गायत्री मंत्र का इक्कीसवाँ अक्षर ‘प्र’ मनुष्य को उदारता और दूरदर्शिता के गुणों को प्राप्त करने की शिक्षा देता है ।
प्रकृतेस्तु भवोदारो जानुदारः कदाचन ।
चिन्तयोदार द्वष्ट्यैव तेन चित्तं विशुद्धयति ।।
अर्थात्- “अपने स्वभाव को उदार रखो, अनुदार मत बनो । दूरद्रष्टि से विचार करो। ऐसा करने से चित्त पवित्र होता है ।”
अपनी रुचि, इच्छा, मान्यता को ही दूसरे पर लादना, अपने गज से सबको नापना, अपनी ही बात को, अपने ही स्वार्थ को सदा ध्यान में रखना अनुदारता का चिन्ह है । अनुदारता पशुता का प्रतीक है । दूसरों के विचारों, तर्कों, स्वार्थों और उनकी परिस्थितियों को समझने के लिए उदारतापूर्वक प्रयत्न किया जाय तो अनेकों झगड़े सहज ही शान्त हो सकते हैं । उदारता में दूसरों को अपना बनाने का अद्भुत गुण है।
जितने अंशों में दूसरों से एकता हो, सर्व प्रथम उस एकता को प्रेम और सहयोग का माध्यम बनाया जाय । मतभेद के प्रश्नों को पीछे के लिए रखा जाय और मन की शान्त अवस्था में उनको धीरे-धीरे सुलझाया जाय । सामाजिकता का यही नियम है । जिद्दी, दुराग्रही, घमण्डी, संकीर्ण भावना वाले मनुष्य गुत्थियों को सुलझा कर दूसरों का सहयोग पाने से प्रायः वंचित रहते हैं ।
आज का, इसी समय का, तुरन्त का लाभ देखना और भविष्य के दूरवर्ती परिणामों पर विचार न करना अदूरदर्शिता है। उसी के चंगुल में फंश कर मनुष्य अपना स्वास्थ्य, यश, विवेक तथा स्थायी लाभ खो बैठता है। आज के क्षणिक लाभ पर भविष्य के चिरस्थाई लाभ को गँवा देने वाले मूर्ख मनुष्य ही बीमारी, अकाल मृत्यु, कंगाली, बदनामी, घृणा एवं अधोगति के भागी बनते हैं। किसान, विद्यार्थी, ब्रह्मचारी, व्यापारी, वैद्य, नेता, तपस्वी आदि सभी बुद्धिमान आज की थोड़ी असुविधाओं का ध्यान न करके भविष्य के महान लाभों का ध्यान रखते हैं और थोड़ा-सा त्याग करके बहुत लाभ प्राप्त करने की नीति को अपनाते है । भविष्य का ध्यान रखने वाला मनुष्य ही वर्तमान समय और साधनों का ठीक उपयोग कर सकता है । लक्ष्य को स्थिर करके उस तक पहुँचने का निरन्तर प्रयत्न करना ही सफलता का मार्ग है ।
उदारता एक महान गुण है
मनुष्य जीवन को सफल और उन्नत बनाने वाले अनेकों गुण होते हैं—जैसे सचाई, न्यायप्रियता, धैर्य, दृढ़ता, साहस, दया, क्षमा, परोपकार आदि । इनमें से कुछ गुण तो ऐसे होते हैं जिनसे वह व्यक्ति स्वयं ही लाभ उठाता है और कुछ ऐसे भी होते हैं जिनके द्वारा अन्य लोगों का उपकार भी होता है और अपनी भी आत्मोन्नति होती है । उदारता एक ऐसा ही महान गुण है।
मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाली यदि कोई वस्तु है, तो वह उदारता है । उदारता प्रेम का परिष्कृत रूप है । प्रेम में कभी-कभी स्वार्थ भावना छिपी रहती है । कामातुर मनुष्य अपनी प्रेयसी से प्रेम करता है, पर जब उसकी प्रेम-वासना की तृप्ति हो जाती है, तो वह उसे भुला देता है । जिस स्त्री से कामी पुरुष अपने यौवन-काल और आरोग्य अवस्था में प्रेम करता है, उसी को वृद्धावस्था में अथवा रुग्णावस्था में तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगता है । पिता का पुत्र के प्रति प्रेम, मित्र का मित्र के प्रति प्रेम तथा देश भक्त का अपने देशवासियों के प्रति प्रेम में स्वार्थ भाव भी रहता है । जब पिता का पुत्र