नवरात्रि के नौ दिनों में सम्पूर्ण देश मातृमय हो रहा है। हम सभी देशवासियों का मन अपने मूल में उतरने की कोशिश में है। मनुष्य अपने जन्म और जीवन के आदि को यदि सही ढंग से पहचान सके, उससे जुड़ सके तो उसके सारे पाप-ताप अनायास ही शान्त हो जाते हैं। युगशक्ति जगन्माता गायत्री और उसके काली, दुर्गा, तारा आदि विविध रूपों की उपासना का रहस्य यही है। श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास रूपिणी माँ को सभी भूतों-प्राणियों, चर-अचर सभी में अनुभव कर मन अनायास पवित्रता से भर जाता है। माँ की उपासना से हमारी आत्मा को ढाँकने-ढाँपने वाला कुहासा कुछ-कुछ ही सही हटता है। नवरात्रि के पर्व की खासियत यही है कि समग्र भारतीय मन समेकित रूप में माँ के द्वार-दरबार पर आ खड़ा होता है।
सभी की कोशिश रहती है, अपने अनादि और आदि को देखने की, अपनी अनन्त जीवन यात्रा को आगे बढ़ाने की। जिसमें कुछ भी पुराना नहीं होता, नित्य नया-नया घटित होता रहता है। माँ की शक्ति के प्रभाव से बीज और वृक्ष का चक्र यूँ ही चलता रहता है। जीवन चक्र का कोई भी सत्य हो, सबमें बीज अवधारणा में है। बीज का अंकुरण, उसका पौधा बनना, तना बनना, फूल बनना, फल बनना और फिर बीज बन जाना। समूचा वृक्ष फिर से बीज में समा जाता है। अपनी नयी पूर्णता पाने के लिए। यही है चिर पुरातन, किन्तु नित्य नूतन सृष्टि का सनातन क्रम। इस सबका मूल, अनादि और आदि है ‘माँ’। मनुष्य के ही नहीं सृष्टि के अन्तर्बाह्य में मातृत्व का वास है।
माँ को केन्द्र में रखकर नवरात्रि के उत्सव का उल्लास छाता है। गली-गली में मेला जुड़ता है। इन मेलों का भी अपना एक खास कोमल मन होता है। मानव मन में समायी भाव संवेदना की अभिव्यक्ति होता है, मेला और मिलन। हमारे देश के मनीषियों ने चेताया है कि अलग-अलग आयु, लिंग और योग्यता के लोग मेले में मिलते हैं तो वे गिने जाने के लिए नहीं, अपनी किसी तोल, भाव के लिए नहीं, अलग से पहचान के लिए नहीं, वे भाव रूप में एक होने के लिए होते हैं। सबकी अलग-अलग मनौतियाँ होती हैं, सब अलग-अलग आए होते हैं, लेकिन माँ के द्वार पर सबका मिलन-मेला महान् माँगल्यमय होता है। विषम होते हुए भी सब एक क्षण के लिए सम हो जाते हैं।
जगन्माता की श्रद्धा में डूबे, अपने अनुष्ठान संकल्प-साधना में निमग्न सब ऐसे होते हैं, जैसे वे एक ही वृक्ष के पत्ते हों, फूल हों, फल हों, फल में निहित बीज हों। वे सिर्फ पहचान पाना चाहते हैं, अपने अस्तित्व के मूल की पहचान। अपनी सबकी माँ की पहचान, जो सब कुछ देती है, सतत् अविराम। जीवन भी उससे मिलता है, जीवन यापन के साधना की दात्री भी वही है। हम असंख्य इच्छाओं की पूर्ति की अछोर कल्प वल्ली हैं। लेकिन हमारी ये सभी इच्छाएँ माँ से जुड़कर ही पूर्ण होती है। जब हम अपने अन्तर का सब कुछ माँ के चरणों में न्यौछावर कर देते हैं और एक आन्तरिक शून्यता की अनुभूति पाते हैं, तो माँ बरबस ही इस शून्यता में पूर्णता भर देती है। क्योंकि शून्यता में ही पूर्णता भरती है। और जब अनेक एक साथ मिलकर मेला बनकर, माला की तरह गुँथकर, आन्तरिक शून्यता को पाते हैं, जो जीवन की परम सम्भावना प्रकट होती है।
जीवन की समस्त सम्भावनाओं की कोख क्या है? जिस कोख में ये सम्भावनाएँ, इस प्रकार के भाव और प्रतीति पलती हैं और जहाँ से वह प्रसवित होती है, वह है मनुष्य के लिए जननी की कोख और सृष्टि के लिए धरती की कोख। इसमें फर्क कोख का नहीं, क्रम का है, कर्म का है, ज्ञान का है। हमारी जननी का माँ होना ही हमारे लिए और सृष्टि के लिए विशिष्ट बात है। जन्म देना और जन्म लेना एक भौतिक एवं प्राकृतिक बात है। पर उसका अच्छा या बुरा होना, मंगलमय या अमंगलपूर्ण होना हमारी और प्रकृति की प्रवृत्ति, संकल्प और संस्कार पर निर्भर है। नारी जननी क्यों बनी? धरती पर अंकुर क्यों उगा? यदि वह ऊटपटांग ढंग से उगा होता तो जंगली होगा और यही किसी माली ने जतन से उगाया होगा तो उपवन और उद्यान की महक लिए होगा। यही क्रम है सृष्टि का, यही सार है मनुष्य के जन्मने और जीने का।यही है जननी के माँ होने का पुण्य प्रताप। अनादि को भी अपना आदि माँ से ही मिलता है।
नवरात्रि के नौ दिन इसी अनादि की आदि ‘माँ’ की पहचान करने के लिए है। अपवाद की बात छोड़ दें तो प्रायः किसी को यह सच्ची पहचान मिल नहीं पायी। हम माँ के द्वार दरबार में आते हैं, घर पर पूजा बेरी के ऊपर रखे माँ के चित्र के सामने माथा नवाते हैं, पर हृदय नहीं उड़ेलते। आन्तरिक शून्यता की अनुभूति नहीं कर पाते। और शून्यता के बिना माँ पूर्णता दे भी तो कैसे? हम दिखावे के लिए माँ की आरती उतारते हैं, पर दरअसल हम अपना आरत (दुःख) माँ के माथे मढ़ते हैं। भूखे रहकर मढ़ते हैं, कीर्तन करके मढ़ते हैं, जप करके मढ़ते हैं। उसकी पूजा करने का धोखा देकर मढ़ते हैं। जैसे माँ नहीं अपना दुःख, पीड़ा फेंकने का कोई कूड़ा-घर हो। भला यह कैसी पूजा, जिसमें श्रद्धा कम, लोभ और भय अधिक समाया रहता है। तनिक निहारें तो सही अपने अंतर्मन को कि नवरात्रि के ये नौ दिन हमारी श्रद्धा के हैं या स्वार्थ के? प्रार्थना के हैं अथवा फिर कामना या वासना के।
🌹 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2002/April/v1.12