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स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन-मनन Chapter 1

by Akhand Jyoti Magazine

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जागृत जिज्ञासा एवं सतत स्वाध्याय व्यक्तित्व-विकास के अमोघ उपाय

_”शीघ्र मृत्यु से बचना है तो मानसिक व्यायाम कभी भूलकर भी बंद न करें। मानसिक व्यायाम अर्थात् स्वाध्याय का अर्थ कुछ भी पढ़ना नहीं। जो विषय आप नहीं जानते उसका अध्ययन कीजिए। किसी ऐसे विषय का अध्ययन कीजिए. जिससे आपको अपनी खोपडी खुजानी पडे।” – यह शब्द अमेरिका के ६७ वर्षीय डॉ० श्वार्टज के हैं। डॉ० श्वार्टज का कहना है कि मनुष्य की मृत्यु वृद्धावस्था के कारण नहीं होती, मानसिक संस्थान की क्रियाशीलता के रुकने के कारण होती है। जो लोग निरंतर क्रियाशील रहते हैं, उनकी आयु लंबी होती है। यही नहीं वे अपने अनेक शारीरिक विकारों को भी दाब बैठते हैं, उन पर शारीरिक त्रुटियों का भी दुष्प्रभाव परिलक्षित नहीं होने पाता।

डा० श्वार्टज के मत के अनुसार अपने देश के ऋषियों, महर्षियों के जीवन का अध्ययन करें तो विश्वास हो जाएगा कि उनके दीर्घायुष्य का कारण उनकी मनोचैतन्यता ही थी। शारीरिक श्रम के साथ में मानसिक दृढ़ता और विचारशीलता के कारण वे सैकड़ों वर्षों की आयु हँसते हुए जीते थे।

अपने कथन की पुष्टि में डॉ० श्वार्टज ने एक ८४ वर्षीय अमेरिकन व्यापारी को प्रस्तुत किया, इस व्यापारी में अपने व्यापार के लिए नई-नई बातें खोजने की क्षमता है। यह अपने मस्तिष्क को सदैव कुरेदता और विचारता रहता है; जब कभी विचार ढीले पड़ जाते हैं, तब वह पढकर फिर सोचने के लिए नए विचार पैदा कर लेता है। विचारों की शाखाएँ-प्रशाखाएँ फूटती रहें, इसके लिए उसके जीवन में कर्म का समन्वय है अर्थात् वह जितना सोचता-विचारता है, उतना ही क्रियाशील भी है। 

व्यापारी से पूछा गया-“आपको शारीरिक शिकायत तो नहीं है ?” इस पर उसने हँसकर उत्तर दिया-“शिकायत होती तो डॉक्टर को न दिखाते आप देख लें, आप तो डॉक्टर हैं, कोई शिकायत होगी तो आपकी पकड़ से बाहर थोड़े ही जा सकेगी।”

डॉक्टरों ने परीक्षा की। डॉक्टर आश्चर्यचकित थे कि संसार भर की तमाम बीमारियाँ उसके शरीर में भरी पडी हैं. लेकिन उसके काम की तल्लीनता और विचारों की सजगता के कारण शरीर का विष जलता रहता है और बीमारियाँ होते हुए भी उसे चारपाई पकड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बीमारियों की ओर तो उसका कभी ध्यान भी नहीं गया। वह अपनी आयु के किसी भी व्यक्ति से ज्यादा काम करते हैं, व्यवसायिक कार्यों से संबंधित अध्ययन के बाद भी ग्रह-नक्षत्रों की खोज, जीवात्मा परमात्मा संबंधी जानकारियाँ, प्रकृति और मनुष्यगत आश्चर्यों, चमत्कारों को पढ़ने के लिए वे कुछ न कुछ समय प्रतिदिन निकालते हैं। इन जिज्ञासाओं के कारण न तो उनका मस्तिष्क ठप्प पड़ता है न क्रिया-कलाप।

डॉ० फ्रेडरिक श्वार्टज अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन के अध्यक्ष हैं। जीवन के सबसे बड़े आश्चर्य मृत्यु की खोज में उनकी गहन अभिरुचि है। उसे रोक सकना तो भौतिक दृष्टि से शायद ही कभी संभव हो पर यदि पौराणिक आख्यान सत्य हैं, जैसा कि अब प्रमाणित भी हो रहा है, तो आयु को हजार वर्ष तक खींच ले जाने की संभावनाएँ अगली शताब्दियों में ही सत्य सिद्ध हो सकती हैं। उसके लिए डॉ० श्वार्टज ने जो फारमूला बताया है, वह ऊपर दे दिया गया है। आश्चर्यों की खोज के प्रति हमारी जिज्ञासाएँ जितनी तीव्र होंगी और शारीरिक दृष्टि से जब तक क्रियाशील बने रहेंगे, मृत्यु तब तक दूर ही रहेगी, भले ही शरीर के कई कल-पुर्जे काम करना भी बंद कर दें।

विकास की पृष्ठभूमिका जिज्ञासा

पाश्चात्य देश पिछली शताब्दी से विज्ञान में तेजी से प्रगति करते जा रहे हैं। हजारों प्रकार के ऐसे उपकरणों तत्त्वों का उन्होंने अन्वेषण किया जो आज लोगों को बडे आश्चर्य के रूप में दिखाई दे रहे हैं। विज्ञान की उन्नति ने ही इन देशों को धन और साधन संपन्न बना दिया है। इसका श्रेय किसी दैवी शक्ति को न देकर उन लोगों की सूझ-समझ को देना ही उचित लगता है।

उन्होंने इतनी उन्नति कर ली और हम अभी निम्न श्रेणी में ही पड़े हैं। यह एक प्रश्न है जो हमें बार-बार कारण की खोज करने को विवश करता है। हमारे देश में प्राकृतिक साधनों की कोई कमी नहीं, मनुष्यों का अभाव भी नहीं है। लोग चाहें तो अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचे उठकर स्वयं भी उस वैज्ञानिक प्रगति और धन संपन्नता की श्रेणी में पहुँच सकते हैं, जो पाश्चात्य देशों को उपलब्ध है। किंतु कुछ कमी है जो हमारी प्रगति में बाधक है और हमें वर्तमान स्थिति से ऊँचे नहीं उठने देती हैं।

वैज्ञानिक प्रगति पाश्चात्य देशों की विरासत नहीं है। भारतवर्ष किसी समय उसकी पराकाष्ठा तक पहुँचा था इससे यह स्पष्ट है कि कोई भी देश इस क्षेत्र में ऊँचे न उठ पाने के लिए प्रतिबंधित नहीं है। ज्ञान हो तो एक से एक बढ़कर आविष्कार और अन्वेषण यहाँ भी किए जा सकते हैं और हर तरह की भौतिक समृद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी चेष्टा करना धर्म की दृष्टि से भी कुछ बुरा नहीं है। भौतिक समुन्नति भी अध्यात्म का ही एक अंग है। हमारा आर्ष इतिहास यह बताता है कि जिन दिनों यहाँ धर्म-तत्त्व का जागरण पूर्णता की स्थिति में था उन दिनों भौतिक दृष्टि से भी यह देश आज के अमेरिका, ब्रिटेन आदि से भी बढ़-चढ़ कर था। परिष्कृत अध्यात्म का लक्षण है-भौतिक समृद्धि। धर्म उसके बिना अधूरा है। साधनों के अभाव में अध्यात्म फल-फूल भी तो नहीं सकता।

जब कोई देश नया आविष्कार करता है तो उस पर हमें भी कौतूहल नहीं होता। रेडियो, टेलीविजन, परमाणु शक्ति, ऊर्जा-शक्ति, चंद्रमा की ओर प्रयाण आदि अनेकों बातें जब हमारे सामने आती हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है, कौतूहल पैदा होता है। किंतु हमारा कौतूहल बाह्य मात्र है। हम केवल कहने-सुनने तक सीमित हैं। किसी वस्तु के प्रति आश्चर्य प्रकट कर देने मात्र से वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता पूरी नहीं होती हमारा कौतूहल दरअसल आंतरिक होना चाहिए तभी सच्चे ज्ञान, आविष्कार और भौतिक समृद्धि की दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। कोरी शाब्दिक अभ्यर्थना किसी काम की नहीं होती। किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आंतरिक कौतूहल आवश्यक है। उस वस्तु की तह तक पहुँचकर सारी जानकारी प्राप्त कर लेना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

