निराशा एक प्रकार की नास्तिकता है। जो व्यक्ति संध्या के डूबते हुए सूर्य को देखकर दुखी होता है और प्रातः काल के सुनहरी अरुणोदय पर विश्वास नहीं करता, यह नास्तिक है। जब रात के बाद दिन आता है, मरण के बाद जीवन होता है, पतझड़ के बाद वसंत आता है, ग्रीष्म के बाद वर्षा आती है। सुख के बाद दु:ख आता है, तो क्या कारण है, कि हम अपनी कठिनाइयों को स्थायी समझे !!
जो माता के क्रोध को स्थायी समझता है और उसके प्रेम पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है और उसे अपनी नास्तिकता का दंड रोग, शोक, विपति, जलन, असफलता और अल्पायु के रूप में भोगना पड़ता है। लोग समझते है कि कष्टों के कारण निराशा आती है, परंतु यह भ्रम है। वास्तव निराशा के कारण कष्ट आते है !! जब विश्व में चारों ओर प्रसन्नता आनंद, प्रफुल्लता और उत्साह का समुद्र लहलहा रहा है, तो मनुष्य क्यों अपना सिर धुने और पछताए ? मधुमक्खी के छत्ते में से लोग शहद निकाल ले जाते है, फिर भी वह निराश नहीं होती। दूसरे ही क्षण वह पुनः शहद इकट्ठा करने का कार्य आरंभ कर देती है। क्या हम इन मक्खियों से कुछ नहीं सीख सकते? धन चला गया, प्रियजन मर गए, रोगी हो गए, भारी काम सामने आ पड़ा, अभाव पड़ गए, तो हम रोये क्यों ? कठिनाइयों का उपचार करने में क्यों न लग जाये।
• पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
– अखंड ज्योति, नवंबर १९४७
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