से, भाई का भाई से, मित्र का मित्र से, देश भक्त का देशवासियों से किसी प्रकार का स्वार्थ भाव नहीं होता, तो वे अपने प्रिय जनों से उदासीन हो जाते हैं, पर जिस प्रेम का आधार उदारता होती है, वह इस प्रकार नष्ट नहीं होता । उदार मनुष्य दूसरे से प्रेम अपने स्वार्थ- साधन हेतु नहीं करता, वरन् उनके कल्याण और अपने स्वभाव के कारण करता है । इससे उदारतायुक्त प्रेम सेवा का रूप धारण कर लेता है । इस प्रकार का प्रेम दैवी रूप में प्रकाशित होता है ।
उदार मनुष्य दूसरे के दुःख से दुःखी होता है । उसे अपने सुख-दुःख की उतनी चिन्ता नहीं रहती, जितनी दूसरे के सुख-दुःख की रहती है । भगवान बुद्ध अपने दुःख की निवृत्ति के हेतु संसार को त्याग जंगल में नहीं गये थे, वरन् संसार के सभी प्राणियों को दुःखों से मुक्त करने के विचार से राज-प्रासाद त्याग कर वनवासी बने थे । ऐसे व्यक्ति ही नर- श्रेष्ठ कहे जाते हैं ।
उदारता से मनुष्य की मानसिक शक्तियों का अद्भुत विकास होता है । जो व्यक्ति अपने कमाये धन का जितना अधिक दान करता है, वह अपने अन्दर और धन कमा सकने का उतना ही अधिक आत्म-विश्वास उत्पन्न कर लेता है। सच्चे उदार व्यक्ति को अपनी उदारता के लिए कभी अफसोस नहीं करना पड़ता । उदार व्यक्ति की आत्म-भर्त्सना नहीं होती । सेवा – भाव से किया गया कोई भी कार्य मानसिक दृढ़ता ले आता है । इसके कारण सभी प्रकार के वितर्क मन में उथल-पुथल पैदा न करके शान्त हो जाते हैं। अनुदार व्यक्ति अनेक प्रकार का आगा-पीछा सोचता है, उदार व्यक्ति इस प्रकार की बात नहीं सोचता । भलाई का परिणाम भला ही होता है, चाहे वह किसी व्यक्ति के प्रति क्यों न की जाय ? इससे एक ओर भले विचारों का संचार उदारता के पात्र के मन में होता है और दूसरी ओर अपने विचार भी भले बनते हैं ।
प्रकृति का यह अटल नियम है कि कोई भी त्याग व्यर्थ नहीं जाता । जानबूझकर किया गया त्याग सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अपने ही मन में संचित हो जाता है, वह शक्ति एक प्रामेसरी नोट के समान है, जिसे कभी भी भुनाया जा सकता है । सभी लोगों को भविष्य का सदा भय लगा रहता है, वे इस चिन्ता में डूबे रहते हैं कि जब वे कुछ काम न कर सकेंगे तो अपने बाल बच्चों को क्या खिलायेंगे अथवा अपनी आजीविका किस प्रकार चलायेंगे ? कितने ही लोगों को अपनी शान बनाये रखने की चिन्ताएँ सताती रहती हैं। पर उदार व्यक्ति को इस प्रकार की कोई भी चिन्ता नहीं सताती । जब वह गरीब भी रहता है, तब भी सुखी रहता है । उसे भावी कष्टों का भय रहता ही नहीं । संसार के अनुदार व्यक्ति जितने काल्पनिक दुःखों से दुःखी रहते हैं, उतने वास्तविक दुःखों से दुःखी नहीं होते। उदार पुरुष के मन में वे सब अशुभ विचार नही आते, जो सामान्य लोगों को सदा पीड़ित किया करते हैं ।