वैज्ञानिक विकास का पूर्व इतिहास यह है कि लोगों के मन में यथार्थ के प्रति जिज्ञासा पैदा हई। इससे वस्तु विश्लेषण की प्रक्रिया चल पड़ी। इस प्रकार का ऐनालिसिस जितना बढ़ा उतना ही यथार्थ की शक्ति और दक्षता का ज्ञान होता गया और उस बढ़े हुए ज्ञान के कारण तरह-तरह के आविष्कार हुए। आविष्कार परिणाम है, जिज्ञासा या आंतरिक कौतूहल इसका जन्मदाता। वस्तु के प्रति आश्चर्य का भाव पैदा न होता तो परमाणु शक्ति का पता भी न चला होता और आज के बढ़ते हुए वैज्ञानिक आविष्कारों का कहीं नाम-निशान भी नहीं होता।

ताप, चुंबक, विद्युत, शब्द और पदार्थ के अनेक सूक्ष्मतम रहस्यों का ज्ञान और उन सिद्धांतों के आधार पर वैज्ञानिक यंत्रों का निर्माण तभी संभव हुआ जब लोगों ने वस्तु के रहस्य को जानने का प्रयत्न किया और तभी वे इतनी उन्नति कर सके।

पाश्चात्य देशों के लिए यह कोई नई बात नहीं है। ऋषियों का जीवन इन खोजनों में इतना रत रहता है कि उन्हें अपने सुखों और सविधाओं में भी कटौती कर समय निकालना पड़ता था। खाने की चिंता से मुक्त होने के लिए ऋषि, पीपल के फलों पर, खेतों पर गिरे हुए अन्न के दानों पर ही अवलंबित रह जाते थे और तत्परतापूर्वक ज्ञान की शोध में लगे रहते थे। “वेद” का प्रादुर्भाव कोई सामान्य घटना नहीं है, उनमें विश्व का गूढतम दर्शन और विज्ञान भरा हुआ है। उन्हें कोई व्यक्ति एक अंश में भी जान जाए तो अतुलित शक्ति, शौर्य और साधनों का स्वामी बन जाए। इतनी बड़ी खोज यों ही नहीं हो गई ऋषियों ने जीवन-दर्शन और प्रकृति को बहुत बड़े आश्चर्य के रूप में देखा इसी से प्रेरित होकर वे ‘वेद’ की शोध कर सके।

मानव जीवन चूँकि बहुत अधिक मात्रा में इस पृथ्वी पर बिखरा पड़ा है इसलिए उसके प्रति लोगों में आश्चर्य का भाव नहीं हैं। शारीरिक, तृष्णाएँ, लालसाएँ, ऐषणाएँ भी इस मार्ग में बाधक हैं। मानव जीवन की विपुलता और इच्छाओं, लालसाओं में व्यस्त रहने के कारण मनुष्य आत्म-रहस्य जानने को भी तत्पर नहीं होता इसलिए वह अपने आप में भी एक पहेली बना हुआ है। इसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में भ्रम है, भूल है, अनात्मिकता है। यह सब इसलिए ही है कि लोगों में अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति कौतूहल का भाव नहीं है। भौतिक पदार्थों के प्रति कौतूहल से जो विज्ञान बना उससे भौतिक समृद्धि हुई। जिस आत्म ज्ञान से शक्तियों का प्रकाश होता है उससे आध्यात्मिक बल समुत्पन्न होता है। इस स्थिति में पहुँचकर ही मानव जीवन का लक्ष्य पूरा होता बताया जाता है। पर इन दोनों ही स्थितियों के लिए जन-मानस में जिज्ञासा का प्रवेश होना आवश्यक है। मनुष्य की भावनाओं में ज्ञान और विकास की भूख मिटती है तो वह बिलकुल आलसी, अशक्त, दीन-हीन एवं क्लेशपूर्ण परिस्थिति में गिर जाता है। उन्नति के द्वार बंद हो जाते हैं और वह मनुष्य जीवन के उद्देश्य से च्युत हो जाता है। उनकी प्रवृत्तियाँ अधोगामी हो जाती हैं और वे सब प्रकार के विकास से वंचित रह जाते हैं।

आज इस देश की स्थिति ठीक ऐसी ही है। भौतिक पदार्थों के प्रति उनकी जिज्ञासा का प्रभाव यह है कि हमारी भौतिक समृद्धि अवरुद्ध है और स्थूल देह में मानिष्ट प्राण के प्रति कौतूहल नहीं है इसलिए अध्यात्म ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय अंधकार में पड़ा है। लोग जिस स्थिति में हैं उससे तनिक भी आगे बढ़ने की इच्छा नहीं करते। ज्ञान के क्षेत्र में जो कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, शोध के लिए जो सांसारिक वासनाओं को मारना पड़ता है, उससे लोग डरते से रहते हैं। इसलिए हमारी विकास की प्रक्रिया अधमुंदी पड़ी है। राष्ट्र का आविष्कृत ज्ञान भी इसीलिए प्रभावशील होते हुए भी निष्क्रिय-सा, अनुपयोगी-सा पड़ा हुआ है।

अब जब हम विकास के लिए अग्रसर हो रहे हैं तो आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों क्षेत्रों में हमारी जिज्ञासाएँ समान रूप से जागृत होनी चाहिए। जब तक किसी वस्तु के प्रति सच्चे हृदय से आकर्षित नहीं होते, तब तक उसका संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता पर जिस वस्तु में रुचि होती है उसके उन पहलुओं पर हमारा मन, हमारी कल्पनाएँ दौड़ती हैं और उससे संबंधित सारी जानकारी हमें उपलब्ध करा देती हैं। बढ़े हुए ज्ञान का उपयोग किसी भी दिशा में किया जा सकता है। आत्मिक ज्ञान की अधिकता से सद्गुणों का और आंतरिक सुख का अभाव दूर होता है। उसी तरह भौतिक ज्ञान की अधिकता से साधनों का लाभ प्राप्त होता है और सांसारिक सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। यह निश्चित है कि ज्ञान ही मनुष्य के विकास का मूल तत्त्व है और जागरण के लिए जिज्ञासा आवश्यक है।

जिज्ञासा जगाइए और अपना ज्ञान भंडार भरिए

जिज्ञासा मानव जीवन के विकास का बहुत बड़ा आधार है। जो जिज्ञासु हैं, जानने को उत्सुक हैं वही जानने का प्रयत्न भी करेगा। जो जिज्ञासु नहीं उसे जड़ ही समझना चाहिए। पेड़-पौधे यहाँ तक पशु-पक्षी भी कुछ नया जानने के लिए कमी उत्सुक नहीं होते। जिज्ञासा की विशेषता ही मनुष्य को पशुओं से भिन्न करती है। वैसे जिज्ञासा के अभाव में मनुष्य भी अन्यों की तरह दो हाथ-पैर वाला पशु ही है।

जिज्ञासा में स्वयं अपनी एक ज्ञान शक्ति होती है। जिज्ञासा के जागते ही किसी बात को जान सकने का सहायक ज्ञान स्वयं ही विकसित होने लगता है। ज्यों-ज्यों जिज्ञासा गहरी होती जाती है ज्ञान भी बढ़ता जाता है, मनुष्य की जिज्ञासु वृत्ति ने ही उसे दार्शनिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं अन्वेषक बनाया है।

यदि जिज्ञासा न होती तो, मनुष्य में इस प्रकार के प्रश्न ही क्यों जागते कि वह क्या है ? यह विश्व क्या है ? इसका रचयिता कौन है ? और इस संपूर्ण प्रपंच का प्रयोजन क्या है ? इस सबका आदि कहाँ से प्रारंभ होता है ? अंत कहाँ होगा ? और क्यों इन प्रश्नों का उत्तर खोजने में परिश्रम करता। जिज्ञासा के अभाव में, मनुष्य आज जिस ज्ञान पूर्ण स्थिति में आया हुआ है, कभी नहीं आ पाता। यह जिज्ञासा की ही प्रेरणा है कि आज मनुष्य का ज्ञान भंडार इतना विशाल हो सका है और आगे इस ज्ञान भंडार में जो कुछ वृद्धि होगी उसका भी मुख्य हेतु जिज्ञासा होगी।

आज यदि मनुष्य की जिज्ञासा-वृत्ति कुंठित अथवा तिरोहित हो जाए तो उसका ज्ञानाभिमान जहाँ का तहाँ ठप्प हो जाए और तब ग्रह-नक्षत्रों का वास्तविक अस्तित्व क्या है इसका पता लगाने की दिशा में चलते हुए प्रयास जहाँ के तहाँ रुक जाएँ और तब आगे भी कभी यह जान सकने की संभावना सदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाएं कि आखिर इन मंगल, चंद्र अथवा बुध आदि ग्रहों पर क्या है ? इनका वास्तविक अस्तित्व क्या है ? क्या इन पर भी उसी प्रकार जीवन का अस्तित्व हो सकता है, जिस प्रकार कि हमारी पृथ्वी पर ? यदि इनमें जीवन है तो वहाँ के जीव किस प्रकार के हैं ? उनका कार्य क्या रहता है ? वे हम मानवों जैसे कर्म प्रधान मर्त्य हैं अथवा भोग प्रधान अमर्त्य ? क्या हम मानवों की भाँति वहाँ पर भी मनुष्य पाए जाते हैं और क्या वे हमारी तरह ही आत्मा परमात्मा और पुरुष प्रकृति पर विचार करते हैं ? उनका आध्यात्मिक दृष्टिकोण क्या हो सकता है ? उनकी साधन पद्धति क्या होगी ? मनुष्य की भाँति उनके परम लक्ष्य मोक्ष की क्या परिभाषा होगी उनकी भाषा क्या होगी और न जाने उनका साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, कला-कौशल शिल्प एवं रहन-सहन किस प्रकार का होगा ? उसमें और हम भूमिवासियों में क्या समानता और क्या अंतर होगा ?

