प्रायः प्रत्येक शिवालय में प्रतीकों का एक सुनिश्चित-सा क्रम रहता है। मंदिर में सर्वप्रथम नंदी के दर्शन होते हैं। नंदी महादेव का वाहन है, जो सामान्य बैल नहीं है। यह ब्रह्मचर्य का प्रतीक है। शिव का वाहन जैसे नंदी है, वैसे ही हमारी आत्मा का वाहन शरीर है। अत: शिव को आत्मा का एवं नंदी को शरीर का प्रतीक समझा जा सकता है। जैसे नंदी की दृष्टि सदा शिव की ओर ही है, उसी प्रकार हमारा शरीर भी आत्माभिमुख बने, शरीर का लक्ष्य आत्मा बने: यह संकेत इस प्रतीक में निहित है। शरीर नंदी की तरह आत्माभिमुख बने, शिवभाव से ओत-प्रोत बने; इसके लिए शिव-आराधक तप एवं ब्रह्मचर्य की साधना करें; अपने आत्मोन्मुखी व्रतों पर स्थिर एवं दृढ़ रहें, यही महत्त्वपूर्ण शिक्षा नंदी के माध्यम से दी गई है।
नंदी के बाद शिव की ओर बढ़ने में कछुआ आता है। नंदी जहाँ हमारे स्थूलशरीर के लिए प्रेरक मार्गदर्शक है, वहीं कछुआ सूक्ष्मशरीर अर्थात मन का मार्गदर्शन करता है। हमारा मन भी कछुए जैसा कवचधारी सुदृढ बनना चाहिए। जैसे कच्छप शिव की और गतिशील है, वैसे ही हमारा मन भी शिवमय बने, सबके कल्याण का ही चिंतन करे; आत्मा के श्रेय हेतु प्रयत्नशील रहे एवं संयमी तथा स्थितप्रज्ञ रहे अर्थात मन की गति, विचारों का प्रवाह, इंद्रियों के कार्य शिवभावयुक्त आत्मा के लिए ही हुआ करें; यही शिक्षा देने के लिए कच्छप को शिव की ओर सरकता बताया गया है। कच्छप कभी नंदी की ओर नहीं जाता, शिव की ओर ही जाता है। हमारा मन भी देहाभिमुख नहीं, आत्माभिमुख ही बना रहे भौतिक नहीं, आध्यात्मिक ही बना रहे, शिव-तत्त्व का ही चिंतन करता रहे; यही मर्म इस प्रतीक में निहित है।
शिवालय के द्वार पर द्वारपाल के रूप में प्रायः गणेश और हनुमान जी की उपस्थिति रहती है। यदि इनकी स्थूल प्रतिमा न भी हो, तो भी शिवपुत्र के रूप में गणेश जी एवं रुद्रावतार के रूप में हनुमान जी की सूक्ष्म उपस्थिति को अनुभव किया जा सकता है। इनकी विशेषताओं को हृदयंगम करना एवं इनकी कसौटियों पर खरा उतरना भी शिव-दर्शन एवं आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अगला सोपान है। नंदी एवं कच्छप, दोनों जब शिव की ओर बढ़ रहे हैं अर्थात शारीरिक कर्म एवं मानसिक चिंतन दोनों जब आत्मा की ओर बढ़ रहे हैं; तब इन दोनों की शिवरूप आत्मा को पाने की योग्यता है या नहीं, गणेश और हनुमान की उपस्थिति को इस कसौटी के रूप में हृदयंगम किया जा सकता है। जीवन में यदि गणेश एवं हनुमान के दिव्य आदर्श नहीं आ पाए तो फिर शिव के दर्शन या कल्याणमय आत्मा का साक्षात्कार – भला कैसे हो सकेगा !
शिवालय में जो शिवलिंग है, उसे आत्मलिंग, ब्रह्मलिंग कहते हैं। यहाँ विश्व-कल्याण निमग्न ब्रह्माकार, विश्वाकार परम आत्मा ही स्थित है। हिमालय-सा शुभ्र, शांत, प्रचंड तपस्वी एवं श्मशान-सा सुनसान, वैराग्य ज्ञानसंपन्न शिवरूप आत्मा ही भयंकर शत्रुओं के बीच निर्द्वद्व-निर्भय रह है सकता है। कालरूप सर्प को गले लगा सकता है। * मृत्यु को भी मित्र बना सकता है। कालातीत महाकाल कहला सकता है। भगवान शिव द्वारा धारण किए जाने वाले कपाल, कमंडलु आदि पदार्थ संतोषी, तपस्वी, अपरिग्रही साधनामय जीवन के प्रतीक हैं। ॥ भस्म-चिताभस्मालेप, ज्ञान-वैराग्य और विनाशशील विश्व में अविनाशी के वरण के मर्म को इंगित करते ई हैं। डमरू-निनाद आत्मानंद-निजानंद की आनंदानुभूति है का प्रतीक है। त्रिदल बिल्वपत्र, तीन नेत्र, त्रिपुंड, त्रिशूल आदि है सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण-इन तीनों को सम करने का संकेत देते हैं; त्रिकाय, त्रिलोक और त्रिकाल से से परे होने का निर्देश देते हैं। तृतीय नेत्र जाग्रत आज्ञाचक्र का प्रतीक-प्रतिनिधि है, जो विवेक-बुद्धि, भविष्यदर्शन, है अतींद्रिय शक्ति एवं कामदहन जैसी क्षमताओं का केंद्र है। शिव के रुद्र तो भीतरी आवेश-आवेग ही हैं। इनको शम करना, यही तो शंकर का काम है। भृकुटी में तृतीय नेत्रधारी शिवरूप सद्गुरु पर ध्यान केंद्रित कर साधक इसी प्रयोजन को सिद्ध करता है।
शिवलिंग यदि शिवमय आत्मा है तो उनके साथ, छाया की तरह अवस्थित माँ पार्वती उस आत्मा की । शक्ति हैं। इसमें संकेत-आशय यह है कि ऐसी कल्याणकारी, शिवमयी आत्मा की आत्मशक्ति भी छाया की तरह उनका अनुसरण करती है, प्रेरणासहयोगिनी बनती है। शिवलिंग पर अविरल टपकने वाली जलधारा, जटा में स्थित गंगा का प्रतीक है। यही ज्ञानगंगा है। यह ऋतंभरा-प्रज्ञा-दिव्य बुद्धि, गायत्री अथवा त्रिकाल संध्या है, जिसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी उपासते हैं।
शिवालय के महाकाल मंदिर के इन प्रतीक, चिह्नों के तत्त्व-रहस्यों का चिंतन-मनन कर एवं ऐसी भावना से ओत-प्रोत होकर ही शिवशक्ति की पूजा, आराधना एवं दर्शन की सार्थकता को सिद्ध किया जा सकता है। महाशिवरात्रि का परम पावन दिवस तो महादेव की साधना एवं सिद्धि का दिव्य अवसर है। यदि शिवाराधक इन भावनाओं के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए व्रतशील हो जाएँ तो शिव पर अविरत टपकने वाली जलधारा की तरह युगाधिपति महाकाल की दैवी कृपारूपी अमृतधारा सहज ही साधक पर अविरल बरसती रहेगी। सच्चे अर्थों में शिवसाधक बनने के लिए जन-जन के दुःख-दरद को मिटाने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
युग निर्माण योजना, फरवरी २०२०