यदि कोई मनुष्य अपने आप गरीबी का अनुभव करता है, तो इसकी चिन्ता से मुक्त होने का उपाय धन संचय करना समझा जाता है । धन संचय के प्रयत्न से धन का संचय तो हो जाता है, पर मनुष्य धन की चिन्ता से मुक्त नहीं होता । वह धनवान होकर भी निर्धन बना रहता है । जब घन संचित हो जाता है तो उसके मन में अनेक प्रकार के अकारण भय होने लगते हैं । उसे भय हो जाता है कि कहीं उसके सम्बन्धी मित्र, पड़ौसी आदि ही उसके धन को हड़प न लें और उसके बाल-बच्चे उसके मरने के बाद भूखों न मरें । वह अपने अनेक कल्पित शत्रु उत्पन्न कर लेता है, जिनसे रक्षा के वह अनेक प्रकार से उपाय सोचता रहता है । धन संचय में अधिक लगन हो जाने पर उसके स्वास्थ्य का विनाश हो जाता है। उसकी सन्तान की शिक्षा भली प्रकार से नहीं होती और वह निकम्मी और चरित्रहीन हो जाती है । इस प्रकार उसका धन संचय का प्रयास एक ओर तो उसकी मृत्यु को समीप बुला लेता है और दूसरी ओर धन के विनाश के कारण भी उपस्थित कर देता है। अतएव धन संचय का प्रयत्न अन्त सफल न होकर विफल ही होता है ।
गरीब व्यक्ति भी उदार हो सकते हैं
जो व्यक्ति गरीबी का अनुभव करता है, उसके लिए अपनी गरीबी की मानसिक स्थिति के विनाश का उपाय अपने से अधिक गरीब लोगों की दशा पर चिन्तन करना और उनके प्रति करुणा भाव का अभ्यास करना ही है । अपने से अधिक गरीब लोगों की धन के द्वारा सेवा करने से अपनी गरीबी का भाव नष्ट हो जाता है। फिर मनुष्य अपने अभाव को न कोसकर अपने आपको भाग्यवान मानने लगता है। उसकी भविष्य की व्यर्थ चिन्ताएँ नष्ट हो जाती है। उसमें आत्म-विश्वास बढ़ जाता है । इस आत्म-विश्वास के कारण उसकी मानसिक शक्ति भी बढ़ जाती है । मनुष्य के संकल्प की सफलता उसकी मानसिक शक्ति के ऊपर निर्भर करती है । अतएव जो व्यक्ति उदार विचार रखता है, उसके संकल्प सफल होते हैं । उसका मन प्रसन्न रहता है । वह सभी प्रकार की परिस्थितियों में शान्त रहता है। उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और वह जिस काम को हाथ में लेता है, उसको पूरा करने में समर्थ होता है । उसकी अकारण मृत्यु भी नहीं होती । दीर्घ जीवी होने के कारण उसकी सन्तान दूसरों की आश्रित नहीं बनती ।
जिस व्यक्ति के विचार उदार होते हैं और जो सदा अपने आपको दूसरों की सेवा में लगाये रहता है, उसके आस-पास के लोगों के विचार भी उदार हो जाते हैं। स्वार्थी मनुष्य की संतान निकम्मी ही नहीं वरन् क्रूर भी होती है । ऐसी सन्तान माता-पिता को ही कष्ट देती है । इसके प्रतिकूल उदार मनुष्य की सन्तान सदा माता-पिता को प्रसन्न रखने के काम करती है । जब उदारता के विचार मनुष्य के स्वभाव बन जाते हैं अर्थात् वे उसके चेतन मन को ही नहीं वरन् अचेतन मन को भी प्रभावित कर देते हैं, तो वे अपना प्रभाव छोटे बच्चों और दूसरे सम्बन्धियों पर भी डालते हैं । इस प्रकार हम अपने आस-पास उदारता का वातावरण बना लेते हैं और इससे हमारे मन में अद्भुत मानसिक शक्ति का विकास होता है ।
विद्या के विषय में कहा जाता है कि वह जितनी ही अधिक दूसरों जाती है, उतनी ही अधिक बढ़ती है । देने से किसी वस्तु का बढ़ना- यह विद्या के विषय में ही सत्य है । युधिष्ठिर महाराज ने राजसूय यज्ञ में विदाई और दान का भार दुर्योधन को दिया था और कृष्ण ने स्वयं लोगों के स्वागत का भार लिया था । कहा जाता है कि दुर्योधन को यह कार्य इसलिए सौंपा गया था जिससे कि वह मनमाना धन सभी को दे, पर जितना धन वह विदाई से दूसरों को देता था, उससे चौगुना धन तुरन्त युधिष्ठिर के खजाने में आ जाता था । श्रीकृष्ण सभी अतिथियों का स्वागत करते समय उनके चरण पखारते थे । इसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपना सम्मान खोया नहीं वरन् और भी बढ़ा लिया । जब राजसभा हुई तो एक शिशुपाल को छोड़ सभी राजाओं ने श्रीकृष्ण को ही सर्वोच्च आसन के लिए प्रस्तावित किया । जो अपने मन को जितना दूसरों के हित में लगाता है, वह उसे उतना ही अधिक पाता है और जो अपने मान-अपमान की परवाह नहीं करता, वही संसार में सबसे अधिक सम्मानित होता है ।