आज मनुष्य का अंतरिक्ष ज्ञान जिस सीमा तक पहुँच चुका है जिज्ञासा के अभाव में वह उसके आगे फिर न जा सकेगा। आज जिस अणु शक्ति को मनुष्य ने खोजकर आज्ञारत बना लिया है कल इस महाशक्ति को वह आगे बढ़ा सकता है ऐसी आशा नहीं रह सकती।

यही नहीं कि जिज्ञासा के अभाव में मनुष्य का बढ़ता हुआ ज्ञान जहाँ का तहाँ रुक जाएगा बल्कि वह धीरे-धीरे नष्ट भी हो जाएगा और आज का विकसित मनुष्य कछ ही दिनों में फिर से कोरमकोर हो जाएगा। जिज्ञासा के आधार पर ही तो मनुष्य एक-दूसरे से ज्ञान ग्रहण कर आगे बढ़ाता है। जब किसी में कुछ जानने, सीखने अथवा ग्रहण करने की उत्सुकता ही न रहेगी तब वह क्यों व्यर्थ में किसी विषय पर माथा-पच्ची करेगा?

आज भी जिनमें जिज्ञासा का प्राधान्य होता है। ज्ञान के क्षेत्र में वे ही आगे निकल पाते हैं। यदि जिज्ञासा की मात्रा में अंतर न होता तो सभी एक जैसे समान स्तर के ज्ञानी, दार्शनिक, आध्यात्मिक, कवि, कलाकार, शिल्पी एवं वैज्ञानिक व अन्वेषक होते। यदि जिज्ञासा के अभाव में यह सब संभव हो सकता तो संसार का प्रत्येक मनुष्य विद्यावान् एवं वैज्ञानिक हो सकता था। मनुष्य में ज्ञान का कम-ज्यादा होना भी जिज्ञासा की मंदता अथवा तीव्रता पर ही निर्भर करता है।

जो जिज्ञासु हैं वही गहरे पैठता है। जिज्ञासु की दृष्टि सामान्य लोगों से कुछ अधिक पैनी और खोजक होती है। किसी एक दृश्य अथवा घटना को कोई सामान्य व्यक्ति देखता है तो वह उसके लिए एक साधारण बात होती है किंतु जब उसी विषय पर किसी जिज्ञास व्यक्ति की दृष्टि पड़ जाती है तो वही साधारण बात कोई दार्शनिक अथवा कवित्वपूर्ण अभिव्यक्ति पाकर असाधारण बन जाती है। जिज्ञासु के लिए संसार की हर घटना एक रहस्य एवं एक महत्त्व लिए रहती है। एक रसोइये के लिये भाप से बटलोई का ढक्कन उछलना नित्य प्रति की सामान्य बात रहती है किंतु स्टीविंसन के लिए भाप से ढक्कन का उठना-गिरना एक असाधारण रहस्य की बात बनकर इंजिन के आविष्कार का हेतु बनी ! एक माली के लिए पेड़ से फल गिरना सामान्यतम घटना है किंतु उसके आधार पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धांत के आदि गुरु ‘न्यूटन’ के लिए वह असाधारण महत्त्व की बात थी। इतनी असाधारण कि आगे चलकर उसी आधार सूत्र के बल पर अधर में लटके इस ब्रह्मांड के हर ग्रह-नक्षत्र की चाल तथा अवस्थन का रहस्य मालूम कर लिया गया।

जिज्ञासा ज्ञान की महान् जननी है। जिसने जो कुछ जानना चाहा उसे जानकर ही छोड़ा। प्रत्यक्ष में जानने का कोई सूत्र न होने पर भी जिज्ञासा मनुष्य को स्वयं से उसी प्रकार सूत्र निकाल कर दे देती है जिस प्रकार मकड़ी अपने अंतर से जाल तंतु निकाल लेती है। गहन से गहन अपराधों को, कोई आधार न होने पर भी जासूस जिज्ञासा की तीव्रता के बल पर ही पता लगा लेते हैं। जिज्ञासा के बल पर ही मनुष्य ने शरीर विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, भूगोल एवं खगोल विद्याओं का ही नहीं, अपने आंतरिक एवं आत्मिक रहस्यों को भी हस्तगत कर लिया है। मनुष्य की जिज्ञासु बुद्धि उस चींटी की तरह सतत् प्रयत्निका होती है, जो सात परर्दी में छिपी हुई शक्कर को खोजकर ही दम लेती है। जिज्ञासु बुद्धि का सहज गुण होता है कि जब तक वह लक्षित रहस्य को खोज नहीं लेती, संतुष्ट नहीं होती। दिन-रात उसके पीछे लगी रहती है।

एक ही मिट्टी से बने हुए एक जैसे हाथ-पैर समान स्थिति के मनुष्यों में से जो आगे निकल गया है, ऊँचा चढ़ गया है और दूसरा जहाँ का तहाँ ही रह गया है, उसका कारण जिज्ञासा का भाव ही होता है। निश्चय ही आगे निकल जाने वाले व्यक्ति में जिज्ञासा की प्रबलता रही होती है, जबकि फिसड्डी में उसका अभाव होता है। जो जिज्ञासु हैं, कुछ जानना और सीखना चाहता है, वह तो जाने सीखेगा ही और उसी आधार पर आगे भी बढ़ेगा। जिसमें कुछ सीखने तथा जानने अथवा पाने की जिज्ञासा ही न होगी, जहाँ का तहाँ जड़ की तरह पड़े रहने में संतुष्ट रहेगा। प्रगतिशीलता उसके लिए अनहोनी बात ही रहेगी।

कक्षा में शिक्षक पढ़ाता है, पचासों लड़के सुनते हैं किंतु उनमें से दस कुछ प्राप्त कर लेते और चालीस ज्यों के त्यों रह जाते हैं। इसका कारण यही होता है कि उन दस में जिज्ञासा की प्रबलता थी, जबकि शेष चालीस में नहीं थी। जिज्ञासु की बुद्धि बड़ी ही ग्रहणीय होती है, वह एक बार में ही कोई बात देख-सुनकर ग्रहण कर लेती है और फिर कभी उसे भूलती नहीं, अजिज्ञासु बुद्धि बड़ी ही कुंद एवं कुंठित होती है। हजार बार सुनने, देखने और पढ़ने पर भी वह न तो किसी बात को ठीक से समझ पाती है और न याद ही रख पाती है। जिज्ञासा का अभाव मनुष्य को बड़ा ही मंद बुद्धि बना देता है।

एकाग्रता, तन्मयता एवं तल्लीनता के साथ विषय प्रवेश जिज्ञासु व्यक्ति के विशेष गुण होते हैं। जिज्ञासु जिस नवीन बात अथवा चीज को देखता है, उसमें एकाग्र होकर तल तक पैठ करने का प्रयत्न किया करता है, जिज्ञासु व्यक्ति का दैनिक ज्ञान अजिज्ञासु की अपेक्षा बहत कुछ तरोताजा रहता है, एक ही स्थिति के दो मित्रों में से एक देश-देशांतरों की गतिविधि से अधिक प्रामाणिक रूप में अभिज्ञात रहता है, जबकि दूसरे को अपने पास-पड़ोस की घटनाओं का भी ज्ञान नहीं रहता। यह अंतर उनकी अपनी जिज्ञासा के स्तर के कारण ही होता है।

जिज्ञासु व्यक्ति किसी बात के हर पहलू को जानने एवं समझने का प्रयत्न किया करता है और यथा संभव अवश्य ही जानबूझ लेता है जबकि अजिज्ञासु व्यक्ति केवल तात्कालिक उपयोग के पहलू के संक्षिप्त ज्ञान से ही संतुष्ट हो जाता है। इस संबंध में एक छोटी-सी कहानी प्रसिद्ध है, जिससे पता चलता है कि जिज्ञासु व्यक्ति कितना चतुर एवं उपयोगी होता है ?

