149
गूंगे का गुड़ है भक्ति
महर्षि की कही गयी पंक्तियाँ सभी के अन्तःकरण में स्वरित होती रहीं। सब के मन-प्राण बरबस इन स्वरों से झंकृत होते रहे। अनायास ही सब कुछ ठहर गया। ऐसा लगने लगा जैसे कि चेतन की चैतन्यता के साथ जड़ की जड़ता भी इन स्वरों में घुल गयी है। सदा-सर्वदा अचल रहने वाली हिमशिखरों की कौन कहे- वायु एवं जल भी अपनी गति भूल गए। हिमपशुओं एवं हिमपक्षियों के रव भी मौन हो गए। भावों का अतिरेक होता ही कुछ ऐसा है। भाव थोड़े हों तो कहे जा सकते हैं, इनसे चिन्तन-चेतना में कुछ हलचल सम्भव है परन्तु यदि व्यक्तित्व में भावों का महासमुद्र ही उमड़ पड़े तो सब कुछ अनायास-अचानक स्तम्भित हो जाता है। यहाँ भी हर कोई कुछ कहना या पूछना भूल गया।
न केवल समाधि के अभ्यस्त महर्षि मौन बने रहे, बल्कि देवों, यक्षों एवं गन्धर्वों का मण्डल भी मूक रहा। हाँ! इतना अवश्य था कि सभी भक्ति के अपूर्व स्वाद की अनुभूति कर रहे थे। मौन में सब कुछ घटित हो रहा था। ऋषि कहोड़ की उपस्थिति ही कुछ ऐसी थी कि वे कुछ कहें तो सुनने वालों के प्राण स्तम्भित अचल हो उन्हें ग्रहण करने की कोशिश करते थे। अभी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। महर्षि शान्त बैठे हुए थे और उनके आस-पास के सम्पूर्ण परिसर में सर्वत्र प्रशान्ति व्याप्त थी। देर तक बाहर-भीतर सब ओर मौन व्याप्त रहा।
इसका भेदन सबसे पहले महर्षि कहोड़ ने ही किया। वह बोले- ‘‘अरे! आप सब तो ऐसे हो गए हैं, जैसे कि गूंगे को गुड़ खिला दिया गया हो पर मैं तो भगवान नारायण के प्रिय एवं परमभक्त देवर्षि नारद से अनुरोध करना चाहता हूँ कि वे अपने अगले सूत्र से हम सभी को कृतार्थ करें।’’ महर्षि के इस कथन पर देवर्षि ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। वे बस दम साधे बैठे रहे, कुछ बोले ही नहीं। अतिविनयशील देवर्षि की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ऋषि कहोड़ को भी तनिक अचरज हुआ। वे पुनः बोले- ‘‘देवर्षि! आप कहीं खो गए हैं क्या?’’ इस बार देवर्षि की चेतना में चेत हुआ। वे तनिक चौंकते फिर स्थिर होते हुए बोले- ‘‘खो तो अवश्य गया था महर्षि, परन्तु अन्यत्र कहीं नहीं, बस आपमें और आपके स्वरों में। इन्हीं की स्वादानुभूति में डूबा था।’’
‘‘कैसा लगा इनका स्वाद?’’ महर्षि के इस प्रश्न पर देवर्षि ने कहा- ‘‘हे भगवन! आपके प्रश्न का उत्तर ही मेरा अगला सूत्र है’’-
‘मूकास्वादनवत्’॥ ५२॥
गूंगे के स्वाद की तरह।
देवर्षि के इस कथन पर ऋषि कहोड़ ने कहा- ‘‘आपने उचित ही कहा देवर्षि! अनुभूति जितनी व्यापक एवं सघन होती है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही असम्भव हो जाती है। फिर भी चलना और चलते ही जाना तो भगवती की भक्ति है। आध्यात्मिक जीवन जड़ता के टूटने और छूटने का नाम है। चैतन्य तो प्रवाह है, यात्रा है। इसमें निरन्तरता और अनन्तता है। पत्थर तो ठहर जाता है, लेकिन फूल कैसे ठहरे! फूल को तो जाना है और होना है। फूल को तो एक करोड़ फूल होना है, एक अरब फूल होना है। फूल को अपनी सुरभि सम्पूर्ण धरती-अम्बर में बिखेरनी है, बांटनी है। पत्थर के पास बांटने के लिए भला है भी क्या?’’
…. क्रमशः जारी
� डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०९