स्वार्थ भाव मन में क्षोभ उत्पन्न करता और उदारता का भाव शील उत्पन्न करता है। यदि हम अपने जीवन की सफलता को आन्तरिक मानसिक अनुभूतियों से मापें तो हम उदार व्यक्ति के जीवन को ही सफल पायेंगे । मनुष्य की स्थायी सम्पत्ति धन, रूप अथवा यश नहीं है, ये सभी नश्वर हैं । उसकी स्थायी संपत्ति उसके विचार ही हैं । जिस व्यक्ति के मन में जितने अधिक शान्ति, सन्तोष और साम्यवाद लाने वाले विचार आते हैं वह उतना ही अधिक धनी है। उदार विचार मनुष्य की वह सम्पत्ति हैं, जो उसके लिए आपत्ति काल में सहायक होती है । अपने उदार विचारों के कारण उसके लिए आपत्तिकाल आपत्ति के रूप ही नहीं, वह सभी परिस्थितियों को अपने अनुकूल देखने लगता है ।
उदार मनुष्य के मन में भले विचार अपने आप ही उत्पन्न होते हैं । इन भले विचारों के कारण सभी प्रकार की निराशायें नष्ट हो जाती है और उदार मनुष्य सदा उत्साहपूर्ण रहता है। उदार मनुष्य आशावादी होता है । निराशावाद और अनुदारता का जिस प्रकार सहयोग है, उसी प्रकार उदारता का सहयोग आशावाद और उत्साह से है । जब मनुष्य अपने आप में किसी प्रकार की निराशा की वृद्धि होता देखे तो उसे समझना चाहिए कि कहीं न कहीं उसके विचारों में उदारता की कमी हो गई है, अतएव इसके प्रतिकार स्वरूप उसे उदार विचारों का अभ्यास करना चाहिए । अपने समीप रहने वाले व्यक्तियों से ही इसका प्रारम्भ करे तो वह देखेगा कि थोड़े ही काल में उसके आस-पास दूसरे ही प्रकार का वातावरण उत्पन्न हो गया है। उसके मन में फिर आशावादी विचार आने लगेगे । जैसे-जैसे उसकी उदारता का अभ्यास बढ़ेगा, उसका उत्साह भी उसी प्रकार बढ़ता जायगा । इससे यह प्रमाणित होता है कि मनुष्य उदारता से कुछ खोता नहीं, कुछ न कुछ प्राप्त ही करता है ।
कितने ही लोग कहा करते हैं कि दूसरे लोग हमारी उदारता से लाभ उठाते हैं । वास्तव में वह उदारता, उदारता ही नहीं जिसके पीछे पश्चात्ताप करना पड़े। स्वार्थवश दिखाई गई उदारता के पीछे ही इस प्रकार का पश्चात्ताप होता है । सच्चे हृदय से दिखाई गई उदारता कभी भी पश्चात्ताप का कारण नहीं होती, उसका परिणाम सदा भला ही होता है । यदि कोई व्यक्ति हमारे उदार स्वभाव से लाभ उठाकर हमें ठगता है तो इससे हमारी नहीं उस ठगने वाले की हानि है ।
दूसरों के दोष मत ढूँढ़िए
उदारता केवल रुपये पैसे द्वारा किसी की सहायता करने को ही नहीं कहते वरन् दूसरों के साथ ऐसा सदव्यवहार करना, जिससे उनका आन्तरिक मन संतुष्ट और सुखी हो, एक बड़ी सराहनीय प्रवृत्ति है । संसार में दोषों की कमी नहीं है और अधिकांश मनुष्यों में गुणों की अपेक्षा दोषों की संख्या ही अधिक देखने में आती है। यदि आप उदार प्रकृति के हैं और ऐसे लोगों के दोषों पर पर्दा डाल कर उनके गुणों को ही प्रोत्साहन देते हैं तो बहुत सम्भव है कि इससे उनका मानसिक सुधार हो जाय और उसके लिए वे सदैव कृतज्ञ रहें ।