एक बादशाह का एक बहुत ही मुँह लगा नौकर था। वह दिन-रात बादशाह की सेवा में लगा रहता था। एक दिन उसे विचार आया कि वह बादशाह की सेवा में दिन-रात लगा रहता है, तब भी उसे केवल पाँच रुपये ही मिलते हैं और आपका मीर मुंशी जो कभी कुछ नहीं करता पांच सौ रुपये वेतन पाता है। इस भेद का क्या परिणाम है ? बादशाह ने हँसकर कह दिया किसी दिन मौके पर बतलाऊँगा।

एक दिन एक घोड़ों का काफिला उसकी सीमा से गुजरा। बादशाह ने अपने सेवक को भेजा कि जाकर मालूम कर यह काफिला कहाँ जा रहा है ?

नौकर गया और आकर बतलाया कि हुजूर वह काफिला सीमा के कंधार देश जा रहा है।

अब बादशाह ने मीर मुंशी को भेजा। उसने आकर बतलाया कि यह काफिला काबुल से आ रहा है और कंधार जा रहा है। उसमें पाँच सौ घोड़े और बीस ऊँट भी हैं। मैंने अच्छी तरह पता लगा लिया है कि वे सब सौदागर हैं और घोड़े बेचने जा रहे हैं। इस समय उन्हें पैसे की सख्त जरूरत है यदि हुजूर कुछ घोड़े खरीदना चाहें तो कम कीमत पर मिल सकते हैं। मैंने पचास ऐसे घोड़ों को छाँट लिया है, जो नौजवान और बड़ी ही उत्तम जाति के हैं। बादशाह ने तुरंत ही पचास घोड़े खरीद लिए जिससे उसे कम दामों पर अच्छे घोड़े मिल गये। काफिले के विषय में चिंता जाती रही और उन परदेशी सौदागरों पर बादशाह की गुण ग्राहकता का बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ा। बादशाह ने नौकर से कहा देखा तुम्हें पाँच रुपये क्यों मिलते हैं और मीर मुंशी को पाँच सौ क्यों ? नौकर ने इस अंतर के रहस्य को समझा और सदा के लिए सावधान हो गया।

जिज्ञासु व्यक्ति किसी भी बात की तह तक बैठकर उसमें से किसी न किसी प्रकार की उपयोगिता खोज लाता है ? जिज्ञासा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक चारों उन्नतियों की हेतु होती है। मनुष्य को अपनी जिज्ञासा को प्रमादपूर्वक नष्ट नहीं करना चाहिए। उसे विकसित एवं प्रयुक्त करना चाहिए और जिसमें जिज्ञासा नहीं है, उसे चाहिए कि वह तन्मय एवं गहरे पैंठने के अभ्यास से उसे पैदा करे, क्योंकि जिज्ञासा भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों महान क्षेत्रों में प्रगति एवं उन्नति का आधार बनती है।

जागृत जिज्ञासा ही आध्यात्मिक और बौद्धिक विकास का संबल एवं आधार बनती है। स्वाध्याय मात्र बौद्धिक विकास के लिए ही नहीं, आत्मिक विकास के लिए भी आवश्यक है। योग साधना में भी स्वाध्याय साधना का अभिन्न अंग है। वह शौच, संतोष, तप एवं ईश्वाराराधन इन चार के समान महत्त्वपूर्ण पाँचवाँ नियम है।

स्वाध्याय से मात्र बुद्धि बल ही नहीं बढ़ता, आत्मबल की वृद्धि की अंत:प्रेरणा भी प्राप्त होती है। आस्थाओं के अभिवर्धन एवं दृढीकरण के लिए स्वाध्याय अनिवार्य है।

एक बार एक मित्र ने सर जॉन हर्शल नामक प्रख्यात परिश्रमीय विद्वान से प्रश्न किया-“आपको सृष्टि में सर्वोत्तम वस्तु कौन-सी लगी” तो उन्होंने मुस्कराते हुए उत्तर दिया _

“भाँति-भाँति के संयोग-वियोग आए पर वह दृढ़तापूर्वक मेरे साथ जीवन के सख और आनंद का झरना बने रहे। मेरे खिलाफ हवा चले, लोग मुझे बुरा कहें, धिक्कारें, रास्ता रोकें उस समय मुझे बेपरवाह बना दें। जीवन से दुःखों में मेरी ढाल बन जाए। ईश्वर से प्रार्थना करने का अवसर मुझे मिले तो मैं निवेदन करूँगा हे प्रभु ! मुझे विद्या पढ़ते रहने की रुचि दें। ज्ञान के धार्मिक महत्त्व को घटाए बिना यहाँ मैंने केवल उसके सांसारिक लाभ बताए हैं। विद्या की अभिरुचि कैसी आनंददायिनी है, संतोष का कैसा उन्मुक्त साधन है इतना ही मैंने यहाँ स्पष्ट किया है।”

यदि मनुष्य का जीवन सामान्य भोगोपभोग और सामाजिक जीवन के कुछ ही स्तर पर ऊँचा चढ़ने में बीता, तो सारा मनुष्य जीवन तुच्छ गया यह समझना चाहिए, महानता की उच्च सीढ़ी पर प्रतिष्ठित होना चाहिए, ज्ञान ही उसका आधार है।

विद्वान किंग्स्ले ने एक स्थान पर लिखा है-ज्ञान से ही मनुष्य में ऊँचे उठने की पात्रता आती है, सुख और वैभव भी ज्ञान के बिना नहीं मिलते फिर आध्यात्मिक आनंद तो उसके बिना मिलेगा ही कैसे ? ईश्वर तक कोई चीज पहुँचा सकती है तो वह विद्या ही हो सकती है।

संसार विलक्षण है। यहाँ की प्रत्येक वस्तु विलक्षणता से परिपूर्ण है। संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जो आश्चर्यों के प्रति आकर्षित न होता हो। इस सृष्टि की रचना क्यों की गई और हमारा उसके प्रति क्या कर्तव्य है ? हम शरीर क्यों धारण किये हुए हैं ? यह प्रश्न जानने बड़े जरूरी हैं, इसके लिए हमें अपनी धार्मिक वृत्ति को तेजस्विनी बनाकर आध्यात्मिक तत्व की खोज करनी चाहिए। ज्ञान ही धार्मिकता के साथ मिलकर विद्या कहलाती है, यह विद्या ही मनुष्य को बंधनों से मुक्त कराती है।

जिन-जिन महापुरुषों ने बड़े-बड़े काम किए हैं, उन्होंने वे काम समय का सदुपयोग, विद्याध्ययन और बौद्धिक प्रतिभाओं के विकास के द्वारा ही किए हैं। दिन भर में चौबीस घंटे होते हैं। आठ घंटे सोने और आठ घंटे काम करने के लिए निकाल दिए जाएँ तो अन्यान्य विकास कार्यों अथवा मनोरंजन के लिए आठ घंटे बचते हैं। विद्याध्ययन सर्वोत्तम मनोरंजन है यदि इसके लिए प्रति दिन दो घंटे का भी समय दिया जा सके तो संसार की अनेक वस्तुओं, परिस्थितियों, समस्याओं, जीवों, जीव-वृत्तियों, तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। बढ़े हुए ज्ञान की पूँजी से सांसारिक सुख भी भुनाए जा सकते हैं और पारलौकिक अनुभूतियों का सुख भी प्राप्त कर सकता है।

पहले लोगों में स्वाध्याय की स्वाभाविक वृत्ति हुआ करती थी-“काव्य शास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम्” का सिद्धांत प्रायः सभी मानते हैं। भारतीय संस्कति की प्रतीक “देवी सरस्वती” स्वयं विद्या अथवा ज्ञान का ही स्वरूप है। लोग उनकी आजीवन उपासना किया करते थे और इस प्रकार बिना श्रम संसार समुद्र से पार उतर जाया करते थे।

अब स्थिति तब से भिन्न है। विद्यार्थी विद्यालय की शिक्षा समाप्त होते ही पुस्तकों को दूर रख देते हैं और उनकी ओर देखते भी नहीं। समस्याओं का उग्र होना शिक्षा की कमी नहीं बल्कि ज्ञान के अभाव के कारण है। ज्ञान मनुष्य की वृत्तियों को सतोगुणी बनाता है। विद्या मनुष्य को सौम्य, विनम्र और उदार बनाती है। जहाँ उसकी प्रतिष्ठा होगी तो वहाँ कलह और उपद्रव होंगे क्यों ? समस्याएँ खड़ी होंगी क्यों ? समस्याओं का अंत करने के लिए सबसे पहले विद्या बल बढ़ाना होगा। उसके लिए अधिक से अधिक साधन जुटाना होगा।

