं हो सकता, उसे व्यावहारिक रूप से भी अपनी उच्चता और श्रेष्ठता का प्रमाण देना आवश्यक है और इसका प्रधान साधन पवित्रता ही है । जो व्यक्ति गन्दे वातावरण में रहता है अथवा गन्दे विचार प्रकट करता है, उसके पास जाने या ठहरने की किसी को रूचि ही नहीं होती व्यक्ति से सभी घृणा करते हैं और किसी अनिवार्य कारणवश उसके निकट जाना भी पड़े तो जल्दी से जल्दी वहाँ से हट जाना चाहते हैं ।
मनुष्य के लिए शरीर, मन, चरित्र, आचार-विचार आदि सब प्रकार की पवित्रता आवश्यक है । यदि शारीरिक पवित्रता का ध्यान रखा जायगा तो स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रह सकता और अस्वस्थ व्यक्ति कोई अच्छा काम नहीं कर सकता । इसी प्रकार मानसिक पवित्रता के बिना मनुष्य में सज्जनता, प्रेम, सद्व्यवहार के भाव उत्पन्न नहीं हो सकते और वह संसार में किसी की भलाई नहीं कर सकता । जिस व्यक्ति में चरित्र की पवित्रता नहीं है, वह कभी संसार में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता उसकी निन्दा और बुराई ही करेंगे । आचार-विचार की पवित्रता ने यद्यपि आजकल ढोंग का रूप धारण कर लिया है और इस कारण अनेक आधुनिक विचारों के व्यक्ति उसे अनावश्यक समझने लगे हैं, पर वास्तव में मनुष्य की अध्यात्मिक उन्नति का सम्बन्ध आचार-विचार की पवित्रता से है । खान-पान में शुद्धता और पवित्रता का ध्यान न रखने से केवल हमारा स्वास्थ्य ही खराब नहीं होता वरन् हमारा मानसिक संयम भी नष्ट हो जाता है और हमको चटोरपन की हानिकारक आदत लग जाती है । इसी प्रकार विचारों में शुद्धता का ख्याल न रखने से काम, क्रोध, लोभ आदि की हानिकारक भावनाएँ बढ़ती हैं ।
इसलिए यदि आप वास्तव में अपने कल्याण की अभिलाषा रखते हैं तो अपने भोजन, वस्त्र, निवास स्थान, देह, मन, आत्मा आदि सबकी स्वच्छता और पवित्रता का ध्यान रखना आवश्यक है । इन सबकी सम्मिलित पवित्रता से ही जीवन में उस निर्मलता और प्रकाश के भाव का विकास हो सकेगा जिसके द्वारा आप वास्तविक मनुष्य कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं । आपको केवल अपनी व्यक्तिगत स्वच्छता का ध्यान रखना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् आपके आस-पास भी कहीं गन्दगी, अस्वच्छता दिखलाई नहीं पड़नी चाहिए, क्योंकि मनुष्य सामाजिक जीव है और उसके जीवन का एक क्षण भी बिना दूसरों के सहयोग के व्यतीत नहीं हो सकता समस्त समाज में पवित्र-जीवन की भावना समाविष्ट हो जाय ।
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य