दूसरों के दोष देखने की आदत बुरी है । दोष देखने की आदत पड़ जाने से सामने वाले व्यक्ति के दोष ही दोष दीखते हैं, उसमें अच्छे गुण भी हों पर वे तिल का ताड़ बनाने की इस बुरी आदत के कारण वैसे नहीं दीखते जैसे कि तिनके की आड़ में पहाड़ छुप जाता है । दूसरों के दोष देखना, छिद्रान्वेषण करना महान मानस रोग है । इससे मुक्त होना चाहिए ।
भगवती पार्वती के दो पुत्र थे । एक के छः मुख और बारह आँखें थीं और दूसरे के हाथी जैसी लम्बी नाक थी । पहिला दूसरे की नाक हाथ से नापने लगता और दूसरा पहिले की आँखें गिनने लगता । एक, दो तीन, चार, दस, ग्यारह बारह बस फिर लड़ाई ठन जाती और वे आपस में खूब लड़ने लगते । माता पार्वती इनकी लड़ाई से परेशान हो गईं । बरजतीं, पर वे न मानते । एक दिन उन्हें पकड़ कर शंकर जी के पास ले गईं और बोलीं कि महाराज ! ये लड़के दिन भर लड़ते रहते हैं । इन्हें किसी तरह समझा दीजिए । ज्ञान-निधान शंकर जी उनके लड़ने का कारण समझ गये और उन्होंने उन्हें बड़े प्रेम से पास बैठाकर दूसरों के ऐब देखने की बुराई समझा दी । लड़कों ने लड़ना बन्द कर दिया ।
इसलिए किसी ने कहा है-
अगर है मन्जूर तुझको बेहतरी,
न देख ऐब दूसरों का तू कभी !
कि बद ( दोष ) बीनी आदत है शैतान की,
इसी में बुराई की जड़ है छिपी ॥
महात्मा सूरदास का बहुत सुन्दर भजन है हमारे अवगुण चित न घरौ …… । इत्यादि । भगवान से की गई यह प्रार्थना हृदय को चुम्बक जैसे पकड़ लेती है । भगवान हमारे अपराधों को क्षमा करें, हमारे दोषों को न देखें, यह भाव हृदय में आते ही विचार आता है कि अपने अपराधों को क्षमा कराने वालों को दूसरों के अपराधों को स्वयं भी तो क्षमा करना चाहिए । हम जब स्वयं क्षमाशील होंगे तभी हमारे अपराध भी क्षमा हो सकेंगे । दूसरों के दोष देखना भगवान के प्रति कृतघ्न होना है । हम शिकायत करते रहते हैं कि हमारा अमुक संबंधी ऐसा है, वैसा है। हम अपने उस सम्बन्धी के उन विशेष गुणों का ख्याल ही नहीं करते जो अन्य लोगों में नहीं हैं, हम बहुधा यह भूल जाते हैं कि हमें जो सम्बन्धी मिला है वह दूसरों के सम्बन्धियों की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत अच्छा है और व्यर्थ में ही हम अपने उस सम्बन्धी के कारण अपने भाग्य को कोसते हैं । इसके अतिरिक्त हम इसलिए भी कृतघ्न हैं कि हम अपने सम्बन्धी की की हुई सेवाओं की सराहना नहीं करते । कृतज्ञता का सबक हमें भगवान राम से सीखना चाहिए । महर्षि वाल्मीकि राम के लिए कहते हैं-
न स्मरत्युपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया ।
कथचिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति ।।
वे कौशल्यानन्दन ऐसे हैं कि किसी के द्वारा अपने प्रति किए गए सैकड़ों अपराधों का भी स्मरण नहीं करते किन्तु यदि कोई किसी भी प्रकार उनका कैसा भी उपकार कर दे तो उससे ही उन्हें संतोष हो जाता है । महाकवि राम के इसी गुण के कारण उन्हें बार-बार ‘अनुसूय’ कह कर स्मरण किया है । ‘अनुसूय’ अर्थात असूया-दोष रहित । किसी के गुणों में दोष देखना अथवा किसी के गुणों से जलना ही असूया है । भगवान राम न तो किसी के गुणों में दोष देखते थे और न किसी के गुणों से जलते थे । राम भक्त को ऐसा ही होना चाहिए । पर – दोष- दर्शन के दोष मुक्ति पाने कि लिए हमें पर गुण – चिन्तन की आदत डालनी चाहिए और प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिए ।
संकीर्णता मनोमालिन्य की उत्पादक है