लोग अभाव और आर्थिक परिस्थितियों को कारण बताया करते हैं। कुछ लोगों को समय न होने की भी शिकायत होती है। मूल बात यह है कि ऐसे व्यक्तियों को विद्याध्ययन का न तो महत्त्व ही मालूम होता है और न उसकी रुचि ही होती है। अनेक दृष्टांतों से यह सिद्ध हो चुका है कि गरीबी विद्याभ्यास में बाधक नहीं है। पब्लियस, साइरस, इसप, किलेंथिस, बुकर टी. वाशिंगटन और टेरंस आदि प्रतिभाशाली विद्वानों का प्रारंभिक जीवन बड़ी ही कठिनाइयों में बीता है तो भी उन्होंने ज्ञानार्जन की महत्ता प्रतिपादित कर दिखाई है। एपिक टेटस १० वर्ष गुलाम रहा था उसके मालिक ने उसका पैर ही तोड़ दिया था किंतु बाद में उसने अपनी झोपड़ों में बैठकर शास्त्रों का स्वाध्याय किया और विद्वता उपलब्ध की। रोम के तत्कालीन सम्राट आड़ियान भी उसके पांडित्य का लोहा मानते हैं।

पाइथागोरस ज्यामितिशास्त्र का प्रकांड विद्वान हआ है, वह जीवनशास्त्र और नैतिक दर्शन का भी पंडित था। बहत कम लोग जानते होंगे कि वह जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाता था और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका चलाता था।

टस्कनी की टुयोरंटाइन एकेडेमी कौंसिल के उच्च और महान् प्रतिष्ठा के पद पर नियुक्त होने वाला प्रसिद्ध इटालियन लेखक जेली जात का दर्जी था। उसने इतने ऊँचे पद पर पहुँच जाने पर भी अपना धंधा दर्जीगीरी बंद नहीं किया। वह कहा करते थे, “मैंने इसी व्यवसाय के सहारे विद्या पाई है मुझे ज्ञान से इतना प्रेम हो गया है कि अपनी इसी आजीविका के सहारे मृत्युपर्यंत ज्ञानार्जन करते रहने की हार्दिक अभिलाषा है।

इटली का मेटास्टासिओ जब बालक था तो शहर की सड़कों में गाने गाया करता था। उससे जो पैसे मिलते थे उनकी किताबें और पत्र-पत्रिकाएँ खरीदकर अधिकांश समय पढ़ने में लगाया करता था। अंत में उसकी भावना सिद्ध हुई और वह एक दिन इटली का मशहूर कवि हुआ डॉ० जॉन प्रीडा जो बुस्टर के पोप नियुक्त हुए थे, उन्हें पढ़ने की अभिलाषा इतनी तीव्र हुई कि वह ऑक्सफोर्ड तक पैदल चलकर गए। फीस और खाने के लिए कोई सहारा नहीं था इसलिए वह कालेज के होटल में काम करने वाले रसोइए की मदद करते थे उसी से उन्हें इतने पैसे मिल जाते थे जिससे किसी तरह फीस और रोटी का साधन बन जाता था। वनस्पतिशास्त्र के जन्मदाता मीनियस भी इसी तरह एक मोची के पास काम करते हुए पढ़े थे।

यह उदाहरण इसलिए दिए गए हैं कि आर्थिक स्थिति विपरीत हो तो भी ज्ञान की आराधना की जा सकती है। पेट पालने के लिए कोई भी साधारण काम किया जा सकता है पर ज्ञान की उपयोगित और आवश्यकता देखते हुए उसका परित्याग करना अथवा उधर से मुख मोड़ना अपने लिए ही हानिकारक होता है। ज्ञान मनुष्य की शोभा है। ज्ञान ही धन और ज्ञान ही जीवन है उसके लिए किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता।

हम उस आध्यात्मिक आवश्यकता को भूल गए हैं। विद्या आत्मकल्याण का साधन है पर अब उसे अर्थोपार्जन का माध्यम बनाकर पंगु कर दिया गया है इसलिए हम नैतिक, आत्मिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों में पिछड़ गए हैं। यह उपलब्धियाँ अब हमें तभी मिल सकती है जब ज्ञान को उचित प्रतिष्ठा दी जाए उसके लिए सर्वस्व, न्यौछावर की भावना बनाई जाए।

सर्वोत्तम विभूति-विद्धता

शास्त्रकार ने संदेश दिया है

गतेऽपि वयसि गात्या विद्या सर्वात्मना बुधैः।

यद्यपि स्यान्न फलदा सुलभा सान्यजन्मनि ।।

“हे मनुष्यो ! उम्र बीत जाने पर भी यदि विद्या प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो तो तुम निश्चय ही बुद्धिमान हो। विद्या इस जीवन में फलवती न हुई तो भी दूसरे जन्मों में वह आपके लिए सुलभ बन जाएगी।” मनुष्य का सबसे बड़ा विवेक, गौरव और उसकी विभूति उसकी विद्वता है, इससे बढ़कर और कोई संपत्ति इस संसार में नहीं है।

विद्या शब्द ज्ञान की सार्थकता का पर्याय है। जो ज्ञान मनुष्य की लौकिक-बंधनों से मुक्त करे और उसे जीवात्मा की वस्तु स्थिति की बूझ कराए वस्तुतः वही विद्या सार्थक है। दुःख-क्लेश और अभाव हमें तब तक पीड़ित करते हैं, जब तक आत्म-स्वरूप का हमें ज्ञान नहीं होता। विद्या के प्रकाश में सब कुछ ऐसे झलकने लगता है जैसे सूर्य के प्रकाश से सारा संसार जगमग हो उठता है। मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी इसलिए धन नहीं, सत्ता और रूप सौंदर्य भी नहीं है। विद्या, बुद्धि, सद्ज्ञान, सद्बुद्धि और विवेक के मापदंड से ही व्यक्तित्व की श्रेष्ठता की परख होती है। बुद्धिमान ही सच्चे धनी होते हैं, विद्या ही सच्चा धन है योग्यता, विद्वता और प्रतिभा ही बड़प्पन की कसौटी है।

महान् पुरुष सदैव ऐसे ही अधिकारी पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने की अभिलाषा करते हैं, जिन्हें विद्या के माध्यम से ही प्रवीणता प्राप्त हुई हो। महाराज धृतराष्ट्र को कौरवों तथा पांडवों को शस्त्र प्रशिक्षण के लिए किसी सुयोग्य आचार्य की आवश्यकता थी किंतु कोई विद्वान् राजगुरु उन्हें दिखाई न दिया। एक दिन द्रोणाचार्य भी उनकी सभा में आए धनुर्विद्या में प्रवीण आचार्य का पांडित्य देखकर महाराज मुग्ध हो गए और उन्होंने समझ लिया कि इनके समीप रहकर बालकों के चरित्र का विकास हो सकेगा। अकेले शस्त्र प्रशिक्षण की बात रही होती तो वह कार्य कोई भी कर सकता था। नैतिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए विद्वता भी तो आपेक्षित है।

प्राचीन काल में अध्यापन कार्य इसीलिए सबसे कठिन कार्य माना जाता था और कोई विद्वान् पुरुष ही शिक्षक बनने का साहस कर सकते थे। ऐसे व्यक्तियों को शिक्षण का कार्य सौंपा जाता था जो अक्षर ज्ञान के साथ मनुष्य की प्रतिभा विकसित करने के लिए समर्थ होते थे। वह वस्तु विद्या ही है जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती और ऊँचा उठाती है। गिरे हुए समाज के उद्धार के लिए भी विद्या एक अनिवार्य आवश्यकता है।

आधुनिक विद्या का स्वरूप कुछ बदल गया है, वह पूर्णतया अशक्त हो चुकी है। दोनों का चरित्र-बल, कर्म शक्ति, आशा, विश्वास, उत्साह, पौरुष, संयम और सात्विकता जागृत करने की शक्ति उसमें नहीं रही। जिस विद्या में कर्तव्य-शक्ति को प्रेरणा न मिलती हो. स्वतंत्र रूप से विचार करने की बुद्धि न आती हो, परिस्थितियों से टकराने की सामर्थ्य जो न दे सके वह विद्या निस्तेज है, निष्प्राण हैं। आज का युग कुछ ऐसा ही हो रहा है। विद्यार्थी डिग्रियाँ प्राप्त करके निकलते हैं तो उनमें छल-कपट धर्तता, दश्चरित्रता, फैशन परस्ती. बिलासिता और द्वेष, अहंकार के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। स्वतंत्र चिंतन का उनमें बिलकुल अभाव होता है। विचारों की पराधीनता का नाम अविद्या है। जो मनुष्य को स्वाधीन बनाए सर्वोपरि साहसी बनाए, विद्या कहलाने का गौरव उसे ही मिल सकता है।

अध्यात्म रामायण में बड़े सुंदर शब्दों में उल्लेख मिलता है —

देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता।

नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विधति मन्यते।।

अर्थात्-“मैं देह हूँ” इस बुद्धि का नाम अविद्या है। मैं देह नहीं चेतन आत्मा हूँ इसका ज्ञान प्राप्त करना ही सच्ची विद्या है।

देह, उसकी विशेषताएँ और उसके सुखों के प्रति जब मनुष्य की चेतना एकमुखी हो जाती है तो उसकी प्रतिभा का विकास रुक जाता है। विकास का अर्थ इहलौकिक संपदाओं की विपुलता प्राप्त कर लेना नहीं है, वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक जागृति का लक्षण है। मनुष्य का स्वत्व है उसकी आत्मा और उसकी विशेषताएँ—सद्गुण, सद्प्रवृत्ति और सदाचार। आत्मा की इन विशेषताओं को उपलब्ध करना ही इस जन्म का उद्देश्य है और जो इस दिशा में हमारी चेतना को अग्रसर करे वही सच्ची विद्या है।

यह ज्ञान वैदिक साहित्य में कूट-कूट कर भरा है किंतु बाह्य शक्तियों के संघात के कारण परिस्थितियाँ ऐसी बन गई हैं कि यह वाङ्मय आधुनिक शिक्षा के मलबे में दबकर रह गया है। इससे जीवन का आध्यात्मिक क्षेत्र बिलकुल उपेक्षित बनकर रह रहा है। सर्वत्र दुःख-क्लेश और अशांति के लिए इस युग का भौतिकतावादी दृष्टिकोण ही अधिक दोषी है। एक कठिनाई यह है कि इस ज्ञान को व्यावहारिक रूप से प्रस्तुत करने के प्रयत्न भी बिलकुल निर्बल और कमजोर हो गए हैं, जहाँ-तहाँ कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ चलती भी हैं किंतु व्यक्तित्व के अभाव के कारण वह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पाता जो जन-जीवन की दिशा बदल सके। भारतीय संस्कृति का पतन भी व्यक्तित्व के अभाव में ही हुआ है। देवालयों, शिक्षालयों बिहार श्रामण और संघों से लोगों की आस्था उठ जाने का कारण यही था कि उनमें व्यक्तित्व न रहा। देव-मंदिर जड़ थे भला वे, सांस्कृतिक शक्तियों के संघर्ष का जवाब कैसे दे सकते थे ? इससे धर्म के प्रति लोगों की आस्था उठ गई और सर्वत्र अविद्या का ही अंधकार छाकर रह गया। 

वह विद्या जो मनुष्य को सही दिशा सही मार्ग और सच्चा प्रकाश दिखाती है उसे अध्यात्म कहते हैं। इस अध्यात्म को जागृत करने का काम अपने आपसे शुरू करना होगा इसके लिये विद्वता प्राप्त करना हमारी पहली आवश्यकता है। दुनियावी शिक्षा के रंग-ढंग तो बहुत देख चुके इनसे कोई समस्या हल न हो सकी। निष्कर्ष निकलता भी कैसे ? आत्म-ज्ञान के बिना परिस्थितियाँ बदल भी तो नहीं सकती। विवेक जगाने वाली विद्या न रही तो पतित होना स्वाभाविक ही था। इसी पतन से जी उकता उठा है, प्रत्येक साँस के साथ जो गंदगी भीतर जा रही है, उसके कारण अब जन-जीवन बुरी तरह बेचैन है, छटपटा रहा है। इस घुटन को दूर करने का एक ही उपाय है और वह है आध्यात्म विद्या की प्रवीणता। साधना से और व्यवहार से जब तक जीवन की दिशा सात्विक नहीं होती, गुण, कर्म और स्वभाव में सद्तत्त्वों का समावेश नहीं होता, जड़ता तब तक दूर हो नहीं सकती। आत्म-विद्या के देवालय में प्रवेश प्राप्त किए बिना न तो शांति मिल सकती है न संतोष। विद्या सुखी जीवन की प्रमुख आवश्यकता है इसे यों ही ठकराया नहीं जा सकता।

जिस विद्वता से मनुष्य स्वयं ही अपना योग्य साथी बनता है उसे प्राप्त करने के लिए अधिक अनुभव, सहनशीलता और अध्ययन की आवश्यकता है। अनुभव का उपयोग जीवन को शुद्ध बनाने के लिए है, कदम-कदम पर जो कठिनाइयाँ मनुष्य का रास्ता रोकती हैं, उनसे बचते रहने का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुभवी होना है। अनुभव विवेक का बड़ा भाई है, सत्य-असत्य की शिक्षा उसी से मिलती है इसलिए प्रत्येक गतिविधि को एक पाठ समझकर उसकी विलक्षणताओं का अध्ययन सूक्ष्मता से करते रहना चाहिए। असंगत वस्तुओं का ज्ञान इसी तरह होगा।

विद्या आत्मा की प्यास है। इसकी पूर्णाहुति आत्मज्ञान से ही होती है। अत: यह कहा जा सकता है कि अपने जीवन लक्ष्य की प्रर्ति के लिए विद्या की प्रमुख आवश्यकता है। कठोर प्रयत्नों से भी इसे प्राप्त किया जाना चाहिए। जो इसकी ओर ध्यान नहीं देता और अपने समय को व्यर्थ ही नष्ट किया करता है, वह सदा मनुष्य जन्म के फल से वंचित रहता है। विद्या मनुष्य की मलिनताओं को मिटाकर उसे उज्ज्वल बनाती है। आग में तपाए हुए सोने की शुद्धता में कोई संदेह नहीं रहता। आत्मज्ञान का लक्षण विद्वता है, वह मनुष्य की सर्वोत्तम विभूति है, उसे प्राप्त करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। विद्या से विनम्रता आती है, विनम्रता से योग्यता बढ़ती है, योग्यता से धन और धन से सुख मिलता है। यह आप्त पुरुषों का कथन है। हमें भी इस सुख से वंचित न रहना चाहिए।

स्वाध्याय तप:

गंगा तट पर स्थित महर्षि रैभ्य के आश्रम में कई ब्रह्मचारी विद्याध्ययन करते थे। नीति, धर्म और सदाचार का अभ्यास करने के साथ-साथ शास्त्र विद्या में भी पारंगत होकर वे समाज में जाते तथा सुयोग्य नागरिक की भूमिका निभाते थे। वहीं पास में एक और तापस रहते थे जो दिन-रात कठोर साधनाओं में लगे रहते। उन तापस का एक पुत्र था यवक्रीत-वह भी अपने पिता के समान ही जप-तप में लगा रहता। परंतु यवक्रीत की यह भी आकांक्षा थी कि वह वेदवेदांतों का ज्ञाता, शास्त्रों में निष्णात् और पंडित बने।।

इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए यवक्रीत ने अपने तापस पिता से पूछा। पिता ने कहा-“वत्स ! विद्या प्राप्ति का तो एक ही उपाय है। स्वाध्याय किया जाए। . परंतु तात उससे तो दीर्घकाल में सिद्धि होती है—यवक्रीत ने कहा।

यह साधक की अपनी लगन, योग्यता और ग्रहणशीलता पर निर्भर है, तापस ने कहा फिर भी इनके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।

यवक्रीत चुप हो गया, परंतु उसके मन में यह बात ठीक से समझ नहीं आई कि एकमात्र अध्ययन ही ज्ञान प्राप्ति का साधन है। हो भी तो उसे यह बहुत लंबा और श्रम साध्य लगा, इसलिए यवक्रीत ने तप द्वारा विद्या प्राप्ति के लिए अपने पिता के पास से प्रस्थान किया। फिर एकांत स्थान में जाकर यवक्रीत तप करने लगा। पंचाग्नि तप करते हए यवक्रीत अपने शरीर को निरंतर संतप्त करने लगे।

यवक्रीत को कठोर तप करते देखकर देवराज इंद्र उनके पास आए और उनसे तप का कारण पूछा। यवक्रीत ने बताया-“गुरु के मुख से वेदों की शिक्षा ठीक तरह से प्राप्त नहीं की जा सकती।