संकीर्णता मानव स्वभाव का बड़ा दोष है । मनुष्य एक सामाजिक जीव है और उसका जीवन तभी सफल माना जा सकता है जब वह दूसरे लोगों को अपना सहयोग और सहायता प्रदान करे, पर जो लोग स्वभाव की संकीर्णता के कारण यह विचार करते हैं कि हम उन्हीं लोगों की सहायता करें जिनसे हमको सहायता मिलती चुकी है या भविष्य में मिलने की आशा है, तो उनसे भलाई की बहुत ही कम सम्भावना रखनी चाहिए । ऐसी सौदा करने की मनोवृत्ति कभी प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती और उससे किसी का विशेष लाभ नहीं हो सकता ।
संकीर्ण स्वभाव वाले व्यक्ति प्रायः किसी की प्रशंसा करना या किया जाना भी सहन नहीं करते । वे सदैव अपने लाभ पर दृष्टि रखते हैं और दूसरों को जहाँ तक हो सके सहायता न देना उनका स्वभाव होता है। इतना ही नहीं वे प्रायः दूसरों के दोष भी तलाश किया करते हैं और उनकी आवश्यकता से अधिक कटु आलोचना करते हैं, जिससे वह व्यक्ति दूसरों की निगाहों से गिर जाय ।
दूसरों के दोष देखना कठिन बात नहीं है । सहज ही, छोटी-मोटी भूलों को पकड़ कर किसी की भी आलोचना की जा सकती है। तिल का ताड़ बनाया जा सकता है । शब्दों की भी आवश्यकता नहीं । केवल भू- भंगियों द्वारा नाक सिकोड़ कर अथवा मुँह बिचकाकर आप किसी भी व्यक्ति की आलोचना कर सकते हैं तथा उसकी भूलों को प्रकाश में ला सकते हैं, किन्तु आलोचना करने या गलती पकड़ने से क्या वह व्यक्ति आपसे सहमत हो सकता है ? ‘तुम बहुत फूहड़ हो, कितनी गन्दी पड़ी है आलमारी और फाइलों का यह हाल है ? वास्तव तुम क्लेरकी के योग्य नहीं हो ।’ यह हैं कुछ नपे-तुले शब्द जो एक अधिकारी अपने क्लर्क अथवा सेक्रेटरी से कहता है । यह वाक्य किसी भाँति एक छुरी से कम नहीं हैं । सीधे-सीधे श्रोता के आत्माभिमान पर चोट करता है । उसके अहं भाव निर्णय – बुद्धि तथा चतुरता पर प्रहार करता है। क्या इससे वह अपना मस्तिष्क बदल देगा ? कदापि नहीं प्लेटो और कान्ट के महान तर्क शास्त्र का आश्रय लेकर भी उससे बहस की जाय, तो भी व्यर्थ होगा क्योंकि आलोचना के इस वाक्य ने उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई है ।
दूसरों के दोष देखना और आलोचना करना एक घार वाली तलवार है, जो आलोचक एवं आलोच्य दोनों पर चोट करती है । शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करने का इससे सरल मार्ग और कौन-सा हो सकता है ? एक विद्वान का अनुभव है कि “मैं जब तक अपनी पत्नी के दोष ही देखता रहा, तब तक मेरा गृहस्थ जीवन कदापि शान्तिमय नहीं रहा ।” इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर सामने वाले व्यक्ति के दोष ही नजर पड़ते हैं, गुण नहीं । गुण यदि उसमें हों भी तो इस भाँति छिप जाते हैं जैसे तिनके की ओट पहाड़ छिप जाता है । पाश्चात्य सुप्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार पर छिद्रान्वेषण करना महामानव रोग है । इससे मुक्त हो जाना चाहिए । मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था कि ‘दूसरों के दोष देखना – भगवान के प्रति कृतघ्न होना है ।”