 इसके लिए मैं तप के प्रभाव से ही संपूर्ण वेदशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।”

उपयुक्त गुरु न मिले यह बात तो समझ में आती है, परंतु गुरु के बिना ही कोई ज्ञान प्राप्त कर लिया जाए यह तो नितांत असंभव है। आपने सर्वथा उल्टा मार्ग पकड़ा है विप्रवर ! गुरु के पास जाकर अध्ययन कीजिए।

इंद्र तो चले गए, किंतु यवक्रीत ने अपनी तपस्या नहीं छोड़ी कुछ वर्षों बाद इंद्र फिर आए और पुनः समझाने लगे ‘ब्राह्मण श्रेष्ठ ! आपका यह उद्योग बुद्धिमत्ता युक्त नहीं है। किसी को गुरुमुख से पढ़े बिना विद्या प्राप्त भी हो तो वह सफल नहीं होती। आप अपने दुराग्रह को छोड़ दीजिए।

इतना कहकर इंद्र चले गए, परंतु यवक्रीत ने अपना हठ नहीं छोड़ा। उन्होंने और कठिन तप आरंभ कर दिया। यवक्रीत का संकल्प था कि वह तपस्या से ही विद्या प्राप्त करके रहेगा। इस प्रकार सिद्धि प्राप्त न होते देख यवक्रीत ने निश्चय किया कि यदि इस अनुष्ठान से विद्या की सिद्धि नहीं हुई तो वह गंगा में अपने शरीर को प्रवाहित कर देंगे। यह निश्चय कर वे एक विशेष तप-अनुष्ठान पर बैठे। यवक्रीत के इस निश्चय को जानकर देवराज इंद्र ने एक अत्यंत वृद्धा एवं रोगी ब्राह्मण का रूप धारण किया तथा उसे स्थान पर आकर बैठ गए, जहाँ यवक्रीत स्नान करने के लिए आया करते थे।

यवक्रीत जब स्नान करने आए तो उन्होंने देखा कि एक दुर्बल और रोगी ब्राह्मण अंजलि में बार-बार रेत लेकर गंगा में डाल रहा है। प्रथम द्वितीय बार तो यवक्रीत ने कुछ नहीं कहा, पर जब चार-पाँच दिन तक यवक्रीत ने उस ब्राह्मण को ऐसा करते देखा तो पूछ ही बैठा विप्रवर ! आप यह क्या कर रहे हैं ?’

लोगों को यहाँ गंगा के उस पार जाने में बड़ा कष्ट होता है’-वृद्ध ब्राह्मण ने कहा-‘इसलिए मैं गंगा पर पुल बाँध देना चाहता हूँ।’ ___ यवक्रीत ने कहा-भगवन् ! आप इस महाप्रवाह को बालू से किसी प्रकार बाँध नहीं सकते ? इसलिए असंभव उद्योग को छोड़कर संभव प्रयास कीजिए।  “आप जिस प्रकार तपस्या के द्वारा विद्या सिद्ध करना चाहते हैं उसी प्रकार मैं भी यह कार्य कर रहा हूँ। आप असाध्य को यदि साध्य कर सकेंगे तो मैं क्यों नहीं कर सकूँगा”-वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण किये इंद्र ने कहा।

ब्राह्मण कौन है यह यवक्रीत समझ गए और वे महर्षि रैभ्य के आश्रम में जाकर स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति की साधना में संलग्न हो गए।

ज्ञान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति

ज्ञान को ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति माना गया है। वास्तविक वस्त वह है जो सदैव रहने वाली हो। संसार में हर वस्त काल पाकर नष्ट हो जाती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, साथी और सहयोगी छूट जाते हैं। केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी किसी अवस्था और किसी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।

धन, जन को भी मनुष्य की एक शक्ति माना गया है। किंतु यह उसकी वास्तविक शक्तियाँ नहीं हैं। इनका भी मूल स्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान के आधार पर ही धन की उपलब्धि होती है और ज्ञान के बल पर ही समाज में लोगों को अपना सहायक तथा सहयोगी बनाया जाता है। अज्ञानी व्यक्ति के लिए संसार की कोई वस्तु संभव नहीं। धन के लिए व्यापार-व्यवसाय किया जाता है, नौकरी और शिल्पों का अवलंबन किया जाता है, कला-कौशल की सिद्धि की जाती है। किंतु इनकी उपलब्धि से पूर्व मनुष्य को इनके योग्य ज्ञान का अर्जन करना पड़ता है। यदि वह इन उपायों के विषय में अज्ञानी बना रहे तो किसी भी प्रकार इन विशेषताओं की सिद्धि नहीं कर सकता और तब फलस्वरूप धन से सर्वथा वंचित ही रह जाएगा।

यही बात जन शक्ति के विषय में भी कही जा सकती है। जन-बल को भी अपने पक्ष में करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। जब किसी को जनमानस का ज्ञान होगा, उसकी आवश्यकताओं और समस्याओं की जानकारी होगी, उसे सत्पथ दिखला सकने की योग्यता होगी, उसके दुःख-दर्द और कष्ट-क्लेशों के निवारण कर सकने की बुद्धि होगी, तभी जन बल पर, अपनी छाप छोड़कर उसे अपने पक्ष में किया जा सकता है। जनता का सहज स्वभाव होता है 

कि वह अपने सच्चे हितैषी का ही पक्ष धारण किया करती है। जनता का हित किस बात में है और संपादन किस प्रकार किया जा सकता है. इसका ज्ञान हुए बिना ऐसा कौन है, जो जन-बल को अपनी शक्ति बना सके। जन-बल का उपार्जन भी ज्ञान द्वारा ही संभव हो सकता है।

किसी शक्ति के उपलब्ध हो जाने के बाद भी उसकी रक्षा और उसके दुरुपयोग के लिए भी ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान के अभाव में शक्ति का होना न होना बराबर होता है। उसका कोई लाभ अथवा कोई भी आनंद नहीं उठाया जा सकता। उदाहरण के लिए मान लिया जाए कि कोई उपार्जन अथवा उत्तराधिकार में बहुत-सा धन पा जाता है या किसी संयोगवश उसे अकस्मात् मिल जाता है, तो क्या यह माना जा सकता है कि वह धन शक्ति वाला हो गया क्योंकि धन में स्वयं अपनी कोई शक्ति नहीं होती। वह शक्ति तभी बन पाती है, जब उसके प्रयोग अथवा उपयोग से ज्ञान का समावेश होता है।

यदि मनुष्य यह भी न जानता हो कि वह उस धन से कौन-सा व्यवसाय करे, किस जन-हितैषी संस्था को दान दे, समाज के लाभ के लिए, कौन-सी क्या स्थापना करे ? वह धन द्वारा किस प्रकार दीन-दुःखियों, अपाहिजों अथवा आवश्यकताग्रस्त लोगों की सहायता करें ? उसको व्यय कर किस प्रकार का रहन-सहन बनाए, क्या और किस प्रकार के कामों में उसको भगाए, जिससे समाज में उसका आदर हो, आत्मा में प्रकाश हो और परमार्थ में रुचिता बढ़े तो वह उसकी क्या शक्ति बनकर सहायक हो सकेगा।

बल्कि अज्ञान की अवस्था में या तो वह धन को आबद्ध रखकर समाज और राष्ट्र की प्रगति रोकेगा, चोर-डाकुओं और ठगों को आकर्षित करेगा अथवा ऊल-जलूल विधि से उसका अपव्यय एवं अनुपयोग करके समाज में विकृतियाँ पैदा करेगा, अपना जीवन बिगाड़ेगा। यह तो मनुष्य की वास्तविक शक्ति का लक्षण नहीं है। धन की शक्ति में वास्तविकता तभी आती है, जब उसके संग्रह एवं उपयोग का ठीक-ठीक ज्ञान होता है नहीं तो अपमार्गों द्वारा संचित धन मनुष्य की निर्बलता और आशंका का हेतु बनता है। दुरुपयोग द्वारा भी वह समाज में अपवाद, ईर्ष्या, द्वेष आदि का लक्ष्य बनकर निर्बलता की ओर बढ़ता है। इसलिए यह मानना ही होगा कि वास्तविक शक्ति न धन में होती है और न जन में, वह होती है उस ज्ञान में जो इन उपलब्धियों के उपार्जन एवं व्यय का नियंत्रण किया करता है।