दीपक लेकर ढूँढ़ने पर भी सम्भवतः कोई भी व्यक्ति ऐसा प्राप्त नहीं हो सकता जो सर्वांगपूर्ण हो, जिसमें कोई कमी न हो । ऐसा व्यक्ति अभी तक उत्पन्न ही नहीं हुआ वह तो भविष्य में कभी होना है । तब तक किसी को गलत बताना, काट-छाँट करना कहाँ तक उचित है ? डाक्टर जौन्सन कहा करते थे “श्रीमान ! स्वयं परमात्मा भी, आदमी के अन्तिम दिन के पूर्व उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं देता। फिर हम और आप ही किसी को गलत केसे कह दें ?” हमारे हृदय में भी वही भाव होने चाहिए कि अपने परिचितों, प्रियजनों, मित्रों तथा अन्य लोगों की नग्नता और बुराइयों को व्यर्थ में ही न देखते फिरें । गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में हमारा स्वभाव कपास के समान निर्मल होना चाहिए –
साधु चरित शुभ सरिस कपासू ।
सरस विसद गुनमय फल जासू ।।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।
बन्दनीय जेहि जग जसु पावा ||
स्वयं कष्ट सहन कर ले किन्तु दूसरों के दोष छिपावे यह सज्जनों का गुण माना गया है । मुस्लिम धर्म ग्रन्थ की एक कथा है कि हजरत नूह एक दिन शराब पीकर उन्मत्त हो गये । उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये और अन्ततः वे नगे हो गये। उनके पुत्र शाम और जैपेथ उल्टै पैरों उन तक गये और उन्हें एक कपड़े से ढँक दिया। उन्होंने अपने प्रिय पिता का नंगापन नहीं देखा। हमारे हृदय में भी यही भाव होना चाहिए कि अपने प्रियजनों की नग्नता अर्थात् उनकी बुराईयाँ व्यर्थ में ही न देखते फिरा करें ।
कष्ट सह कर भी दूसरों के दोष छिपाने और उनकी आलोचना न करने का महत्व बहुत पहले ही जान लिया गया था । ईसा मसीह से भी २२०० वर्ष पूर्व मिश्र के प्राचीन राजा अख्तुई ने कहा था- ‘दूसरों की भूल मत पकड़ और यदि नजर पड़ ही जाय तो कह मत ।’ क्राइस्ट ने भी यही कहा था कि ‘यदि तू चाहता है कि तेरे दोषों पर विचार न किया जाय, तो तू भी दूसरों के दोषों पर विचार न कर ।’
अधिकतर व्यक्ति शिकायत करते हैं कि अमुक मित्र ऐसा है, अमुक संबंधी ऐसा है, उनकी यह कमी है आदि आदि । पर उस व्यक्ति के उन गुणों पर विचार ही नहीं करते जो कि अन्य व्यक्तियों में उपलब्ध नहीं हैं और जिनके कारण वह उन अनेक उलझनों से बचा हुआ है, जिनमें अन्य व्यक्ति परेशान हैं- पर दोष-दर्शन के पाप से मुक्ति पाने के लिए, गुण-चिन्तन का अभ्यास डालना चाहिए । प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिए । चीनी कवि यू – उन चान की कविता की कुछ पंक्तियों का अनुवाद हमारे इस कथन का समर्थक हैं-
‘हे प्रभु ! मुझे शत्रु नहीं-मित्र चाहिए
तदर्थ मुझे कुछ ऐसी शक्ति दे ।
कि मैं किसी की आलोचना न करूँ-गुणा गान करूँ ।”
बैंजामिन फ्रेंकलिन अपनी युवावस्था में बहुत नटखट थे। दूसरों की आलोचना करना, खिल्ली उड़ाना उनकी आदत बन चुकी थी । क्या पादरी, क्या राजनीतिज्ञ सभी उनके माने हुए शत्रु बन चुके थे। बाद में इस व्यक्ति ने अपनी भूल सँभाली और अन्त में जब वह उन्नति करते-करते अमेरिकन राजदूत होकर फ्रांस में भेजे गये तो उनसे पूछा – ‘आपने अपने शत्रुओं की संख्या कम करके मित्र कहाँ से बना लिए ?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘अब मैं किसी की आलोचना नहीं करता और न किसी के दोष उभार कर रखता हूँ। हाँ- अलवत्ता – किसी का गुण मेरी दृष्टि में आ जाता है तो उसे अवश्य प्रकट कर देता हूँ । यही मेरी सफलता का रहस्य है ।”
लेखक: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य