शारीरिक शक्ति को तो प्रायः लोग निर्विवाद रूप से शक्ति ही मानते हैं। किंतु वास्तविकता यही है कि इस शक्ति को भी नियंत्रित तथा उपयोग करने का ठीक ज्ञान न हो तो इसका कोई लाभ नहीं होता। शारीरिक शक्ति को कहाँ लगाया जाए, उसका उपयोग किस प्रकार किया जाए—यदि इस बात की ठीक जानकारी न हो तो या तो वह शक्ति किसी शोषक के अर्थ लग जाएगी अथवा कोई कुटिल उसका उपयोग कर किसी संकट में उलझा देगा। यदि एक बार ऐसा न भी हो तो भी किसी सजन में न लगकर या तो वह यों ही नष्ट हो जाएगी अथवा किसी ऐसे काम में स्थापित हो जाएगी, जिसका मूल्य नगण्यतम ही होगा।

ज्ञान-हीन शारीरिक शक्ति, पशु शक्ति होती है। वह अपना और दूसरों का बहुत कुछ अनिष्ट कर सकती है। अपना अनिष्ट तो इस तरह कि वह बल के अभिमान में कोई ऐसा प्रदर्शन करने का प्रयत्न कर सकता है, जिसमें अंग-भंग हो जाए, शक्तिमद से प्रेरित होकर किसी से अकारण उलझकर संकट उत्पन्न कर सकता है। अपनी धृष्टता और उइंडता से समाज को विरोधी बना सकता है। सदुपयोग का ज्ञान न होने से चुप न रहने वाली शारीरिक शक्ति गलत रास्तों पर जा सकती है और इसी अबूझ तथा अनियंत्रित प्रवाह में पड़कर ही तो बहुत-से लोग अपराधी, अत्याचारी तथा दुस्साहसी बन जाया करते हैं और तब उनकी वह शक्ति विविध प्रकार के भयों का कारण बन जाती है। इसलिए तन, मन, धन और जन-शक्ति को वास्तविक शक्ति न मानकर उस ज्ञान को ही मानना चाहिए, जो उनके उपाजन नियंत्रण तथा उपयोग का संचालन किया करता है।

मनुष्य की वास्तविक शक्ति ज्ञान है — पर वास्तविक ज्ञान क्या ? इसका जान लेना भी नितांत आवश्यक है। ऐसा किए बिना मनुष्य किसी भी जानकारी को ज्ञान समझकर पथ-भ्रांत हो सकता है। यदि वह भौतिक विभतियों के उपार्जन के उपायों की जानकारी को ज्ञान समझ ले अथवा किन्हीं गलत क्रियाओं की विधि या अपने किसी अंध-विश्वास को ही ज्ञान समझ बैठे, तब तो उसका कल्याण ही नष्ट हो जाए और वह अज्ञान के अंधकार में ही भटकता रह जाए। शास्त्रकारों और मनीषियों ने जिस वास्तविक ज्ञान का संचय करने का निर्देश किया है, वह स्कूल और कालिजों में मिलने वाली शिक्षा नहीं है और न इसे संचय करके ज्ञान प्राप्ति का संतोष कर लेना चाहिए। स्कूली शिक्षा तो लौकिक जीवन को साधन-संपन्न बनाने और वास्तविक ज्ञान की ओर अग्रसर होने का एक माध्यम मात्र है, वास्तविक ज्ञान नहीं है।

बहुत-से लोग शास्त्र और धार्मिक ग्रंथों में दिए निर्देशों की जानकारी ही को ज्ञान मान बैठते हैं और बहुत-से लोग महात्माओं अथवा आर्ष-ग्रंथों के वाक्यों को रट लेना भर भी ज्ञान समझ बैठते हैं। किंतु यह सब बातें भी वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधन मात्र है। वास्तविक ज्ञान नहीं है। शास्त्रों को स्वाध्याय और महात्माओं का सत्संग वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने में सहायक तो हो सकता है किंतु इसका उपार्जन तो मनुष्य को स्वयं ही आत्म चिंतन एवं मनन द्वारा ही करना पड़ता है। पुस्तक पढ़ लेने अथवा किसी महात्मा का कथन सुन लेने भर से वास्तविक ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती। वास्तविक ज्ञान तो आत्मानुभूति के द्वारा ही संभव हो सकता है।

आज के वैज्ञानिक काल में ज्ञान के विषय में और भी अधिक भ्रम फैला हुआ है। लोग वैज्ञानिक शोधों, आविष्कारों और अन्वेषणों को ही वास्तविक ज्ञान मानकर मदमत्त हो रहे हैं। प्रकाश, ताप, विद्युत, वायु, जल, गति चुंबकत्व के ज्ञान और उसके उपयोग, प्रयोग को ही सच्चा ज्ञान समझकर अज्ञान के घने अंधकार में घुसते चले जा रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि आज का सारा वैज्ञानिक ज्ञान विशुद्ध भौतिक अनुभूतियों को प्राप्त करने के लिए साधन भर है और आज के इन वैज्ञानिक साधनों ने मनुष्य को इस सीमा तक भ्रांत कर दिया है कि वह आत्मा, परमात्मा को भूलकर बुरी तरह नास्तिक बनता जा रहा है। जिसकी परिसमाप्ति, यदि शीघ्र ही अज्ञान और विज्ञान विषयक अंधविश्वास का सुधार न किया गया तो भयानक ध्वंस में ही होगी। जिस ज्ञान का परिणाम विनाश हो उसे वास्तविक ज्ञान किस प्रकार माना जा सकता है ?

वास्तविक ज्ञान का लक्षण तो वह स्थिर बुद्धि और उसका निर्देशन है, जिसे पाकर मनुष्य अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, असत्य से सत्य की ओर उन्मुख होता है। सच्चे स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन-मनन ज्ञान में न तो असंतोष होता है और न लिप्साजन्य आवश्यकताएँ। उसकी प्राप्ति तो आत्मज्ञता, आत्म-प्रतिष्ठा और आत्म-विश्वास का ही हेतु होती है। जिस ज्ञान से इन दिव्य विभूतियों एवं प्रेरणाओं की प्राप्ति नहीं होती, उसे वास्तविक ज्ञान मान लेना बड़ी भूल होगी।

इस प्रकार का वास्तविक ज्ञान किसी प्रकार का भौतिक ज्ञान नहीं शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान ही हो सकती है और सांसारिक कर्म करते हुए, उसे प्राप्त करने का उपाय करते ही रहना चाहिए। फिर इसके लिए चाहे स्वाध्याय करना पड़े, सत्संग अथवा चिंतन-मनन करना पड़े, आराधना, उपासना अथवा पूजा-पाठ करना पड़े। वास्तविक ज्ञान के बिना न तो जीवन में शांति मिलती है और न उसको परकल्याण प्राप्त होता है।

वास्तविक ज्ञान ही जीवन का सार और आत्मा का प्रकाश है। एक मात्र सच्चा ज्ञान ही लोक-परलोक में अक्षय तत्त्व और सच्चा साथी है, बाकी सब कुछ नश्वर तथा मिथ्या है तथापि ज्ञानवान् पुरुष के लिए यह मिथ्या जगत और नश्वर पदार्थ भी आत्म-दर्पण में आत्मस्वरूप के रूप में प्रतिर्विबित होते हुए यथार्थ रूप में प्रतीत होने लगते हैं। ज्ञान का अमृत न केवल मनुष्य को ही बल्कि उसके जीवन-जगत को भी अमरत्व प्रदान कर देता है। ज्ञान की महिमा अपार एवं अकथनीय है।

ज्ञान की प्राप्ति ही मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है। अस्तु, इस सत्य को अच्छी प्रकार हृदयंगम करके सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने का हर संभव उपाय करते ही रहना चाहिए, कि तन, धन अथवा जन की शक्ति वास्तविक शक्ति नहीं है और उनकी प्राप्ति का उपाय ही ज्ञान है। यह सब भौतिक जीवन में साधनों का समावेश करने का माध्यम मात्र है। वास्तविक ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है और वही मनुष्य की सच्ची शक्ति भी है, जिसके सहारे वह आत्मा तक और आत्मा से परमात्मा तक पहुंचकर उस सुख, उस शांति और उस संतोष का अक्षय भंडार हस्तगत कर सकता है, जिसको वह जन्म-जन्म से खोज रहा है किंतु पा नहीं रहा है। ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य इच्छित जगत के निर्माण में समर्थ होता है। स्वाध्याय, सत्संग एवं चिंतन-मनन की त्रिपदा साधना ही ज्ञान-सिद्धि का उपाय है।

Author : Pandit Sriram Sharma Acharya

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2 comments

Ankit May 24, 2022 - 8:33 pm

सचमुच आनंद आ गया

अखंड ज्योति 🌄 July 16, 2022 - 2:58 pm

प्रणाम पढें और आगे शेयर करें🙏

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